Delhi Riots 2020 और 1984 Anti-Sikh riots में जितनी समानता, उतना ही गहरा फर्क
दिल्ली दंगों (Delhi Riots)की सुनवाई में दिल्ली हाई कोर्ट (Delhi High Court) ने उसकी तुलना 1984 से की. सीएए के विरोध (Anti CAA Protest) में जिस तरह की हिंसा (Delhi Violence) हुई उसकी तुलना 1984 के दंगों (1984 Sikh Riots ) से इसलिए भी नहीं की जा सकती क्योंकि आज के दंगे कहीं ज्यादा खौफनाक हैं.
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देश की राजधानी में सोमवार से जो हिंसक घटनाएं (Delhi Violence) हुईं, उनमें जान-माल के नुकसान या हिंसा के तौर-तरीके ही नहीं देखिए. इसकी टाइमिंग, माहौल और मानसिकता पर भी गौर कीजिए जिसकी वजह से ये उन्मादी और व्यापक हिंसा देखने को मिली जिन्होंने बाद में दंगे (Riots) का रूप लिया. दिल्ली की ताजा हिंसा की तुलना 1984 (1984 Sikh Riots) से करने की कोशिश की जा रही है. लेकिन उत्तर पूर्व दिल्ली की सड़कों पर जो हुआ वो कहीं ज्यादा नुकसान वाली टेस्ट रिपोर्ट है. आइए जानते हैं कैसे?
1984 में नहीं हुआ था रीगन का दौरा
मैं इस सवाल से शुरुआत करता हूं कि क्या 1984 में जो हुआ वो होता अगर अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन भारत के दौरे पर आए होते? जवाब है कि ऐसा शायद ही होता. लेकिन फरवरी 2020 में दिल्ली की हिंसा अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की दिल्ली में मौजूदगी के दौरान हुई.
चाहे 2020 के दिल्ली के दंगे रहे हों या फिर 84 के दोनों में ही लोगों ने अपनों को खोया है
1984 में पहले से नहीं था कोई अंदेशा
क्या 1984 में जो हुआ वो दंगा था, जिसमें दो पक्ष आमने-सामने लड़ रहे थे? नहीं ऐसा नहीं था, वो नरसंहार था. तब सिखों और उनकी संपत्तियों को जब जलाया जा रहा था तब दिल्ली और अन्य शहरों में पुलिस ने आंखें फेर रखी थीं.1984 में किसी सज्जन कुमार की ओर से पहले से ही सिखों के सामने आकर चुनौती नहीं दी गई थी कि वो राजधानी छोड़ दें. तब रातोंरात मिट्टी के तेल, पेट्रोल, रॉड और डंडों के साथ ट्रक भर कर उपद्रवी दिल्ली में उतरे थे.
वहीं 2020 में हिंसा भड़कने से पहले कपिल मिश्रा पुलिस के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होकर खुली धमकी देता है.
1984 में ऐसा नहीं था इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, न ही सोशल मीडिया था
जब 1984 हुआ था तब सिर्फ एक पुलिस स्टेशन था- सरकार संचालित दूरदर्शन. उस वक्त इक्का-दुक्का प्रकाशनों को छोड़कर तीन दिन तक चले नरसंहार की अन्य अखबारों ने रिपोर्टिंग नहीं की थी. इस हफ्ते दिल्ली में जो हुआ, उसे अनगिनत टीवी स्टेशनों, फेसबुक,ट्विटर, वाट्सअप फीड्स और ट्रम्प के दौरे की वजह से इंटरनेशनल मीडिया ने कवर किया.
2020 में सोशल मीडिया पर सर्कुलेट हो रहे वीडियो में पुलिस को भीड़ को कवर करते और लीड करते देखा गया. देश की राजधानी की पुलिस को अच्छी तरह पता था कि वो कैमरों में कैद हो सकते हैं. इसके बावजूद उन्होंने ये सब किया, ये अधिक फिक्र वाला है. अगर दिल्ली पुलिस से अपेक्षा की जाए कि वो इन वीडियो को प्रमाणित करेगी तो ये मासूमियत के अलावा और कुछ नही होगा.
तत्काल कोई चुनाव नहीं
1984 की जघन्य घटनाएं लोकसभा चुनाव से पहले हुई थीं. उत्तर पूर्व दिल्ली में इस हफ्ते जो हुआ उसका चुनावी राजनीति से कोई जुड़ाव नहीं है. फिलहाल कोई चुनाव सिर पर नहीं है. ऐसे में इस हिंसा का मकसद तत्काल सत्ता हासिल करने जैसा नहीं है. इस हिंसक तबाही ने उस धारणा को तोड़ा है कि भारत में साम्प्रदायिक हिंसा वोट की राजनीति से जुड़ी होती है.
इस हफ्ते दिल्ली में जो कुछ हुआ उसने मायने ही बदल दिए हैं. चुनाव हों या ना हों, जन समर्थन हो या ना हो, इस बर्बरता को कहीं भी इच्छा के मुताबिक अंजाम दिया जा सकता है. प्रभावित क्षेत्र के लोकप्रिय निर्वाचित प्रमुख सिर्फ दयनीय दर्शक बन कर रह गए जो जुबानी खर्च के नाम पर गांधीगिरी की दुहाई दे रहे हैं.
1984 में नहीं लगे थे पुलिस ज़िंदाबाद के नारे
1984 में ‘पुलिस ज़िंदाबाद’ के नारे कभी नहीं लगे थे. दिल्ली में छोटी हो या बड़ी, इस तरह की हिंसक घटनाओं में ये नई बात देखी जा रही है.
कोई पूर्ण विराम नहीं
दिल्ली में इस हफ्ते जो रक्तपात हुआ उसका संदेश ख़ौफ़नाक है- भारत में उभर रहे नागरिक संकट पर फिलहाल कोई भी पूर्ण विराम लगाता नजर नहीं आ रहा. चाहे वो अंतर्राष्ट्रीय दबाव हो, विश्व शक्तियां हों, लोकतंत्र के संस्थान हों या फिर चुनावी राजनीति के दबाव हों.
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