हिंदू-मुस्लिम एकता की फरेबी कहानियों में से एक है खिलाफत आंदोलन का किस्सा!
खिलाफत आंदोलन को लेकर महात्मा गांधी के दृष्टिकोण को सही ठहराने के लिए जरूरी नहीं है कि हम उस आंदोलन के कट्टरपंथी इस्लामिक उद्देश्यों, विभाजनकारी नजरिये से मुंह चुरा लें, जो कि दुनिया में और ज्यादा गहरे और आक्रामक होते गए. आज हमारे वर्तमान और भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लगा रहे.
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मुझे आपको खिलाफत आंदोलन के बारे में बताने की जरूरत इसलिए पड़ रही है कि कुछ धर्मांध लोग 100 साल पुरानी चीजों को फिर उसी तरह दोहराने की कोशिशों में हैं. पहले पीएफआई के पूरे आंदोलन और खुली आंखों दिख रही उनकी तैयारियों को देख लीजिए. वो कोशिश आपको दिखे ना या देखकर भी आप चुप ही रहें- उसके लिए नाना प्रकार के शोर गढ़ें जा रहे हैं. सबकुछ वैसे ही हो रहा है. एक्शन रीप्ले. खिलाफत पसंद करने वाले अपनी बुद्धि और संसाधन में सालों से खूब प्रयास करते दिखेंगे. यकीन ना हो तो यूट्यूब पर खिलाफत सर्च करिए और बड़े-बड़े धार्मिक स्कॉलर्स के सुविचार और भविष्य की उनकी योजनाओं को भांपिए. सैकड़ों वीडियो मिलेंगे और उन्हें देखने वालों की संख्या का अनुमान उन वीडियोज पर मिले- व्यूज, कमेंट, लाइक्स से भी लगा सकते हैं. बुद्ध समेत सभी भारतीय दर्शनों ने कहा- प्रत्यक्ष को प्रमाण की जरूरत नहीं है? चार्वाक अपने आप में इतना क्रांतिकारी है कि प्रत्यक्ष के अलावा बाकी सब चीजों को फर्जी बताते हैं.
तो चलिए आज भारत करते हैं भारत के भविष्य पर खिलाफत के रास्ते से होकर.
खिलाफत आंदोलन की वजह तुर्की में हुई घटनाएं हैं जहां अभी कुछ ही दिन पहले भारतीय बॉक्सर निकहत जरीन विश्व चैम्पियन बनीं. उनका मैच इस्तांबुल में हुआ था. खिलाड़ी अपना धार्मिक पहचान जाहिर करने से बचते हैं मगर निकहत ने "द प्रिंट" से कहा कि वे "बहुत धार्मिक" हैं. सचिन-द्रविड़-पेस या अजहरुद्दीन ऐसा बोलते से बचते रहे. मैंने तो नहीं सुना. सहवाग जैसे कुछेक क्रिकेटर ने जरूर धार्मिक पहचान दिखाई, मगर सक्रिय किकेटर रहते हुए या उसके बाद यह भी मुझे साफ-साफ याद नहीं. इस ओर ध्यान ही नहीं गया कभी.
महात्मा गांधी जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल.
ये वही तुर्की है जहां बॉलीवुड के सबसे उम्दा अभिनेताओं में शुमार आमिर खान वहां की फर्स्ट लेडी से 'वन टू वन' मीटिंग करते देखे गए थे. आमिर खान जल्द ही लाल सिंह चड्ढा में भारत का भविष्य दिखाते नजर आएंगे. भारत को अपने इस अभिनेता पर गर्व करना चाहिए.
खैर, करीब 100 साल पहले तुर्की में महान ऑटोमन का साम्राज्य था. उस समय एक खलीफा होता था.
खलीफा का मतलब ऐसे भी समझिए कि इस्लामिक जगत का सबसे बड़ा नेता जिसके अधीन सभी तरह के धार्मिक फैसले लिए जाते हैं. धर्म क्या- कई अनपढ़ भारतीय कपड़े उतारकर खाने को भी धर्म बता देते हैं. मूर्ख अनपढ़. आप इस्लामिक फैसले कहिए. और उस दौर में वह कोई भी फैसला लेता है- जो भी व्यक्ति है वह मुसलमान होने के नाते उसका पालन करेगा. कोई सवाल ही नहीं. खलीफा मतलब मुस्लिम शरिया व्यवस्था में सर्वशक्तिमान और अंतिम नेता. ना उससे पहले कोई और ना ही उसके बाद.
