औरंगजेब की मंशा के मुताबिक 'देवबंद' ने आकार लिया था, मदनी साब तो शुक्राना अदा करेंगे ही!
पिछले दो साल से बात-बात पर जिस तरह से इस्लाम के नाम पर आम नागरिकों को धमकियां दी जा रही हैं उसे देखते हुए लग रहा है कि सरकार से कुछ होने वाला नहीं है. विपक्ष को एकजुट होकर कोशिश करना चाहिए कि वह मदनी के सपनों का भारत बनाने के लिए शरीया के तहत संविधान के संशोधन का प्रस्ताव लेकर आए. डरा हुआ देश शांति चाहता है और वह विपक्ष के साथ रहेगा.
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अविभाजित भारत में करीब-करीब हजार साल लंबी गुलामी की सबसे बर्बर-आततायी और वीभत्स पैदाइश 'औरंगजेब' था. अभी केरल में पीएफआई की सार्वजनिक रैली से आए वीडियों में एक आठ साल का मासूम जिस तरह हिंदुओं और ईसाइयों को सबक सिखाने की नारेबाजी करता दिखा- उसके नारे, तलवार और कलाश्निकोव से ज्यादा खतरनाक थे. वह ऐसा फिदायीन नजर आया जिसे चाहकर भी आंखों से ओझल कर पाना मुश्किल हो रहा है. उसी की उम्र के दूसरी धार्मिक जातीय समूह के शहरी बच्चों को देखकर सहम जाता हूं- बहुत स्वाभाविक है यह.
डर तब और बढ़ जाता है जब देवबंद की जमीयत में मौलाना महमूद मदनी देश के सभी नागरिकों को साफ़-साफ़ चेतावनी दे देते हैं कि क़ानून संविधान की ऐसी की तैसी, "हम सिर्फ शरीया के साथ चलेंगे, तुम्हें जो करना है कर लो. हम इस मुल्क के शहरी हैं. यह हमारा है. अच्छी तरह समझ लीजिए... यह हमारा मुल्क है. अगर तुमको हमारा मजहब पसंद नहीं है तो कहीं और चले जाओ." कल भावुक नजर आ रहे मदनी के आज वाले बयान से लिबरल जमात और खाए-पीए-अघाए राजनीतिजीवी बुद्धिजीवी समाज को भी सचेत होना चाहिए. यह करीब-करीब उनके फाइनल अलर्ट की तरह दिख रहा है.
देवबंद के रास्ते जो फसल लहलहाते दिख रही है- इसकी खेतों में किसी और ने नहीं हमीं लोगों ने खादपानी मुहैया कराए हैं. उसे उगने का मौका दिया है. यह हमारे उन्हीं प्रयासों की फसल है जिसमें हम औरंगजेब को हीरो साबित करते आए हैं. जिस देश में सिख साम्राज्य के सबसे महान खालसा क्षत्रपों में से एक महाराज रणजीत सिंह के समूचे गौरव पर एक मुसलमान लड़की की प्रेम कहानी का इतिहास भारी पड़ जाए, महाराजा दिलीप सिंह को लगभग अभारतीय बताकर कोने में फेक दिया जाए, वहां तो यह होना ही था. महाया-पीया-अघाया समाज अब यह मानने लगा है कि यूरोप की औद्योगिक क्रांति असल में यहीं हुई थी और उसके पूर्वज अंग्रेज, डच और पुर्तगालियों के साथ उनके अफसर कर्मचारी बनकर आए थे. अच्छा है कि उसने अपनी जड़े सीरिया और अरब में नहीं तलाशी. सीरिया के साथ तो भारत की रिश्तेदारी चंद्रगुप्त मौर्य के जमाने से है.
मौलाना महमूद मदनी.
