कांग्रेसी कैंपेन में 400 करोड़ रुपए लगाकर प्रशांत किशोर पाएंगे क्या?
2017 के यूपी में चुनाव में कसौटी पर भले कांग्रेस हो, लेकिन दाव पर साख प्रशांत किशोर की है. उनके कहने पर 400 करोड़ रुपए खर्च करने जा रही पार्टी क्या सफल हो पाएगी?
-
Total Shares
प्रशांत किशोर से तीन सवाल:
1. क्या एक बार फिर प्रशांत किशोर राजनीति में तुरुप का इक्का साबित होंगे?
2. क्या उत्तर प्रदेश की राजनीति में मूर्छित पड़ी कांग्रेस में वो जान फूंक पाएंगे?
3. क्या इस बार राजनीतिक चुनौती लेने में चूक गए हैं प्रशांत किशोर?
प्रशांत किशोर, राजनीति में वो तुरुप का इक्का हैं, जिसने पहले नरेन्द्र मोदी को केन्द्र की सत्ता तक पहुंचने में मदद की और फिर नितीश कुमार को बिहार की गद्दी कायम रखवाई. अब ऐसे में भला देश की ग्रैंड ओल्ड पार्टी कांग्रेस कैसे राजनीति के इस महारथी को नजरअंदाज कर सकती है. लिहाजा, प्रशांत किशोर के सहारे अब कांग्रेस ने 2017 में होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में कम से कम 100 सीट जीतने का सपना संजोया है. इसका ठेका प्रशांत किशोर को दिया जा चुका है. पहले बीजेपी फिर जेडीयू के लिए गेमचेंजर साबित हुए किशोर अब उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की वापसी का रास्ता तय करने जा रहे हैं.
पहला मौका
प्रशांत किशोर ने राजनीति में अपने हुनर का पहला परिचय 2014 आम चुनावों में नरेन्द्र मोदी के कैंपेन को संचालित करके दिया. नरेन्द्र मोदी उस वक्त गुजरात के मुख्यमंत्री थे और प्रशांत किशोर उनके सरकारी निवास पर रहते हुए पार्टी के कैंपेन को दिशा देने का काम कर रहे थे. मोदी के दूसरे करीबी अमित शाह की भूमिका मुख्यमंत्री आवास पर बनी स्ट्रैटेजी को बूथ स्तर पर ले जाकर उसे कृयान्वित करने की थी. मई 2014 में आए नतीजों ने प्रशांत किशोर को राजनीति में बतौर रणनीतिकार स्थापित कर दिया. मोदी की केन्द्र में सरकार बनी और प्रशांत किशोर को प्रधानमंत्री कार्यालय में बतौर पारितोषिक एक भूमिका, जिसे उन्होंने नकार दिया. वजह, चुनावों में बीजेपी की जीत का असली श्रेय अमित शाह को मिला और साथ में पार्टी के अध्यक्ष की कुर्सी.
पुनरावृत्ति
प्रशांत किशोर के लिए बीजेपी या उसकी सरकार से जुड़े रहने का कोई मतलब नहीं रह गया. अपनी स्ट्रैटेजी से बीजेपी को केन्द्र की गद्दी पर पहुंचाने में किशोर को लगा कि वास्तविक राजनीति में वह अमित शाह से हार गए. लिहाजा, जल्द बिहार विधानसभा चुनावों ने किशोर को सीधे अमित शाह से दो-दो हाथ करने का मौका दिया और इस बार उन्हें जेडीयू को बीजेपी पर भारी साबित करना था. एक बार फिर प्रशांत किशोर जेडीयू के मुख्यमंत्री दावेदार नितीश कुमार के बेहद करीबी हो गए. उनका मुख्यमंत्री आवास पर रहना और दाना-पानी शुरू हो गया. जेडीयू का पूरा ढ़ांचा चुनावी मैदान में किशोर के निर्देश और रणनीति पर काम करने लगा. राज्य में बीजेपी के खिलाफ महागठबंधन बना जहां लालू प्रसाद, नीतिश और कांग्रेस एक साथ हो गए और सभी को प्रशांत के निर्देश मिलने लगे. कई बार लालू को यह नागवार गुजरा लेकिन जब नतीजे आए तो सभी ने किशोर के हुनर पर एक बार फिर मुहर लगा दी.
तीसरी चुनौती
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को जीवित करना- इसके लिए पार्टी को कम से कम 100 सीटों पर जीत दिलाना होगा. चुनाव प्रचार में 400 करोड़ रुपये खर्च करने का बजट, राहुल गांधी के लिए राज्य में 200 रैली का आयोजन और बिहार जैसे ग्रैंड एलायंस की संभावना को तलाशते हुए उसे कारगर करना जिससे 2017 के चुनावों में बीजेपी को करारी हार दी जा सके. यह सभी प्रशांत किशोर का ग्रैंड प्लान है. इसके साथ ही एक गेमचेंजर प्लान भी तैयार किया जा रहा है कि प्रियंका गांधी वाडरा को राजनीति में अहम भूमिका देते हुए लांच करना.
