राहुल गांधी ने साथ 'छोड़ दिया' तो कांग्रेस ने क्यों पकड़ रखा है!
कांग्रेस के नेताओं को राहुल गांधी के अमेठी के पाठ से वस्तुस्थिति समझ में आ सकती है - एक बार वो जिसे छोड़ देते हैं पकड़े नहीं रहते. कांग्रेस को एक नेता खोजना है, जिसका नाम राहुल गांधी न हो - ये गांठ बांध लें!
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कांग्रेस नेतृत्व फिलहाल अपने ही नेताओं के निशाने पर है. सीधे सीधे न सही, लेकिन सभी नेता परोक्ष रूप से सोनिया गांधी को ही टारगेट कर रहे हैं. भाषा में थोड़ी तमीज या तहजीब भले हो, लेकिन कांग्रेस को लेकर अब तक जो भी बातें सामने आयी हैं - साफ साफ कहा जा रहा है कि जो कुछ हो रहा है वो ठीक नहीं है.
सवाल ये है कि ये सब किसके इशारे पर हो रहा है? जिन नेताओं के भी ऐसे बयान आ रहे हैं उसमें राहुल गांधी की बात जरूर हो रही है. कांग्रेस नेताओं के ताजा बयानों में काफी गुस्सा झलक रहा है. ऐसा लग रहा है जैसे वे बड़ी मुश्किल से कुछ कह पा रहे हैं. समझा जा रहा है कि ये जो भी बातें हैं वे सिर्फ बोलने वाले नहीं, बल्कि खामोश रहने वाले नेताओं के भी मन की बात है.
कांग्रेस के सीनियर नेता सलमान खुर्शीद ने जो मुद्दा उठाया है उसमें भी वही बात है जो अशोक तंवर ने पार्टी छोड़ कर समझाने की कोशिश की है, या फिर संजय निरूपम कांग्रेस छोड़ने की चेतावनी देकर कोई खास इशारा किया है.
राहुल गांधी ने तो जिम्मेदारी ले ली, बाकी नेता कब लेंगे?
सलमान खुर्शीद कह रहे हैं कि कांग्रेस में अब तक इस बात की भी समीक्षा नहीं हुई कि पार्टी 2019 का चुनाव भी इस कदर क्यों हारी? तो क्या सलमान खुर्शीद भी एंटनी कमेटी को महज रफा-दफा-समिति मानते हैं?
सलमान खुर्शीद के कहने का लहजा तो यही है कि राहुल गांधी 'भाग खड़े हुए!' मतलब, राहुल गांधी अभी जिम्मेदारी नहीं निभा रहे हैं. अगर सलमान खुर्शीद खुद भी ऐसा मानते हैं तो राहुल गांधी को उनके हाल पर छोड़ क्यों नहीं देते? सिर्फ सलमान खुर्शीद ही क्यों कांग्रेस के दूसरे ऐसे नेता भी क्यों नहीं हकीकत को स्वीकार कर पाते? बाकियों की की कौन कहे खुद सोनिया गांधी भी इस सच को स्वीकार क्यों नहीं कर लेतीं?
आखिर क्यों राहुल गांधी को जबरदस्ती फिर से उसी सड़ी हुई पॉलिटिक्स में घसीटने की कोशिश हो रही है जिससे एक दशक से ज्यादा जूझने के बाद वो निजात पाने की कोशिश कर रहे हैं? ये तो होने से रहा कि कांग्रेस के असरदार नेता वो सब होने देने से रहे जैसा राहुल गांधी चाहते हैं. राहुल गांधी की मर्जी के मुताबिक सिस्टम तो बदलने से रहा.
राहुल गांधी ने सिर्फ कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी नहीं छोड़ी है - एक तीर से एक से ज्यादा निशाने साधने की कोशिश की है. राहुल गांधी के टारगेट पर दिखाने के लिए तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और उनके साथी ही हैं. ताकि आगे से ये कहने का किसी को मौका न मिले कि कांग्रेस सिर्फ एक परिवार की पार्टी है. देखा जाये तो राहुल गांधी ने उन सभी नेताओं को सबक सिखाने की कोशिश की है जो फिलहाल सोनिया गांधी को गुमराह किये जाने को लेकर सवालों के घेरे में हैं. राहुल गांधी के इस्तीफा देने के पीछे मैसेज तो ये भी था कि ऐसे नेता भी अपनी हरकतों से बाज आयें और नया नेतृत्व नये सिरे से नया कांग्रेस बनाने की कोशिश करे. मगर, अफसोस ऐसा हुआ नहीं.
सलमान खुर्शीद ये तो ठीक कह रहे हैं कि कांग्रेस को स्थाई नेतृत्व की दरकार है. मतलब, यहां भी साफ है कि मौजूदा व्यवस्था से वो खफा हैं. ये भी हो सकता है कि सोनिया गांधी के फिर से कमान संभालने के बाद वो राहुल राज जैसी आजादी नहीं महसूस कर पा रहे हों.
