Congress की बेचैनी का कारण मुद्दा विहीन होना है
पालघर (Palghar Lynching) मामले के बाद से कांग्रेस (Congress) राहुल गांधी (Rahul Gandhi) और सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) की आलोचना हो रही है. ऐसे में जब हम पार्टी के इतिहास को देखें तो मिलता है कि पूर्व में ऐसा बहुत कुछ हुआ है जिसका खामियाजा आज पार्टी को भुगतना पड़ रहा है.
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इधर कई वर्षों से कांग्रेस (Congress) में आपसी सलाह मशविरे या कार्यसमिति (Working Committee Meeting) की बैठक करने की परम्परा लगभग समाप्त सी हो गयी थी. लेकिन, जब से लॉकडाउन (Lockdown) हुआ है, कांग्रेस की दो कार्यसमिति की बैठकें हो गयी है. आखिर कांग्रेस में इतनी बेचैनी बढ़ क्यों गयी. वास्तविकता यह है कि कांग्रेस को कोई मुददा तो मिल नहीं रहा है. इटली (Italy), स्पेन (Spain), जर्मनी (Germany), फ्रांस (France), बेल्जियम, ब्रिटेन (Britain) और अमेरिका (America) जैसे महाशक्तिशाली और सुविधा संपन्न देशों के बजाय पीएम मोदी (PM Modi) का नेतृत्व कोरोना के खिलाफ लड़ाई में इतना अच्छा कैसे कर रहा है यही सोनिया मैडम की समझ में नहीं आ रहा है. यही कारण है उनकी बेचैनी का. उन्होंने बयान दिया कि 'भाजपा संकट की घड़ी में फैला रही है नफरत का वायरस.' अब इसकी वजह क्या है. पालघर में, महाराष्ट्र में जहां कांग्रेस के समर्थन से शासन चल रही है, वहां 200 से 300 लोगों ने मिलकर दो गेरूआ वस्त्रधारी साधुओं को पीट-पीटकर मार डाला (Palghar Lynching). इस पर सवाल उठाना ही उनको नफरत का वायरस दिख रहा है.
पालघर मामले को लेकर कांग्रेस राहुल गांधी और सोनिया गांधी तीनों ही सवालों के घेरे में हैं
कांग्रेस की किसी भी नेता ने इस नरसंहार की निंदा नहीं की. यदि देशभर में किसी पादरी की हत्या हो जाती है तब तो कांग्रेस उसको तुरंत राष्ट्रीय मुद्दा बना लेती है. वह उनके लिए साम्प्रदायिकता नहीं है. कहीं एक मुसलमान को गौ मांस बेचने के आरोप में भीड़ मार देती है तो उसे भी कांग्रेस राष्ट्रीय मुद्दा बना लेती है. वह भी साम्प्रदायिकता फैलाना नहीं है इनके लिए. लेकिन, पालघर में दो साधुओं को इनके शासन में मार दिया गया तो उसपर उठायी आवाज में इनको नफरत का वायरस दिख रहा है.
दो तथाकथित कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने एक स्वतंत्र पत्रकार अर्णव गोस्वामी को श्रीमती सोनिया गांधी के खिलाफ कुछ बोलने के आरोप में उनके गाड़ी को रोककर उन पर हमला किया तो उसकी निंदा नहीं की. उलटे अर्णव पर दर्जनों मुकदमें करवा दिये. उनको इसमें नफरत का वायरस नहीं दिख रहा. चलिए, इन्होंने नफरत के वायरस की बात कर ही दी है तो मैं बताता हूं कि नफरत का वायरस फैला कौन रहा है. इसकी शुरूआत हम करेंगे 1927 से.
जवाहर लाल नेहरू 1920 के बाद से ज्यादातर लंदन में ही रहते थे. यह ठीक है कि उनकी पत्नी श्रीमती कमला नेहरू बीमार रहती थीं. उनका ईलाज करा रहे थे स्वीटजरलैंड में और स्वीटजरलैंड के मौसम का आनन्द भी उठा रहे थे. 1926 के अन्त में ब्रुसेल्स में कम्युनिस्टों का एक बड़ा आयोजन हुआ था. नेहरू उसमें शामिल हुए. बहुत प्रभावित हो गये. इसके बाद उन्हें और उनके पिता श्री मोती लाल नेहरू जी को 1927 में मास्को में आमंत्रित किया गया.
