Sonia Gandhi के लिए Delhi election ही सबसे बड़ा चैलेंज क्यों है, जानिए...
2015 के दिल्ली चुनाव (Delhi Election 2020) में खाता नहीं खोल पायी कांग्रेस (Congress Position in Delhi) पांच साल बाद भी विधानसभा में एंट्री के लिए संघर्ष कर रही है. ऊपर से सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) के एक फरमान ने दिल्ली के नेताओं की नींद हराम कर रखी है.
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सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) के लिए कांग्रेस को खड़ा करने, विपक्ष के बीच मौजूदगी दर्ज कराने और दिल्ली की जंग में प्रासंगिक बनाये रखने जैसी चुनौतियां एक साथ खड़ी हो गयी हैं. राहुल गांधी के अध्यक्ष पद छोड़ देने के बाद फिर से कमान संभालने के साथ ही सोनिया गांधी विपक्ष को भी एकजुट करने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन 2004 जैसा जोश कहीं भी नहीं दिखायी पड़ रहा है. विपक्ष के 20 राजनीतिक दल सोनिया गांधी के बुलावे पर तो पहंच जाते हैं, लेकिन महज पांच दलों की गैर-मौजूदगी भारी पड़ जाती है.
सबसे बड़ा चैलेंज तो दिल्ली विधानसभा (Delhi Election 2020) का चुनाव देने लगा है - शीला दीक्षित की अगुवाई में कांग्रेस का जो प्रदर्शन आम चुनाव में रहा, उससे आगे बढ़ने की कौन सोचे उसे भी बरकरार रखने के लाले पड़ रहे हैं. लोक सभा चुनाव में कांग्रेस ने जिस आम आदमी पार्टी को पीछे छोड़ दिया था, वो पोजीशन (Congress Position in Delhi) भी हासिल करना फिलहाल कांग्रेस के लिए भारी पड़ रहा है.
ऐसे में सोनिया गांधी के एक फरमान ने दिल्ली कांग्रेस के नेताओं की मुश्किल बढ़ा दी है - ये फरमान है सभी वरिष्ठ नेताओं को विधानसभा चुनाव लड़ने का. कुछ नेता तो सोचने के लिए वक्त की मांग कर रहे हैं, जबकि बाकी सब बहाने की तलाश में जुट गये हैं.
जैसे लोक सभा हारे, विधानसभा भी हार जाना!
पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी का नाम भी उन नेताओं के साथ लिया जा रहा है जिनकी विधानसभा चुनाव लड़ने में कोई दिलचस्पी नहीं है. ऐसे दो प्रमुख नाम हैं अजय माकन और महाबल मिश्रा. जेपी अग्रवाल भी उम्र की ओर इशारा कर यही कह रहे हैं कि पार्टी कहेगी तो आदेश मानेंगे ही.
दरअसल, कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ने साफ तौर पर कह दिया है कि सभी दिग्गज नेताओं को चुनाव लड़ना होगा. सोनिया का ये फरमान उनके लिए भी है जो लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार रहे.
सोनिया गांधी का संदेश है - 'आपको को खड़ा होना होगा और चुनाव लड़ना होगा - क्योंकि पार्टी को आपकी जरूरत है. चाहे अगर आप हार भी जायें, वो भी पार्टी के लिए ही होगा.' सोनिया गांधी के इस निर्देश पर राजेश लिलोठिया ही ऐसे एकमात्र नेता हैं जिन्होंने आगे बढ़ कर दिलचस्पी दिखायी है. जिस मीटिंग में सोनिया गांधी ने नेताओं को ऐसा करने के लिए कहा, उसमें राजेश लिलोठिया भी शामिल बताये जाते हैं और कह चुके हैं कि वो तो नई दिल्ली सीट से अरविंद केजरीवाल के खिलाफ भी चुनाव लड़ने को तैयार हैं. वैसे कांग्रेस के अंदर नई दिल्ली सीट से शीला दीक्षित की बेटी लतिका को केजरीवाल के खिलाफ मैदान उतारने की चर्चा है. 2013 में अरविंद केजरीवाल पहली बार चुनाव लड़े और शीला दीक्षित को नई दिल्ली में ही हरा दिया था.
राजेश लिलोठिया उत्तर पश्चिम दिल्ली लोक सभा सीट से कांग्रेस उम्मीदवार थे और चुनाव हार गये. राजेश लिलोठिया के अलावा जिन नेताओं पर विधानसभा चुनाव लड़ने का दबाव है उनमें पूर्वी दिल्ली से उम्मीदवार रहे अरविंदर सिंह लवली और दक्षिण दिल्ली से चुनाव लड़ चुके मुक्केबाज विजेंदर सिंह भी शुमार हैं. जेपी अग्रवाल 75 साल के हो चुके हैं और अजय माकन ने खराब सेहत के चलते ही दिल्ली कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़ दिया था.