संजय निरूपम और अशोक तंवर के बाद सलमान खुर्शीद - आगे किसकी बारी है?
सलमान खुर्शीद कहते हैं, 'ये एक खालीपन जैसा है. सोनिया गांधी ने दखल दी है, लेकिन संदेश साफ है कि वो एक अस्थायी व्यवस्था के तौर पर हैं... मैं ऐसा नहीं चाहता.'
वैसे सलमान खुर्शीद आखिर राहुल गांधी की ही वापसी क्यों चाहते हैं? अगर सोनिया को भी नहीं चाहते, फिर किसी और नेता के लिए वकालत क्यों नहीं करते? जैसे शशि थरूर, महंत चरणदास और श्रीप्रकाश जायसवाल जैसे नेताओं ने प्रियंका गांधी वाड्रा को अध्यक्ष बनाये जाने की जोरशोर से वकालत शुरू की थी. हालांकि, राहुल गांधी पहले ही जता चुके हैं कि वो प्रियंका गांधी वाड्रा को कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बनाये जाने के पक्ष में नहीं हैं. लगता तो ये भी है कि सोनिया गांधी भी राहुल गांधी की इस राय से पूरा इत्तेफाक रखती हैं, वजह कुछ और भी हो सकती है.
हो सकता है 2018 के विधानसभा चुनावों में जीत और तीन राज्यों में कांग्रेस की सरकार बन जाने के बाद अगर आम चुनाव नहीं हुआ होता तो ये नौबत नहीं आयी होती. सलमान खुर्शीद तो पहले ही मान चुके हैं कि महाराष्ट्र और हरियाणा चुनाव में कांग्रेस के जीत की भी कोई संभावना नहीं लगती. अब तो बेहतर यही होता कि कांग्रेस नेता समझदारी से मान लेते कि राहुल गांधी का फैसला टाल देना या हर फैसला गलत नहीं होता. अगर होता भी है तो जैसे बाकी फैसले मानते आये हैं - अध्यक्ष पद छोड़ने की बात भी अंदर से स्वीकार कर लेते और थोड़ा आगे की सोचते.
राहुल गांधी ने तो जितना हो सकता, जो बन पड़ा पूरे प्रयास किये. फाइनल इस्तीफे में भी दोहराया कि वो ये मानने को तैयार नहीं है कि 'चौकीदार चोर...' नहीं है - सच बात तो ये है कि राहुल गांधी ने अपनी जिम्मेदारी ले ली है - अब सवाल यही है कि बाकी नेता कब लेंगे? अगर कांग्रेस नेता राहुल गांधी के हार के बाद अमेठी में भाषण सुनें तो काफी सुकून महसूस कर सकते हैं. राहुल गांधी जो भी छोड़ देते हैं पकड़े नहीं रखते. वायनाड के बहुत देर बाद अमेठी पहुंचे राहुल गांधी का कहना रहा कि वो उनके नेता नहीं रहे. राहुल गांधी ने समझाया कि वो वायनाड के सांसद हैं उनकी बात करना और आवाज उठाना आगे से उनकी जिम्मेदारी होगी. अमेठी के लोगों को अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी - हां, ये भी कहा कि अगर जरूरत पड़ी तो वो उनके लिए हाजिर जरूर रहेंगे.
कांग्रेस में अशोक तंवर के तेवर का असर तो हो रहा है - लेकिन कहां तक?
राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद मनमोहन सिंह मनाने में जुटे थे. पी. चिदंबरम तो रो ही पड़े थे. शायद इतने दुखी कि बाद में जेल जाते वक्त भी वैसा महसूस नहीं हुआ होगा. वो लोगों की दुहाई दे रहे थे. कह रहे थे लोग आपसे बहुत प्यार करते हैं. फिर भी राहुल गांधी ने किसी की एक न सुनी. जब देखा कि ये ऐसे नहीं मानने वाले तो इस्तीफा अच्छे से लिख कर ट्विटर पर डाल दिया - ट्विटर शायद ऐसी बातों के लिए एक असरदार हथियार साबित होने लगा है.
सलमान खुर्शीद का राहुल गांधी को लेकर जो कुछ कहा है वो भी वैसी ही भावना लिये हुए है, लेकिन उसमें एक भीतरी खीझ भी समाहित है. सलमान खुर्शीद का बयान काफी महत्वपूर्ण है. महत्वपूर्ण इसलिए नहीं क्योंकि ऐसा सलमान खुर्शीद ने कहा है, बल्कि बयान में शब्दों का चयन उसे ज्यादा अहम बना देता है.
सलमान खुर्शीद कह रहे हैं 'हमारी सबसे बड़ी समस्या ये है कि हमारे नेता ही छोड़ गये.'
सवाल तो ये भी है कि सलमान खुर्शीद ने ऐसा क्यों कहा है - और ये अभी क्यों कहा है?