जब हरिसिंह नलवा के के बारे में नहीं पढ़ाया फिर हीरो तो औरंगजेब ही बनेगा ना
हैरान और अफ़सोस इसलिए नहीं करना चाहिए कि जब लगभग समूची पीढ़ी औरंगजेब तो नहीं पर हरि सिंह नलवा के काम से अंजान है- फिर भला उसे देवबंद की धमकियों और तैयारियों से क्या ही फर्क पड़ने वाला है. लग तो यही रहा है जैसे भारत की किस्मत अब संविधान नहीं बल्कि देवबंदी शरीया से ही लिखा जाएगा जिसके खूनी इरादों ने अफगानिस्तान और लगभग पाकिस्तान को बर्बाद कर दिया. जिसकी मिलिशिया ने 1947 में कश्मीर पर हमला किया और बर्बादी के निशान हजारों कश्मीरी औरतों के जिस्म पर छोड़ गए. देवबंद पर हमारी नजर नहीं पड़ी तो इसमें जो बाईडन, ब्लादिमीर पुतिन या सही जिनपिंग का कोई दोष नहीं है. दोष हमारा है.
वैसे यह सबसे अच्छा समय है देवबंद पर बात करने का और इतिहास की गलतियों को समय रहते पहचान लेने का. अपने आसपास औरंगजेब के अनुयायियों को देखकर जो हैरानी हो रही है वह गलतफहमी भी दूर हो जाएगी. औरंगजेब के शाही मौलवी के घातक विचारों से प्रेरित मदरसों से पढ़ा-लिखा नौजवान तो मुगलों को भारत का शिल्पकार समझेगा ही. भला उसके लिए भगत सिंह और चंद्रशेखर की क्या अहमियत होगी? उसे तो औरंगजेब और मोहम्मद अली जिन्ना में ही हीरो नजर आएगा. गंगा जमुनी तहजीब में डुबकी लगाने वालों का विचार भी बदल सकते हैं- लेकिन जब इतिहास की वजह से यह जमात लाखों करोड़ों में होगी तो भला उसे दुरुस्त किया भी कैसे जा सकता है? मुझे नहीं मालूम.
असल में देवबंद यानी दारूल उलूम देवबंद इस्लामी स्कूली व्यवस्था है. एक ऐसा स्कूल जिसमें देशभर से मुस्लिम छात्र पढ़ाई करने आते हैं. उनका मकसद मुख्य रूप से दीनी तालीम हासिल करना है. पर्सनल लॉ अलग अलग, लेकिन इस्लाम एक. खानपान एक. भाषा एक ( हालांकि अभी उन्होंने बहुभाषा का विकल्प चुना है). दीनी तालीम के अलावा मदरसा इधर उधर की शिक्षाओं को भी देने का दावा करता है. इन शिक्षाओं की वजह से आप आधुनिक मदरसा भी कह सकते हैं. यूपी में मौजूद देवबंद और दारूल उलूम को देखने एक बार जरूर जाना चाहिए. क्योंकि संस्कृति पढ़ने की तुलना में देखने की चीज ज्यादा है.
देवबंद जाकर पता चलता है फर्क
देवबंद पहुंचकर साफ़ पता चलता है कि देवबंद और दारूल उलूम में कितना बड़ा अंतर है. शहर तो 21वीं शताब्दी का नजर आता है लेकिन दारूल उलूम 20वीं या उससे पहले की शताब्दियों में फंसा खड़ा है. ये बड़ा सांस्कृतिक फर्क है. कई बार तो ऐसा भी लगता है जैसे आप किसी दूसरे मुल्क में ही पहुंच गए हों. ब्रिटिश इंडिया में मुहम्मद क़ासिम नानौतवी और राशिद अहमद गानगोही के नेतृत्व में दारूल उलूम की स्थापना का मकसद ख़ास है. इसे 1866 में बनाया गया था. अंग्रेजों के खिलाफ पहले संगठित गदर के लगभग 100 साल बाद. भारत में इससे बड़ा संगठित विद्रोह कभी नहीं दिखा है.