इस्लाम के खिलाफ युद्ध मानकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ना नहीं चाहते थे मुसलमान
हुआ ये कि जब पहला विश्व युद्ध शुरू हुआ 1914 में उस वक्त तुर्की की सेना मित्र राष्ट्रों के खिलाफ थी. मित्र राष्ट्र ब्रिटेन और उसके सहयोगी देशों को कहा जाता है. तुर्की मित्र राष्ट्र के विरोध में था. यानी ब्रिटेन के खिलाफ मगर जर्मनी और ऑस्ट्रिया के साथ. विश्वयुद्ध 1918 तक चला. इस युद्ध में भारतीय सैनिक भी बड़े पैमाने पर अंग्रेजों के साथ लड़ने गए. दुनिया के ना जाने कितने मोर्चों पर. युद्ध में मर खप गए ना जाने कितने सैनिकों की लाश तक भारत नहीं आई थी और सैनिकों में हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई सब थे. हालांकि मुसलमानों में विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले भारी कसमसाहट थी. चूंकि ब्रिटेन की जंग तुर्की के खिलाफ थी, तुर्की में खलीफा था. ऑटोमन साम्राज्य का खलीफा- भारतीय मुसलामनों के एक धड़े को लगा कि वह खलीफा यानी इस्लाम के खिलाफ युद्ध कैसे कर सकता है? इसी बात का भारत में विरोध हो रहा था. विश्वयुद्ध जीतने के लिए ब्रिटेन को बड़े पैमाने पर सैनिकों की जरूरत थी और वह भारत ही पूरी कर सकता था उस वक्त.
मुसलमानों के विरोध के बाद अंग्रेजों ने बातचीत की. बातचीत में मुस्लिम नेताओं ने बीच का रास्ता यह निकाला कि ब्रिटिश साम्राज्य की दुश्मनी तुर्की के ऑटोमन साम्रज्य से हो सकती है मगर उसमें खलीफा का क्या दोष. अगर ब्रिटिश हुकूमत खलीफा के पद को सुरक्षित रखने और इस्लामिक नियमों पर पाबंदी नहीं लगाने का आश्वासन दे तो भारतीय मुसलमान पहले विश्वयुद्ध में शामिल होंगे. अंग्रेजों ने वादा मान लिया. जीत के बाद ना तुर्की में खलीफा और ना ही वहां के इस्लामिक ढाँचे पर किसी तरह का नुकसान पहुंचाया जाएगा.
महात्मा गांधी
यूरोप की सुरक्षा के लिए अंग्रेज अपना काम करने के बाद मुकर गए
विश्वयुद्ध 11 नवंबर 1918 को ख़त्म हुआ. मगर ब्रिटिश हुकूमत अपने वादे से पलट गई. जीत के बाद तुर्की को कई शर्तें मानने को विवश कर दिया गया. कुछ भारतीय और पाकिस्तानी मुस्लिम स्कॉलर बताते हैं कि ब्रिटिश शर्तों में यह भी था कि तुर्की अपनी सेना भी नहीं रख सकता. हालांकि उसने इस शर्त का उल्लंघन किया. जर्मनी और जापान को भी यही बात मानने को मजबूर किया गया था तब. खाड़ी में कुछ स्वतंत्र देश अस्तित्व में आए. आगे जाकर कुछ का पुनर्गठन भी हुआ. इस्लामिक दुनिया में खलीफा की वजह से तुर्की का जो वर्चस्व था वह लगभग ख़त्म हो गया. ब्रिटेन ने एक और काम किया. उसने तुर्की को कमजोर करने के लिए विभाजित भी कर दिया. क्योंकि तुर्की तब शायद इस्लामिक वजहों से भी- यूरोप पर एक बड़े संकट के रूप में दिखने लगा था.
तुर्की से मुक्त होने वाले मुस्लिम देशों के लिए तो यह बदलाव क्रांति साबित हुई. 50 साल पहले के सऊदी अरब और आज के खाड़ी देशों की तमाम तस्वीरों में फर्क को गूगल पर खोजकर देखा जा सकता है. अभी कुछ दशक पहले तक खाड़ी देशों में सड़कों पर ऊंट गाड़ियां आम थीं. सबसे मजेदार बात यह है कि इस्लामिक दुनिया में कहीं भी खलीफा को हटाए जाने का तगड़ा विरोध नहीं दिखा जैसा संगठित और आक्रामक विरोध तत्कालीन भारत में नजर आ रहा था. अंग्रेजों की वादाखिलाफी से मुसलमान बहुत बुरी तरह से नाराज थे.