सलमान खुर्शीद के बयान को भावनात्मक हिसाब से देखें तो कुछ और समझ में आता है, लेकिन इसके राजनीतिक मायने समझने की कोशिश करें तो बात अलग समझ में आती है. ऐसा लगता है एकबारगी तो ऐसा लगता है जैसे सलमान खुर्शीद भी कांग्रेस में खुद को अशोक तंवर या संजय निरूपम की तरह पेश करने की कोशिश कर रहे हैं. सलमान खुर्शीद भी यही जताने की कोशिश कर रहे हैं कि कांग्रेस में एक बार फिर से उन्हीं सलाहकारों का कब्जा हो गया है जो निहित स्वार्थों के लिए नेतृत्व को गुमराह करते रहते हैं.
राहुल गांधी भी तो ऐसी ही बातें कर रहे थे. राहुल गांधी ने तो नाम लेकर ही कह दिया था - अशोक गहलोत और कमलनाथ जैसे नेता. ऐसे और भी होंगे जिनका नाम लेना राहुल गांधी ने भी ठीक नहीं समझा होगा. राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी छोड़ने की भी बड़ी वजह ये नेता ही रहे होंगे जो राहुल गांधी को अपने मन की करने में आड़े आ रहे होंगे.
CWC की ही मीटिंग में प्रियंका गांधी वाड्रा ने भी ऐसी ही बात कही थी - 'कांग्रेस का हत्यारा इसी कमरे में बैठा है.'
आखिर ऐसी क्या वजह है कि सोनिया गांधी अपने ही नेताओं के मुंह से ऐसे बयानों को दावत दे रही हैं? अशोक तंवर का कहना रहा कि राहुल गांधी के करीबी नेताओं को टारगेट किया जा रहा है. संजय निरूपम तो नाम भी ले रहे हैं - मल्लिकार्जुन खड्गे जैसे नेता.
तो क्या माना जाये? क्या ये समझ लिया जाये कि अशोक तंवर भले ही कांग्रेस छोड़ चुके हों, लेकिन उनकी बातों का असर होने लगा है?
सलमान खुर्शीद भी कह चुके हैं - 'हमारी सबसे बड़ी समस्या ये है कि हमारे नेता भाग रहे हैं.'
रणदीप सिंह सुरजेवाला तो अशोक तंवर के कांग्रेस छोड़ने को बड़ा नुकसान बताने लगे हैं. कांग्रेस के मीडिया प्रभारी रणदीप सुरजेवाला अपनी कैथल विधानसभा सीट बचाने में लगे हैं. 2018 में जींद उपचुनाव हार चुके सुरजेवाला को क्या अशोक तंवर की नाराजगी का उलटा असर पड़ता तो नहीं नजर आ रहा है? सुरजेवाला को ये तो मालूम है ही कि जींद उपचुनाव में जीत न सही लेकिन आखिरी पायदान पर तो वो पार्टी की गुटबाजी के चलते ही पहुंच गये थे.
सुरजेवाला ने 'आज तक' से बातचीत में अशोक तंवर को कांग्रेस में वापस लाये जाने की सलाह दी है. सुरजेवाला के हिसाब से ये काम भी किसी और को नहीं बल्कि उन्हीं नेताओं को करना होगा जो अशोक तंवर के आखिरी कदम उठाने के लिए जिम्मेदार हैं.
सवाल तो ये भी है कि अशोक तंवर की वापसी को लकेर रणदीप सुरजेवाला का बयान कहीं उनकी निजी राय तो नहीं है?
सुनने में ये भी आया था कि कांग्रेस छोड़ने से पहले अशोक तंवर सोनिया गांधी से मिल कर अपनी बात रखना चाहते थे. अशोक तंवर की पत्नी अवंतिका के हवाले से इस बात की काफी चर्चा रही. देखा जाये तो अशोक तंवर और सोनिया गांधी के बीच अवंतिका एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं - क्योंकि अशोक तंवर के लिए भले ही सोनिया गांधी कांग्रेस की 'अंतरिम अध्यक्ष' हों, लेकिन अवंतिका के लिए 'सोनिया आंटी' हैं - वो सोनिया आंटी जो आतंकवादी हमले में अवंतिका के मां-बाप की हत्या के बाद उनके बड़े होने तक सबसे बड़ा संबल बनी रहीं - और अवंतिका का पहला विवाह फेल हो जाने के बाद अशोक तंवर से दूसरे विवाह में प्रमुख भूमिका भी निभायी थीं.
सवाल और भी हैं - कांग्रेस का अंदरूनी झगड़ा इस कदर बाहर क्यों आने लगा है?
आखिर कांग्रेस नेता अचानक इतने मुखर क्यों हो गये हैं?
क्या ये सब कांग्रेस नेताओं की स्वयंसेवा भावना का नतीजा है या फिर अपने भविष्य की चिंता सताने लगी है?
कहीं ऐसा तो नहीं कि ये सब एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा है जिसे मौजूदा नेतृत्व की मंजूरी मिली हुई है?
कहीं ऐसा तो नहीं कि ये राहुल गांधी की 'जनता की बेहद मांग पर' वापसी की बुनियाद खड़ी किये जाने की कवायद है?
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