क्योंकि, रूस की क्रांति जो 1917 में हुई थी, उसका 10 वर्ष पूरा हो रहा था और उसी के लिए एक बड़ा आयोजन था. दोनों पिता-पुत्र वहां गये और जब वहां गये तो वे मार्क्सवादी कार्यकलापों से और रूस में हो रही प्रगति से इतने प्रभावित हो गये कि मन नही मन ठान लिया कि जब भी भारत में मौका मिलेगा तो वैसा ही करेंगे. कम्युनिष्टों को तो नफरत फैलाकर ही राजनीति करनी होती है तो ये क्यों पीछे रहते. ये ब्रुसेल्स और मास्को से लौटकर पूरे तौर पर मार्क्सवादी विचारधारा के हो गये.
गांधी जी से इन्होंने मतलब का संबंध बना कर रखा. लेकिन, गांधीवाद या गांधी के ग्राम स्वराज की कल्पना से इनका कोई तालमेल नहीं था. इस काम में सहयोग करने के लिए उन्हें सहयोगी मिल गये पक्के कम्युनिष्ट वीके कृष्ण मेनन, जो आमतौर पर लंदन में ही रहा करते थे. कृष्ण मेनन जी नेहरू के संपर्क में 1934 में आ गये थे और नेहरू की पहली किताब को छपवाने का जिम्मा भी वीके कृष्ण मेनन ने ही लिया था.
जब द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हुआ तो 5 अक्टूबर 1945 को गांधी जी ने नेहरू जी को एक लंबा पत्र लिखा. यह पत्र अभी भी सुरक्षित है. एक पुस्तक है 'गांधी एक असंभव संभावना.' प्रो0 सुधीर चन्द्र ने लिखी है. इस पुस्तक के पेज 24-25-26 पर गांधी जी का एक लम्बा पत्र है. उन्होंने बड़े प्यार से नेहरू जी को लिखा है कि द्वितीय विश्व युद्ध अब समाप्त हो गया है.
ऐसा लगता है कि भारत को आजादी मिल जायेगी. तुम आकर मेरे पास बैठो और किस प्रकार से ग्राम स्वराज की कल्पना और किस प्रकार से गांवों को शामिल करके देश के विकास की कल्पना मेरे पास है, उसपर एक बार विचार हो. गांधी जी की कल्पना तो स्पष्ट थी कि गांव और गरीब के बिना देश की प्रगति नहीं हो सकती.
नेहरू ने 5 अक्टूबर के पत्र का जबाव 9 अक्टूबर को दिया जो इसी पुस्तक के पेज संख्या 27 पर मुद्रित है. नेहरू जी लिखते हैं कि 'ग्राम आमतौर पर बौद्धिक और सांस्कृतिक रूप से पिछड़ा होता है. ऐसे संकीर्ण मानसिकता के लोगों को झूठे और अहिंसक होने की संभावना है. इनको लेकर देश का विकास कैसे होगा? यानि गांधीवाद के विरूद्ध नफरत की आग फैलानी नेहरू ने आजादी के पहले ही शुरू कर दी.
दूसरी घटना बताता हूं. एक गांधीवादी विचारक और बहुत ही बड़े लेखक हैं बनवारी जी. इनकी पुस्तक है “भारत का स्वराज और महात्मा गांधी।' इस पुस्तक के चैप्टर 'युवा पीढ़ी' में इन्होंने 1936 की घटनाओं का वर्णन किया है. इन्होंने लिखा है कि नेहरू आन्दोलन के बाद ज्यादातर लंदन में ही समय बिताते थे. स्वीटजरलैंड में उनकी पत्नी का देहांत भी हो चुका था.
1936 के उत्तर प्रदेश के लखनऊ में कांग्रेस अधिवेशन में उन्हें बुलाकर और उनको कांग्रेस अध्यक्ष बनाने की बात शायद गांधी जी ने ही सोची होगी. जवाहर लाल नेहरू प्रयागराज के रहने वाले थे. कांग्रेस की परंपरा में यह था ही नहीं कि जिस राज्य में अधिवेशन हो उसी राज्य का अध्यक्ष कांग्रेस चुने. लेकिन, कांग्रेस ने गांधी जी के अनुरोध पर नियमों में अपवाद करके उनको कांग्रेस का अध्यक्ष चुना.
गांधी जी ने जवाहर लाल नेहरू को कहा कि तुम सरदार बल्लभ भाई पटेल और डा राजेन्द्र बाबू से सलाह करके कांग्रेस कार्यसमिति का गठन करो. कार्यसमिति तो गठित हो गई, लेकिन उसमें गांधीवादी कम और मार्क्सवादी ज्यादा थे. इसके ऊपर से नेहरू ने अपने कांग्रेस मुख्यालय में डा राम मनोहर लोहिया, केएम अशरफ, जेड ए अहमद, सज्जाद जहीर जैसे चुने हुए समाजवादियों और मार्क्सवादियों को महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दे दी.