मुसलमान स्वतंत्रता संग्राम में शामिल थे या खिलाफत में?
अविभाजित भारत में खिलाफत आंदोलन को भारतीय मुस्लिम आंदोलन भी कहते हैं. अंग्रेजों की धोखाधड़ी के बाद 2019 में शौकत अली, मौलाना मोहम्मद अली जौहर, हाकिम अजमल खान और अब्दुल कलाम आजाद सड़क पर उतर पड़े और ऑटोमन खलीफा को बहाल करने की मांग करने लगे. इस्लामिक वजहों से अविभाजित भारत में खिलाफत आंदोलन शहर-शहर कस्बे-कस्बे फ़ैलने लगा. अली बंधु इस्लाम का हवाला देकर लोगों को एकजुट कर रहे थे. तुर्की की एक राजनीतिक घटना को अली बंधु इस्लाम पर खतरा बताकर भारत का प्रश्न बना रहे थे और इस्लाम के लिए मुसलमानों को अंग्रेजी सेना छोड़ देने को कह रहे थे.
आंदोलन में मुसलमानों का सबसे उच्च तबका नेतृत्व कर रहा था. जैसे हिंदुओं में सवर्ण. यह तबका पढ़ें-लिखे स्कॉलर्स का था. जमींदारों का था, रईसों का था. लेखकों का था. अध्यापकों का था. मौलानाओं का भी था. नेतृत्व करने वाले ज्यादातर विदेशी मूल के भारतीय मुसलमान थे जिनके पूर्वज कभी कमर में तलवार बांधकर सिर्फ दो-ढाई सौ साल पहले बड़े बड़े पदों के जरिए भारत के भूभाग पर राज किया करते थे. इसमें वो मुसलमान भी थे जिनका मूल भारतीय ही था. यानी उंची जातियों से मुसलमान बने लोग. दोनों उच्च जातियों को मुस्लिम "अशराफ" कहा जाता है. ख़ास बात यह है कि 100 साल बाद आज भी मुसलमानों की राजनीति पर पूरी तरह से 'अशराफ' का ही कंट्रोल है. अन्य पिछड़े-दलित मुसलमानों को धार्मिक दबाव की वजह से उनके पीछे चलना पड़ता है. वक्फ, मस्जिद, मदरसों और पर्सनल लॉ पर अशराफों का ही नियंत्रण है.
अशराफों का नियंत्रण ऐसा है कि मंडल के आंदोलन में मुस्लिम पिछड़े दलित सामजिक न्याय के लिए आगे ही नहीं बढ़ पाए. आर्थिक सामजिक रूप से आज भी उनकी हालत बहुत खराब है.
जामिया खिलाफत की देन है.
महात्मा गांधी को खिलाफत में क्या उम्मीद दिखी?
चूंकि उस वक्त पढ़ें-लिखे, सभ्य, संपन्न और शहरी मुस्लिमों का प्रभावशाली युवा आंदोलन चेहरा और नेतृत्व था- स्वाभाविक है कि समूचे भारत के मुसलमान इससे प्रभावित हुए. अंग्रेजों की तमाम कोशिशों के बावजूद आंदोलन बढ़ता ही जा रहा था. कुछ समय बाद महात्मा गांधी को लगा कि क्यों ना धार्मिक आंदोलन का इस्तेमाल स्वतंत्रता संग्राम के लक्ष्यों को भी हासिल करने के लिए किया जाए.
जिस तरह आंदोलन था, गांधी जी को लगा कि एक तीर से कुछ ही महीनों में कई निशाने साधे जा सकते हैं. और लक्ष्य पर तो ब्रिटिश साम्राज्य ही था दोनों के. शक भी किस बात पर करते.
ज्यादा सोच-विचार किए बिना ही गांधी ने आंदोलन को समर्थन दिया और उसके पक्ष में उतर पड़े. गांधी के इस कदम की कांग्रेस में कड़ी आलोचना हुई. कई अलग भी हुए. लेकिन गांधी के पीछे बहुत सारे कांग्रेसी नेता आए. आजाद पहले से ही थे. खिलाफत आंदोलन के तीन अगुआ निकल कर आए- अली बंधु, मौलाना आजाद और गांधी जी. गांधी जी के आने के बावजूद अंग्रेजों पर कोई फर्क नहीं पड़ा. ब्रिटिश ना तो खलीफा का पद बहाल करने पर राजी थे और ना ही तुर्की में लगाए गए धार्मिक प्रतिबंध खत्म करने पर.