औरंगजेब
और जब दारुल उलूम का इतिहास देखते हैं तो उसके पीछे कहीं ना कहीं 1857 के ग़दर में मिले सबक के बाद सच्चा मुसलमान यानी धार्मिक योद्धाओं के जरिए दिल्ली सल्तनत के पुराने दौर खासकर औरंगजेब का कनेक्शन भी नजर आता है. हालांकि 1857 का गदर स्वतंत्रता संग्राम जरूर था और भारतीय विद्रोहियों (हिंदू-मुस्लिम सभी) ने निष्क्रिय मुग़ल बादशाह बहादुरशाह जफ़र को अपना नेता भी घोषित कर दिया था. लेकिन यह एक अर्थ में यह फिर से मुगलिया सल्तनत बनाने की कोशिशें भी नजर आती हैं. क्योंकि इसमें बहुत से मौलाना भी शामिल थे. और उनकी आमद स्वतंत्रता सेनानी की बजाए इस्लामिक योद्धा यानी एक जेहादी के रूप में ही हुई थी. याद रखिए- लोग दावा भी करते हैं कि भारत जब आजाद हुआ तो जेलों में बंद कुछ चोर भी स्वतंत्रता सेनानी का सर्टिफिकेट लेकर निकले थे. हालांकि मैं ऐसा नहीं मानता.
बहुत खतरनाक विचार से हुई थी देवबंद की स्थापना, इसी ने अफगानिस्तान को बनाया खंडहर
खैर जो भी हो लेकिन लंबे वक्त बाद 1857 की गदर ने मुगलिया सल्तनत का सपना देखने वालों को बड़ा मकसद दिया. हकीकत में इसी सपने को व्यवस्थित और संगठित रूप से मदरसे के रूप में चलाने का फैसला लिया गया. यहां अंग्रेजों का न्ज्यादा ध्यान था तो गंगा जमुनी तहजीब पर काम हुआ. लेकिन पाकिस्तान और अफगानिस्तान के दुर्गम मुस्लिम बहुल इलाकों में दारूल उलूम की शिक्षाएं तेजी से असर दिखा रही थीं. अफगानिस्तान में तो बहुत तगड़ा असर था. वह तब से लेकर आज तक उस असर से उबर ही नहीं पाया है. अंग्रेजों को अफगानिस्तान में इसी मदरसे से पढ़कर निकले छात्रों से खूब जूझना पड़ा. ब्रिटिश साम्राज्य का इतिहास देखेंगे तो पता चलेगा कि उन्होंने किस तरह देशभर में सैकड़ों मदरसों को बंद कर अपनी सत्ताएं चलाई. यह इन्हीं मदरसों का तगड़ा धार्मिक नेटवर्क था कि 1925 में ख़त्म हुए खिलाफत आंदोलन ने ऐसी पृष्ठभूमि तैयार कर दी जिसमें- देश का विभाजन पुख्ता हो गया. यह होने में सिर्फ 25 साल लगे थे. मौजूदा घटनाओं में और तिल-तिलकर भारत की आजादी में खिलाफत का क्या योगदान है, यहां क्लिक कर पढ़ सकते हैं.
देवबंद का दारुल उलूम मदरसा इस्लाम के सुन्नी विचारों का केंद्र है. भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में सुन्नी इस्लाम की हनफ़ी विचार को मानने वाले बड़ी संख्या में हैं. इन्हें देवबंदी कहते हैं. पाकिस्तान का तालिबान इस्लाम के इसी विचार से निकला है. यह विचार उसी औरंगजेब के शाही मौलवी के बेटे मौलवी शाह वलीउल्लाह की प्रेरणा से निकला था जिसके आदेश पर मुगलों ने गैरमुस्लिमों पर बेइंतहा जुल्म सितम किए.
देवबंद का समूचा इतिहास विस्तार से जानने के लिए यहां क्लिक कर सकते हैं.