सोनिया गांधी का आदेश आने के दो दिन बाद ही अजय माकन निजी यात्रा पर अमेरिका रवाना हो गये. मालूम हुआ है कि अजय माकन ने सोनिया गांधी को फौरी संदेश भेज कर अपनी मजबूरी बता दी है - 6 महीने से लोगों से दूर होने के बाद चुनाव लड़ने का फैसला कैसे कर सकते हैं. वैसे फाइनल संदेश के लिए माकन ने वक्त मांगा है.
सोनिया गांधी के चुनाव लड़ने वाले फरमान की चपेट में सबसे ज्यादा महाबल मिश्र आ रहे हैं. दिल्ली में कांग्रेस का पूर्वांचली चेहरा महाबल मिश्र 2019 के लोक सभा चुनाव में पश्चिमी दिल्ली से उम्मीदवार थे. महाबल मिश्र की मुश्किल बाकियों से अलग है. वैसे भी महाबल मिश्र कांग्रेस नेतृत्व से नाराज बताये जाते हैं.
महाबल मिश्र के बेटे विनय मिश्र अब आम आदमी पार्टी का टिकट पा चुके हैं. विनय मिश्र को 2013 में कांग्रेस ने विधानसभा का टिकट दिया था, लेकिन लगता है इस बार बात नहीं बनी इसलिए AAP ज्वाइन किये और उसके 24 घंटे के भीतर ही उनका नाम उम्मीदवारों की सूची में शामिल हो चुका था.
अगर महाबल मिश्र को सोनिया गांधी विधानसभा के चुनाव में उतारना चाहती हैं तो अब ज्यादा संभावना है कि बेटे के खिलाफ ही लड़ने को बोला जाएगा. भला महाबल मिश्र ऐसा क्यों करेंगे? एक डूबती पार्टी के लिए अपने बेटे का भविष्य भला कौन पिता करना चाहेगा?
दिल्ली में कांग्रेस क्यों नहीं खड़ा हो पायी?
दिल्ली में कांग्रेस का हाल सभी राज्यों से बुरा है. 15 साल सरकार चलाने के बाद 2013 में कांग्रेस 8 सीटें जीत सकी. जब 2015 में चुनाव हुए तो खाता भी नहीं खोल पायी - और 2020 में भी विधानसभा में एंट्री के लिए संघर्ष ही करना पड़ रहा है.
दिल्ली की सत्ता में वापसी तो फिलहाल भूल ही जाना बेहतर होगा, लेकिन सत्ताधारी आम आदमी पार्टी को कांग्रेस चैलेंज करने की स्थिति में भी क्यों नहीं नजर आ रही है? हैरानी की बात तो ये है कि लोक सभा में आप से बेहतर प्रदर्शन करने वाली कांग्रेस के लिए ऐसा लग रहा है जैसे अस्तित्व के लिए जूझना पड़ रहा हो.
दिल्ली और हरियाणा का राजनीतिक नक्शा अलग होने के बाद दोनों राज्यों में बहुत कुछ कॉमन भी है. फिर भी एक बात नहीं समझ आती कि हरियाणा में मिले सबक के बावजूद कांग्रेस की दिल्ली में नींद क्यों नहीं खुल पायी है?
दिल्ली की लड़ाई को लेकर सोनिया गांधी जितनी फ्रिक राहुल-प्रियंका गांधी को क्यों नहीं?
हरियाणा में जिस तरह से भूपिंदर सिंह हुड्डा ने बीजेपी के खिलाफ चुनावी जंग लड़ी, समझा यही गया कि अगर हुड्डा को कांग्रेस की कमान थोड़े दिन पहले मिल गयी होती तो नतीजे अलग हो सकते थे. हुड्डा कांग्रेस को जीत दिलाने में भले भी फेल रहे, लेकिन बीजेपी बहुमत तो नहीं ही हासिल कर सकी थी. लोक सभा चुनाव में शीला दीक्षित की अगुवाई में कांग्रेस का प्रदर्शन वैसा भले न रहा हो, लेकिन तासीर तो बिलकुल वैसी ही देखी गयी. मोदी लहर में बीजेपी से जूझते हुए कांग्रेस ने सत्ताधारी आप को पछाड़ दिया था, जिसे शीला दीक्षित ने तो पहले ही भांप लिया था लेकिन दिल्ली कांग्रेस प्रभारी पीसी चाको को भनक तक न लगी.
दिल्ली में शीला दीक्षित ने ये तो साबित कर ही दिया कि नेतृत्व से कितना फर्क पड़ता है. अजय माकन के बहुत पहले हथियार डाल देने के बाद भी उनका इस्तीफा तब मंजूर किया गया जब शीला दीक्षित मैदान में उतरने को तैयार हो गयीं.