अंग्रेजों को लगा कि जब कोई बड़ा इस्लामिक देश इस तरह की मांग नहीं कर रहा तो भारत के मुट्ठीभर मुसलमान क्या ही कर लेंगे. हालांकि गांधी जी की वजह से वो मुट्ठीभर नहीं रह गए थे. गंगा जमुनी तहजीब ऐसी थी कि उनकी एक अच्छी खासी संख्या बढ़ने लगी. गांधी का विरोध करने वाले तमाम नेता भी मन मसोसकर साथ ही रहे. उलटे गांधी जी का आना आंदोलन को और प्रभावी बनाने में कामयाब हुआ. ऐसा भी प्रचार हुआ कि जब गांधी जैसे दूसरे मुसलमान आंदोलन में हैं- भारतीय मुसलमानों में इस्लाम के लिए कोई बेचैनी नहीं. आधुनिक राजनीति में शायद ही धर्म का ऐसा प्रयोग कभी किया गया हो. गांधी के नाम ने खिलाफत को व्यापक बना दिया और शायद पहली बार भारत के गांव-गांव तक जो सबसे बड़ा संदेश पहुंचा, वह था- इस्लाम में व्यापक मुस्लिम भाईचारा. इस्लाम में ब्रदरहुड बना. इस्लामिक ब्रदरहुड के झांसे में गांव देहात के वो मुसलमान भी आए जिन्हें तुर्की का "त" और खलीफा का "ख" भी नहीं पता था.
पंच साल तक चला आंदोलन, फिर दंगों का दौर चला
आंदोलन पांच साल तक चला और साल 2024 में ख़त्म हो गया. भारत के चप्पे-चप्पे तक संदेश पहुंच चुका था. खिलाफत की दो बातों पर गौर करिए.
1) विश्लेषक आज भी मानते हैं कि इसकी वजह से हिंदू-मुस्लिम एकता बढ़ी.
2) विश्लेषक यह भी मानते हैं कि इसी आंदोलन को कुचलने के लिए अंग्रेजों ने हिंदू-मुस्लिमों के बीच दंगे कराए.
खिलाफत के आंदोलन ने भारत को क्या-क्या दिया
आज के दौर की मुस्लिम सियासत को देख लीजिए. वह खिलाफत मोड में ही आंदोलन करती है. आप उसके आंदोलन में जा रहे तो सेकुलर नहीं जा रहे तो साम्प्रदायिक. आजम ने भी एक निजी और कानूनी मामले को भी धार्मिक रूप दे दिया है. खिलाफत के बाद भारत में कई तरह के राजनीतिक-धार्मिक संगठन बने. हिंदू मुसलमान दोनों में. यह शोध का विषय है. आगे चलकर इन्हीं से निकले कुछ नेताओं ने इस्लामिक राष्ट्र के रूप में अलग पाकिस्तान की मांग की थी. वैसे वहां हिंदुओं को भी रहने की इजाजत दी गई. मुझे बहुत डिटेल नहीं पता कि पाकिस्तान की अवधारणा में हिंदुओं को पाकिस्तान में रहने की रजामंदी कब मिली? जब पहले-पहल पाकिस्तान का विचार आकार ले रहा था, या फिर 1947 में बंटवारे के आसपास. मुझे लगता है कि बंटवारे में ही यह तय किया गया होगा.
सोचने वाली बात है कि दो अलग-अलग कौमों और उनके बड़े नेता खिलाफत की वजह से हिंदू-मुस्लिम एकता का जज्बा बढ़ाने में कामयाब रहे तो फिर बाद में दंगे क्यों होते रहे. खूब हुए. मारकाट का इतिहास भरा पड़ा है. गांधी जी ने इतना कमजोर सौहार्द्र कैसे बनाया था? मुसलमानों ने इतना भी नहीं सोचा कि पूरी दुनिया के मुसलमान जब खामोश बैठे थे गांधी के पीछे एक बड़ी जमात खिलाफत के साथ थी. समझ से परे है कि खिलाफत में जो बात तुर्की के खलीफा से शुरू हुई थी उसका निष्कर्ष पाकिस्तान तक कैसे पहुंच गया?
सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि धार्मिक आंदोलन में गांधी के शामिल होने की क्या जरूरत थी? किसी के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करना भला कहां न्यायोचित है. जबकि आपके धर्म में ही सुधार की बहुत जरूरत थी. और आप धार्मिक सामजिक चीजों में कई जगह अड़ियल नजर आते हैं. उसके लिए तो आपने कभी धार्मिक आंदोलन की शुरुआत की जरूरत नहीं समझी. जिस देश (तुर्की) की आतंरिक व्यवस्था से भारत का करोड़ों जनता का कोई धार्मिक आर्थिक और सामजिक संबंध नहीं था उसमें कूद पड़े.
इसमें दो चीजें हैं. एक तो विश्लेषक जिन दो बातों का ऊपर जिक्र करते हैं- वही हो और दूसरे में ओशो का भी दृष्टिकोण भी देखा जा सकता है.
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी
ओशो गांधी जी को पाखंडी क्यों कहते हैं
ओशो कई बार गांधी जी को पाखंडी साबित करने की कोशिश में दिखते हैं. उन्हें शायद सुने पढ़े हों या उसका भी एक नजरिया है. ओशो का संदर्भ यहां इसलिए दे रहा हूं क्योंकि इस्लाम और पैगम्बर साहब के बहाने ओशो तमाम धर्मों की व्याख्या विश्लेषण करते हैं. परमात्मा के स्वरूप पर चर्चा करते हैं और उसके इलीटपने को भी रेखांकित करते हैं. पाप और पुण्य पर भी बात करते हैं. पाप और पुण्य समझने के लिए भगवती शरण वर्मा की चित्रलेखा से बेहतर कोई कहानी नहीं है हिंदी वालों के लिए.
खैर, ओशो- गांधी को इशारों में झूठा और पाखंडी बताते हुए कहते हैं, "सत्य के प्रयोग में उन्होंने जो तमाम बातें की, बहुत बढ़ा-चढ़ाकर अपने 'पाप को प्रचारित' करने की कोशिश की. और यह कोशिश इसलिए थी कि पाप जितना बड़ा दिखेगा उतने बड़े महात्मा की स्थापना होगी." अगर ओशो के नजरिए से खिलाफत को देखें तो गांधी वहां भारत का नेता बनने की स्टंटबाजी करते दिखते हैं. सोचिए कि कई दलित मुद्दों के विरोध में नजर आने वाले गांधी मुसलमानों के धार्मिक आंदोलन में शामिल नहीं हुए होते तो क्या उन्हें भारत के महात्मा की संज्ञा कभी मिल पाती? वे आज जिस तरह महात्मा के रूप में नजर आते हैं खिलाफत के बिना भी होते. गांधी को ओशो के नजरिए से भी देखना चाहिए और उस पर बहस करना चाहिए भारतीय समाज को. हालांकि गांधी हमारे पूजनीय हैं यह मर्यादा भी नहीं भूलना चाहिए हमें.
और खिलाफत में मुसलमान साथ क्यों हुए, कितने तुर्क थे भारत में?
असल में खिलाफत का यही सवाल ज्यादा बड़ा और मौजूं है. तुर्की के मामले में भारतीय मुसलमानों को भी भला कूदने की क्या जरूरत थी? जो विदेशी मूल के अशराफ थे उनका फिर भी समझा जा सकता है. पर भला अल्लामा इकबाल को इस्लामिक राष्ट्र का कॉन्सेप्ट पेश करने की क्या ही आवश्यकता थी? अल्लामा कितना विरोधाभास और कन्फ्यूजन का शिकार है. अल्लामा एक मुस्लिम के रूप में जितना गर्व करता है उससे कहीं ज्यादा गर्व उसे खुद के सप्रू ब्राह्मण परिवार से होने पर है. अल्लामा के दादाजान कश्मीरी ब्राह्मण थे. अल्लामा ने अपने पारिवारिक जड़ों का बखान करते हुए शेरों-शायरी में विदेशी मूल के मुसलमानों को खूब चिढ़ाया है. खैर यह अल्लामा का अपना निजी पक्ष है इसपर सवाल उठाने वाले हम आप कौन हैं भला.
