क्या मोहन भागवत, नरेंद्र मोदी और RSS को नयी दिशा और दशा दे रहे हैं?
भागवत केंद्र में विकास को फिर से स्थापित करने की दिशा में इनको प्रोत्साहित कर सकते हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने लंबे समय से भारत का एक समरूप दृश्य रखा है, जिसके अनुसार सभी को बहुमत की इच्छा के अनुरूप होना चाहिए.
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के संस्थापक, केशव बलराम हेडगेवार और इसके दूसरे और सबसे शक्तिशाली सरसंघचालक, माधव सदाशिव गोलवलकर, धर्म और जाति पर आधारित समाज के निर्माण के पक्ष में थे.
लेकिन आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत अलग तरीके की सोच रखते हैं. हाल ही की एक बैठक में, उन्होंने खेद व्यक्त किया कि जब तक लोग जाति और धार्मिक आधारों पर वोट देते हैं, तब तक वोट बैंक की राजनीति समाज को हानि पहुंचाती रहेगी. एक स्वीकृत हिंदू संगठन के नेता से यह वक्तव्य आना एक स्वागत योग्य विचार है. उनका कहना है कि हर कोई अपनी पसंद के धर्म का अभ्यास करने के लिए स्वतंत्र है.
भागवत का यह विचार आरएसएस में उन कई लोगों के विपरीत है जो मानते हैं कि अल्पसंख्यक संख्यात्मक रूप से भारत को उखाड़ने वाला है. भागवत ने पहले भी सहिष्णुता और समावेश की आवश्यकता की बात की थी. लेकिन आरएसएस और इसके प्रमुख के लिए बड़ी चुनौती, दाएं-विंग समूहों को लगाम लगाना होगा जिसको खुद आरएसएस से ताकत और वैधता मिलती है.
भागवत RSS के संस्थापकों की विचारधारा के उलट अब नया आयाम स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं
भागवत का मानना है कि जाति और धर्म पर अत्यधिक जोर दिए जाने के कारण प्रधान मंत्री के विकास के एजेंडे में बाधा आ रही है. और वास्तव में वह लक्ष्य से दूर हैं. लेकिन अब मोहन भागवत का ये भी दायित्व होता है कि वे दलितों और अल्पसंख्यकों पर हमलों के खिलाफ भी बोलें और अपने अनुयायियों को अधिक से अधिक समावेशी और सहिष्णु भारत के लिए काम करने के लिए प्रेरित करें.
धर्म की तरह भागवत को यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि हर भारतीय को अपना फैसला लेने का हक़ है. वह किससे शादी करे, क्या खाएं, क्या पढ़े और क्या देखे, और कब असहमत हो. यह लोकतंत्र का आधार है और भागवत अपने झुंड पर अपना प्रभाव डाल सकते हैं. ताकि उन्हें सकारात्मक बदलाव के लिए उत्प्रेरक बनाया जा सके.
आरएसएस केंद्र और कई राज्यों में सत्तारूढ़ पार्टी पर एक प्रभाव डालती है. और भागवत केंद्र में विकास को फिर से स्थापित करने की दिशा में इनको प्रोत्साहित कर सकते हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने लंबे समय से भारत का एक समरूप दृश्य रखा है, जिसके अनुसार सभी को बहुमत की इच्छा के अनुरूप होना चाहिए.
जाति और धर्म वास्तव में हमारी राजनीति पर एक बहुत बड़ा बोझ है. यदि भागवत कम से कम भाजपा के भीतर दोनों बातों को संबोधित कर सकते हैं, तो वे देश को एक संकेत देंगे. खासकर उस समय जब देश विभाजित होता नज़र आ रहा है. और यह भी दिखाएगा कि वे आरएसएस के संस्थापक हेडगेवार के दृष्टि से कितने दूर आए हैं.
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