गौरतलब है कि प्रशांत किशोर की पहली दोनों चुनौती (बीजेपी और जेडीयू) में दोनों ही पार्टी उनकी भूमिका से इतर भी जीत की तरफ अग्रसर थे. यानि, 2014 लोकसभा चुनावों में बीजेपी के पक्ष में 10 साल के कांग्रेस शासन से पैदा हुई एंटीइंकम्बेंसी बीजेपी को बड़ा फायदा देने जा रही थी. किशोर ने महज बीजेपी के प्रधानमंत्री कैंडिडेट नरेन्द्र मोदी की राष्ट्रीय स्तर पर बेजोड़ ब्रांडिंग की. इसका सीधा फायदा उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में बीजेपी को मिला क्योंकि इन राज्यों में वह लहर तैयार हुई जो नरेन्द्र मोदी को बतौर प्रधानमंत्री देखना चाहती थी. वहीं मोदी की इस ब्रांडिग और मनमोहन सिंह की 10 साल की सरकार के चलते कांग्रेस मान कर बैठी थी कि उसे सत्ता से बाहर बैठना होगा. लिहाजा 2014 आम चुनावों में कांग्रेस का शिथिल पड़ना भी बिजेपी के लिए रास्ता आसान करने का काम कर रहा था.
वहीं, बिहार में लड़ाई सीधे नितीश कुमार बनाम नरेन्द्र मोदी थी. केन्द्र में मोदी की सरकार बनते ही नितीश कुमार ने जेडीयू-बीजेपी गठबंधन को तोड़ते हुए मुख्यमंत्री पद छोड़ने का मास्टर स्ट्रोक चला. इस कदम से नितीश कुमार लगातार मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार के रूप में बने रहे. वहीं बीते लोकसभा चुनावों में बीजेपी को मिली अप्रत्याशित जीत ने जेडीयू-आरजेडी को एक साथ लाकर खड़ा कर दिया. इस कदम ने भी लगातार नितीश कुमार को रेस में आगे रखा. अब चुनावों में बीजेपी को करारी हार देने के लिए भले प्रशांत किशोर ने पूरे महागठबंधन को एक साथ रखने में नितीश कुमार की मदद की और श्रेय भी लिया लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि यहां जेडीयू-आरजेडी-कांग्रेस का बिजेपी के खिलाफ गठजोड़ शुरू से ही जीत की ओर अग्रसर था.
अब उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को पुनर्जीवित करने की चुनौती प्रशांत किशोर के पहले दोनों कारनामों से अलग है. बीते दो दशकों में कांग्रेस राज्य में अस्तित्वहीन राजनीति करने पर मजबूर रही है. कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने भले राज्य में अपने पारिवारिक धरोहर रायबरेली और अमेठी को बचाकर रखा है लेकिन इस बात में भी कोई संदेह नहीं है कि राज्य के अन्य अहम राजनीतिक दलों से इन्हें कोई खास चुनौती नहीं मिलती है. इसका जीता-जागता उदाहरण यही है कि रायबरेली और अमेठी की लोकसभा सीट पर सोनिया और राहुल के कब्जे के बावजूद यहां कि विधानसभा सीटों पर कांग्रेस प्रत्याशी जीतने की कोई गारंटी नहीं रहती.
बीते दो दशकों से राज्य में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का वर्चस्व रहा है और इस दौरान कांग्रेस को राज्य में चुनाव लड़ने के लिए 403 उम्मीदवार तक नहीं मिलते. इसके साथ ही पार्टी के स्तर पर कांग्रेस के पास जमीनी स्तर पर कार्यकर्ता नहीं हैं. ऐसे में प्रशांत किशोर को अपनी चुनौती में इस नई हकीकत का सामना करना पड़ेगा क्योंकि यहां कांग्रेस के पास न तो अमित शाह हैं और न ही नीतिश और लालू की तरह कार्यकर्ताओं की फौज.
अब रहा सवाल प्रशांत किशोर के गेमचेंजर प्लान का- जहां प्रियंका गांधी को प्रमुख ब्रांड बनाकर कांग्रेस की राज्य में वापसी कराने का है. बीते एक दशक में उत्तर प्रदेश में मिली हर करारी हार के बाद राज्य कांग्रेस ने प्रियंका लाओ कांग्रेस बचाओ का नारा लगाया है. इस बात में कोई शक नहीं है कि देश में कांग्रेस को हमेशा करिश्मा ई नेतृत्व का फायदा मिला है. बात इदिरा गांधी की हो या राजीव गांधी की, इनके करिज्मा ने कांग्रेस को हमेशा सत्ता में बनाए रखा है. लेकिन मौजूदा राजनीतिक स्थिति में क्या प्रियंका गांधी में वह करिश्मा मौजूद है जिसके सहारे कांग्रेस राज्य में एक बार फिर प्रासंगिक हो सकती है. यदि मान भी लें कि ऐसा हो जाए. प्रियंका के आते ही राज्य में कांग्रेस की सरकार बन जाए, तब प्रशांत किशोर को यह सोचना होगा कि क्या इसका श्रेय उन्हें मिल पाएगा.
लिहाजा, इतना तय है कि राजनीति में हुनर की वास्तविक चुनौती प्रशांत किशोर को पहली बार मिली है. यह न तो केन्द्र में बीजेपी की सरकार बनवाने जितना आसान है और न ही यहां कांग्रेस के लिए कोई एंटीइंकम्बेंसी इंतजार कर रही है.
आपकी राय