लेकिन चिंता की बात यह नहीं कि महमूद मदनी जमीयत में क्या कह रहे हैं, देशभर के 25 राज्यों से सुनने आए देवबंदी प्रतिनिधि वापस जाकर क्या करेंगे? ज्यादा चिंता की बात तो यह है कि महमूद मदनी देश विरोधी ताकतों को अराजकता फैलाने की अनुमति देते दिख रहे हैं. बहुसंख्यक आबादी को सरेआम धमका रहे हैं और देश की संप्रभुता को खुलेआम चुनौती दे रहे हैं. उनके एक-एक बयान संविधान और क़ानून की धज्जियां उड़ा रहे हैं. बावजूद भाजपा की सरकारें और समूचा विपक्ष मुंह पर ताले जड़ा अपनी बिल में छुपा पड़ा है. एक जगह नहीं कई शहरों में जगह-जगह धार्मिक सभाएं हो रही हैं. आर्म्ड होने तक की अपीलें की जा रही हैं लगातार. केरल-पश्चिम बंगाल समेत सड़कों पर जो दिख रहा है लगातार पिछले कई महीनों से- उसकी भयावहता डराने वाली है. प्रेस कॉन्फ्रेस में सीधे धर्म विशेष के हत्याओं की धमकी दी जा रही है- स्वाभाविक है कि देश का आम नागरिक डरा हुआ है. बावजूद कहीं कोई प्रशासनिक हलचल नहीं दिख रही है.
विपक्ष शरीया के हिसाब से संविधान संशोधन का प्रस्ताव रखे
परेशानी की बात यह है कि शरजील इमाम चिकन नेक काटकर नॉर्थ ईस्ट को भारत से अलग करने की धमकी देने से मदनी के धमकी तक सरकारों ने क्या किया? पाकिस्तान में जिस तरह के राजनीतिक हालात हैं, वह छिपे नहीं हैं. शुक्रवार को वहां का प्रधानमंत्री अपने देश को दिवालिया होने से बचाने के लिए आख़िरी कोशिश करता दिखता है और शनिवार को मदनी जैसों के अंदर का मुसलमान बिलबिलाने लगता है? कब तक पाकिस्तान के निर्माण को जायज ठहराने की कीमत भारत चुकाएगा. वह भारत जो अरबी चंदे पर पल रहे भाड़े के टट्टुओं से लगातार लहूलुहान हो रहा है.
कहीं मदनी को ऐसा तो नहीं लग रहा है कि मुगलों के बाद अंग्रेज आए और अंग्रेजों के जाने के बाद उत्तराधिकार का उनका ही हक़ है. और हक़ जताने का यही समय है ताकि भारत को एक झटके में बर्बाद जरने के लिए भट्ठी में झोंक दिया जाए. अब मदनी ने अपनी शर्तें बता दी है कि उनके 10 लोग जैसा चाहेंगे वैसे ही दूसरे 90 लोगों को रहना होगा. उनका जैसा मन करेगा वैसे रहेंगे. जिस क़ानून से चाहेंगे उसी के आधार पर रहेंगे. वे संविधान का कोई क़ानून मानने को तैयार नहीं जिससे उनका इस्लाम प्रभावित होता है. दिक्कत भारत की है कि वह क्या करेगा? संविधान में ऐसे कानूनों की बहुत कमी है जो इस्लाम के आधार पर चल जाए. इस्लामिक क़ानून कई सौ साल पहले के हैं और भारत का संविधान तो अभी कुछ ही दशक पहले लागू हुआ था. अच्छा होगा भारतीय विपक्ष के नेता भाजपा सरकार पर दबाव डालें कि वह शरीया के हिसाब से संविधान का जरूरी संशोधन करवा दे. कम से कम इसी बहाने शांति से तो रहना मिले. रोज रोज की चीजों से सिरदर्द होने लगा है.
पता नहीं क्या हो रहा है? खिलाफत के दौरान भी इसी तरह जिद हुई थी. एक पाकिस्तान भी बन गया बावजूद भारत की समस्याएं ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही हैं.
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