इस पर गांधीवादी नेता बहुत विचलित हुए. राजेन्द्र बाबू और बल्लभ भाई पटेल अन्य नेताओं के साथ गांधी जी से मिले. गांधी जी ने नेहरू को पत्र लिखने के लिए कहा. राजेन्द्र बाबू ने पत्र लिखा। उस पत्र को गांधी जी को दिखाकर ही भेजा गया. उस पत्र में नेहरू जी से क्षुब्ध डा राजेन्द्र प्रसाद, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, जयरामदास दौलतराम, जेपी कृपलानी, सरदार बल्लभ भाई पटेल, जमुना लाल बजाज और षंकर राव देव ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया.
खैर बाद में नेहरू ने अपनी गलती मानी और इस्तीफा वापस करने के लिए कहा. लेकिन, उन्होंने गांधी जी को पत्र में लिखा कि ये लोग नफरत फैला रहे हैं. गांधी जी का जबावी पत्र है कि 'तुम समझ रहे हो कि ये लोग नफरत फैला रहें हैं लेकिन मैं समझता हूं कि तुम तो उससे ज्यादा नफरत फैला रहे हो. तो यह नफरत तो 1936 से ही फैल रही है। यह नफरत तो नेहरू खानदान के जीन में ही है.
खैर देश को आजादी मिल गयी और जैसी कि गांधी जी कि इच्छा थी, जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री भी बन गये. अब यह तो रहस्य का विषय है कि पूरी कार्यसमिति ने जब सरदार बल्लभ भाई पटेल का नाम प्रस्तावित किया था तो नेहरू प्रधानमंत्री कैसे बन गये. खैर प्रधानमंत्री बनने के बाद नेहरु जी ने वीके कृष्ण मेनन को अपने सबसे महत्वपूर्ण सहयेागी के रूप में रखा. वीके कृष्ण मेनन तो वैसे ही 1934 से इनके सलाहकार थे. शुद्ध रूप से मार्क्सवादी थे. लेकिन, वीके कृष्ण मेनन की बिना सलाह के नेहरू जी शायद ही कोई बड़ा काम करते थे.
एक पुस्तक आई है जो कांग्रेस के सांसद और नेता श्री जयराम रमेश जी ने लिखी है. पुस्तक का नाम है 'चेकर्ड ब्रिलिऐंस- द मेनी लाइफस ऑफ़ वीके कृष्ण मेनन.' इस पुस्तक के चैप्टर न. 10-11 में जयराम रमेश ने नेहरू–कृष्ण मेनन के आपसी पत्राचारों का वर्णन किया है और इन पत्रों से स्पष्ट है कि किस प्रकार नेहरू बिना कृष्ण मेनन की सलाह के कोई काम करते ही नहीं थे. उन्होंने चैप्टर 9 में इसका भी रहस्योघाटन किया है कि लार्ड मांउट बेटन को वायसराय बनाकर भारत में लाने की योजना भी कृष्ण मेनन ने ही बनाई थी.
मांउट बेटन और लेडी मांउटबेटन के नेहरु के साथ सम्बन्धों के किस्से को दुनिया तो जानती ही है. अब नेहरू जब प्रधानमंत्री बन गये तो उन्होंने गांधी जी को प्रसन्न करने के लिए या गांधीवादियों को संतुष्ट करने के लिए बहुत सारी गांधीवादी संस्थाएं बना दी. इनका सरकार से सीधा कोई मतलब नहीं था. लेकिन, कुछ न कुछ दान अनुदान सरकार उनको हर साल देती रहती थी. तो एक प्रकार से गांधीवादियों को झुनझुना थमा दिया और नेहरू ने सरकार अपने हिसाब से चलाया.
नेहरू जी के समय से ही जो कांग्रेस का संस्कार बना वह नफरत की खेती और भ्रष्टाचार का खेल का ही था. नेहरू जी के काल में ही धर्म तेजा कांड हुआ. धर्म तेजा की जयंती शिपिंग कम्पनी के साथ भ्रष्टाचार शुरू और वे अब कांग्रेस के संस्कार में चले गए हैं. नेहरु जी ने गांधी जी की हत्या के बाद मौका उठाकर सभी देशभक्तों और राष्ट्रवादी संस्थाओं को सताना शुरू किया. संघ पर बिना मतलब प्रतिबंध लगाया.