दरअसल, कांग्रेस को दिल्ली में बने रहने के लिए इन्हीं बातों में जवाब खोजना होगा. शीला दीक्षित के बाद कांग्रेस नेतृत्व को फिर से सुभाष चोपड़ा भी भरोसेमंद लगे. हो सकता है ये भरोसा दिल्ली प्रभारी पीसी चाको के चलते हुआ हो. कहने को तो सुभाष चोपड़ा कुछ साथियों के साथ केजरीवाल सरकार के रिपोर्ट कार्ड का पोस्टमॉर्टम भी कर रहे हैं, लेकिन उसका असर तो कहीं हो नहीं रहा.
जब बीजेपी को दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के खिलाफ कोई चेहरा नहीं मिल रहा, तो कांग्रेस नेतृत्व को कैसे लगा कि सुभाष चोपड़ा सब कुछ कर लेंगे. बीजेपी ने मनोज तिवारी जैसे लोकप्रिय चेहरे को दिल्ली की कमान सौंप रखी है, लेकिन केजरीवाल के मुकाबले मुख्यमंत्री का चेहरा पेश करने की हिम्मत कहां जुटा पायी है?
अच्छा तो ये होता कि कांग्रेस नयी पीढ़ी से किसी नेता को केजरीवाल को चैलेंज करने के लिए तैयार करती. दिल्ली कांग्रेस की अगुवाई करने वाली मौजूदा जमात से तो अच्छा प्रदर्शन रागिनी नायक और शर्मिष्ठा मुखर्जी जैसे नेता कर सकते थे - आखिर टीवी बहसों में कांग्रेस की तरफ से सब कुछ निगेटिव होने के बावजूद डिफेंड तो वे ही करते हैं.
राहुल-प्रियंका की दिलचस्पी क्यों नहीं?
कहने को तो दिल्ली चुनाव के लिए 40 स्टार प्रचारकों की सूची को अंतिम रूप दिया जा रहा है, लेकिन ऐसी सूची तो महाराष्ट्र और हरियाणा चुनाव के वक्त भी तैयार की गयी थी. झारखंड में राहुल गांधी ने जो विवाद किया वो कई दिनों तक संसद के अंदर और उसके बाहर भी गूंजता रहा. बाद में प्रियंका गांधी ने मोर्चा जरूर संभाला था. सुना है कि कांग्रेस की चुनावी रणनीति में इस बार दिल्ली में रोड शो पर ज्यादा जोर दिया जाने वाला है.
राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद की कुर्सी छोड़ने के बाद सोनिया गांधी को हरियाणा पर फैसला लेना था. सोनिया का फैसला दुरूस्त तो साबित हुआ लेकिन बहुत देर से लिया गया और उसकी कीमत भी चुकानी पड़ी. महाराष्ट्र में बीजेपी और शिवसेना का गठबंधन टूट जाने के बाद महाविकास अघाड़ी में कांग्रेस के अंतरिम अध्यक्ष के सामने पार्टी को शामिल करने या न करने को लेकर फैसला लेना था. महाराष्ट्र के कांग्रेस नेताओं और विधायकों ने इतना दबाव बनाया कि पार्टी को टूटने से बचाने के लिए नये गठबंधन की सरकार में शामिल होने को मंजूरी देनी पड़ी. झारखंड चुनाव में भी कांग्रेस ने शुरू में ज्यादा सीटों के लिए अड़ियल रवैया दिखाया था, लेकिन हेमंत सोरेन ने समझा लिया और नतीजा सामने है.
कांग्रेस नेतृत्व और दिल्ली के नेताओं का जो हाल दिखायी दे रहा है, राह बड़ी ही मुश्किल लग रही है. जबकि दिल्ली में चुनावी तैयारी से लेकर प्रचार तक सब कुछ आसान है क्योंकि रहते तो सब लोग दिल्ली में ही हैं.
कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने आम चुनाव में दिल्ली में रोड शो किया था. रोड शो के दौरान प्रियंका गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर खूब हमले किये और खुद को दिल्ली की लड़की कह कर पेश किया था. आखिर दिल्ली की वो लड़की अब दिलचस्पी क्यों नहीं ले रही है? अभी तक ऐसा कुछ सामने तो नहीं ही आया है. सिर्फ प्रियंका गांधी ही क्यों, राहुल गांधी की तरफ से भी अब तक कोई दिलचस्पी क्यों नहीं नजर आयी है?
जहां तक सोनिया गांधी के लोक सभा चुनाव हार चुके उम्मीदवारों को विधानसभा चुनाव में उतारने के विचार का सवाल है, तो आम आदमी पार्टी ने भी ऐसा ही किया है - आतिशी मार्लेना, राघव चड्ढा और दिलीप पांडे को टिकट देकर अरविंद केजरीवाल ने ये नुस्खा पेश कर दिया है. दिल्ली बीजेपी अध्यक्ष मनोज तिवारी भी कुछ ऐसा ही संकेत दे चुके हैं, जबकि बीजेपी के सारे उम्मीदवार चुनाव जीत कर लोक सभा पहुंच चुके हैं. क्या कांग्रेस नेतृत्व के मन में भी ये विचार आने की यही वजह रही होगी?
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