सावरकर जब झूठे मुकदमें से वरी हुए तो देशभक्त उनका स्वागत करें, जुलूस निकालें, इसमें उन्हें कानून व्यवस्था भंग होती दिखी और सावरकर जी को गिरफ्तार कर पुलिस वाले मुम्बई छोड़कर आयें इसकी व्यवस्था करवाई. यह थी नफरत की आग.
अब आइये इंदिरा जी पर. इंदिरा जी में अपने पिता का पूरा संस्कार कूट-कूटकर भरा था. प्रधानमंत्री बनने के बाद सबसे पहला काम उन्होंने यही किया क बराह गिरी बेंकट गिरी को राष्ट्रपति बनाने के लिए कांग्रेस के अधिकृत उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी का विरोध किया और खुलकर यह घोषणा की कि सभी कांग्रेसी अपनी अंतरात्मा की आवाज पर वोट करें. यह नफरत की आग नहीं थी तो क्या था.
कांग्रेस के सभी वरिश्ठ नेता चाहे वो एस निलंगप्पा, एसके पाटिल, अतुल्य घोष, बीजु पटनायक, के कामराज ही क्यों न हों तमाम लोगों को जो पुराने गांधीवादी थे, उनको पार्टी से निकाल बाहर किया और कांग्रेस-इंदिरा के नाम की अलग पार्टी बना ली. पुरानी कांग्रेस ‘कांग्रेस आर्गेनाइजेशन’ के नाम से कुछ वर्षों तक चलती रही.
लेकिन, कांग्रेसियों का संस्कार ऐसा हो गया था कि वे सत्ता से अलग रह नहीं सकते थे. इसलिए वह पार्टी धीरे-धीरे समाप्त हो गयी. इसके बाद तो नफरत का भयंकर दौर चला. इंदिरा जी जिसको देखती कि यह कांग्रेसी हमसे ज्यादा लोकप्रिय हो रहा है, उसको पार्टी से निकाल देतीं या उसकी हत्या हो जाती. एक-दो नाम नहीं है, दर्जनों नाम है.
नारायण दत्त तिवारी, हेमवतीनन्दन बहुगुणा, या चन्द्रशेखर हों या ललित नारायण मिश्रा. बाद में वीपी सिंह भी गये. ये सभी लोग जो बहुत ही मेधावी नेता थे कांग्रेस के. क्योंकि, कांग्रेस में भी देश भक्त हैं. सोचते समझते हैं. लेकिन पता नहीं क्यों इस प्रकार की उनकी प्रवृत्ति हो गयी है कि वे नेहरू परिवार की गणेश परिक्रमा करते रहते हैं.
तो जब इंदिरा जी ने उन सबको जो उनसे सहमत नहीं थे या खतरा बन सकते थे उनको अलग-अलग रास्ता दिखा दिया. इसके बाद इन्होंने पाकिस्तान को दो भाग में तोड़ने की योजना बनाई. वह तो ठीक निर्णय था। बंगलादेश में बंगालियों पर अत्याचार हो रहा था. उन पर उर्दू थोपा जा रहा था, जो वे पसंन्द नहीं कर रहे थे. लेकिन, जब इंदिरा गांधी ने अपनी सेना बंग्लादेश भेजी जो उस समय पूर्वी पाकिस्तान था. उस समय इंदिरा गांधी को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए था कि बंगाली समुदाय के अतिरिक्त बिहार और उत्तर प्रदेष के मुसलमान जो लाखों की संख्या में वहां रह रहे थे उनपर भी हो रहे अत्याचार को रोकें.
यह काम इंदिरा गांधी ने नहीं किया, और लाखों उर्दू, हिन्दी, भोजपुरी, अवधि, मैथिली बोलने वाले जो मुसलमान भाई थे उनको भेंड़ बकरों की तरह काटा गया. क्या यह नफरत की आग नहीं थी. यह बताता है कि जब वोट की राजनीति करनी होगी तो इसी नफरत की आग दूसरे तरह से पैदा कर दिया जायेगा. इसके पहले 1966 में 7 नवम्बर को जब वोट क्लब पर संतों ने गौ हत्या बंद करने के लिए धरना दिया.
शांतिपूर्ण संत बैठे हुए थे. बिना किसी कारण के उनपर गोली चलवाई गयी. पचासों संत मरे, सैंकड़ो घायल हुए. क्या यह नफरत की आग नहीं थी. इसके बाद जो इंदिरा जी ने सिखों के साथ जो किया वह तो सर्वविदित है. पहले भिंडरावाले को पैदा किया और अपना काम साधने के बाद निर्ममता पूर्वक अकाल तख़्त को ढाह कर मरवा भी दिया.
उसी के कारण ये मारी भी गयीं. कांग्रेसी कहते हैं कि वे शहीद हो गयी. यह उनका पक्ष है लेकिन, आम आदमी से पूछेंगे तो वे यही कहेंगे कि सिखों पर अत्याचार किया तो एक सिख ने उन्हें मार दिया. 1971 के युद्ध में, मैं खुद युद्ध संवाददाता के रूप में एक वर्ष से ज्यादा बांग्लादेश में रहा. मैंने तो देखा है कि क्या स्थिति की गई.
एक भी बिहारी, यूपी, ओडिया, असमी मुसलमानों को छोड़ा नहीं गया. कत्लेआम किया गया. यह कत्लेआम नाजियों के कत्लेआम से बड़ा कत्लेआम था. यदि इंदिरा जी शेख मुजीव को एक सन्देश भेज देतीं तो यह गैर-बंग्ला भाषियों का कत्लेआम रूक सकता था जो उन्होंने न जाने क्यों नहीं किया. इसके बाद इंदिरा जी ने मार्क्सवादियों के प्रभाव में उनके कहने से कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण किया, बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया.
अमेरिका के प्रभाव में रूपये का अवमूल्यन भी किया और इसके बाद तो जब उनके भ्रष्टाचार के खिलाफ जेपी का आन्दोलन शुरू हुआ तो इन्होंने 16 अप्रील 1974 को भुवनेश्वर में खुलेआम भाषण में जेपी पर आरोप लगाते हुए कहा कि 'सेठों के पैसों पर पलने वाले भ्रष्टाचार की बात न करें.' जेपी बहुत आहत हुए और अपने पूरे आय-व्यय का ब्यौरा अखबारों में प्रकाशित करवा दिया.
अब आइये राजीव गांधी पर. 31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी. उसके बाद से सिखों का खुलेआम नरसंहार हो रहा था पूरी दिल्ली में. घरों से खींच-खींचकर उन्हें मारा जा रहा था. उनकी पगड़ी में आग लगाई जा रही थी. महिलायें और बच्चों को भी नहीं छोड़ा जा रहा था. लेकिन, राजीव गांधी जी शपथ के दो दिन बाद बोट क्लब पर हुई सभा में कहते हैं. 'जब कोई विशाल बरगद गिरता है तो धरती तो थोड़ी बहुत हिलती ही है.' यह क्या नफरत नहीं है.
ठीक है इंदिरा गांधी विशाल बरगद थीं. देश मानता है उनको. अच्छी सशक्त प्रधानमंत्री थीं. लेकिन, खामियाजा तो उनको भुगतना पड़ा उन्हें जो सिखों पर अत्याचार किया उसी का न? इस बात को न स्वीकार करते हुए सिखों का कत्लेआम करवाना और उसे उचित ठहराना यह कौन सी बात हुई. इसी प्रकार सोनिया जी भी जहां कहीं नफरत की आग फैलाने की गुंजाइश होती है, खुद फैलाती हैं और उनके बेटे राहुल और बेटी प्रियंका ये दोनों भी कभी बाज नहीं आते.
पालघर की घटना की इनको निंदा करनी चाहिए थी. न्यायिक जांच बैठानी चाहिए थी. अर्णव गोस्वामी के ऊपर हुए हमले की भी निंदा करनी चाहिए थी. इसके बजाय ये भाजपा पर आरोप लगा रही हैं कि नफरत की आग फैलाने की. कांग्रेस तो गांधीवादी विचारधारा को अब पूर्णतः भूल चुकी है. अब कांग्रेस मार्क्सवाद और साम्प्रदायिकता भड़काकर वोट बटोरने वालों का ही दूसरा नाम रह गयी है.
गांधीवादी विचारधारा और गांव-गरीब की चिंता करने वाला आज के दिन अगर कोई है तो वह है नरेन्द्र भाई मोदी जो गांवों की बात सोचता है. राजीव गांधी जो कहा करते थे कि रूपये का 15 पैसा ही गांवों में जा पाता है. अब तो रूपये का पूरा रूपया गांवों में जा रहा है. अब गांव के लोग जब मिलकर गांव के विकास की, गांव की संपन्न्ता की बात करेंगे तो देश समृद्ध होगा और तभी गांधी जी की आत्मा को शांति मिलेगी.
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