लौटते हैं खिलाफत पर जो मात्र भारत में सफल रहा, वह इस्लाम भर का आंदोलन नहीं था. उसे इस तरह देखिएगा भी मत. क्योंकि दुनिया भर का इतिहास उठाकर देख लीजिए इस्लाम के नाम पर कोई देश बनने का उदाहरण नहीं मिलेगा. यह इस्लाम के धार्मिक उपनिवेश का भी आंदोलन था और भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लाम के भविष्य का भी आंदोलन था. यह धार्मिक आंदोलन भर नहीं बल्कि "पैन इस्लामिज्म" का एक संशोधित राजनीतिक रूप भी था. एक ऐसा आधुनिक इस्लामिक आंदोलन था जिसमें सभी मुस्लिम देशों को एक इस्लामिक स्टेट या खलीफा के झंडे के नीचे लाने की योजना है. दुनिया में जहां भी मुसलमान हों. भारतीय उपमहाद्वीप और एशिया के कई हिस्सों में सैकड़ों साल से इस्लाम ने जो संघर्ष किया था उसके हासिल को कैसे प्राप्त किया जा सकता है. वो रास्ते क्या हो सकते हैं. हथियार को जोड़ दीजिए तो आप बिल्कुल अलग अलग हिस्सों में चले इस्लामिक स्टेट, अलकायदा और तालिबान के आंदोलन के रूप में भी इसे देख सकते हैं.
पाकिस्तान के निर्माण पर इसरार अहमद जैसे इस्लामिक स्कॉलर क्या कहते हैं?
पाकिस्तान निर्माण के आंदोलन में सक्रियता से शामिल रहे इस्लामिक स्कॉलर डॉ. इसरार अहमद के कुछ भाषणों को सुनिए. खिलाफत पर उनके निष्कर्षों और भविष्य में इस्लाम की योजनाओं को सुनकर चीजों को समझने में आसानी होती है. खिलाफत और उससे ठीक पहले पैन इस्लामिज्म के जरिए असल में इस्लामिक सिद्धांतों पर आधारित एक अंतराष्ट्रीय योजना को भारत में मूर्त करने की थी. दुनिया में व्यापक इस्लामिक पहचान बनाने की योजना थी जो कथित रूप से पश्चिम के विरोध, स्थानीयता के विरोध पर आधारित थी. पढ़ाई-लिखाई, पहनना-ओढ़ना खाना-पीना, इसमें सब निर्धारित किया गया था. पैन इस्लामिज्म की कोशिश थी कि दुनियाभर के मुसलमान एक जैसे दिखें. सिर्फ धर्म के लिहाज से नहीं. डॉ. इसरार अहमद तो पाकिस्तान के जन्म को भारत में इस्लाम के संघर्ष का सबसे बड़ा हासिल घोषित कर देते हैं. सवाल है- भारत में इस्लाम ने कौन से संघर्ष झेले 1947 तक?
आज की तारीख में कुछ एशियाई देशों की स्थिति देख लीजिए. इन देशों का इतिहास और वर्तमान देख लीजिए. अपने आसपास के घरों और मोहल्लों को देख लीजिए. पहले जो स्थानीय परंपराएं भारतीय मुसलमान सहज मानते थे उन्हें ठुकरा चुके हैं. रज्जब अली के बेटे को भी लगने लगा है कि औरंगजेब देश का हीरो है और भारत में उसका लगातार आपमान किया जा रहा है. भारत के इतिहास में वह सरदार भगत सिंह जैसा सम्मान चाहता है. उसे यह भी लगने लगा है कि कभी उसके पूर्वज सत्ता पर काबिज थे, मगर उन्हें हटा दिया गया और आज वह हिंदुओं के शासन में गरीबों की तरह जिंदगी जीने को मजबूर है. भले ही केरल में लेफ्ट की सत्ता है, तमिलनाडू में एमके स्टालिन हैं, बंगाल में ममता बनर्जी हैं, या फिर छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल हैं. इस्लाम के नाम पर खानपान, पहनावा, बोली को लेकर धर्म का दबाव भी साफ़ नजर आता है. स्वेच्छा का तर्क कहने भर की बात है. निकहत जरीन तक मानती हैं कि उन्हें खूब टोका गया कपड़ों की वजह से. गांव देहात की लड़कियों की कल्पना तक नहीं कर सकते.
अब सवाल है कि खिलाफत से पहले "पैन इस्लामिज्म" का जोर था. मुसलमान भारत में पहले जैसे मुगलिया दौर की लगातार कल्पना कर रहे थे फिर उनके दिमाग में अपना पाकिस्तान कैसे और क्यों पैदा हो गया? क्या गांधी जी उसे नहीं देख पा रहे थे? जब ये सारी चीजें थीं फिर बंटवारे के वक्त चाइस देना कितना सही था दोनों तरफ के अल्पसंख्यकों के लिए. या तो बंटवारा होता ही नहीं या तो उसी समय एक विवाद को हमेशा-हमेशा के लिए ख़त्म कर दिया गया होता. जब हजारों मंदिर-मठ-गुरुद्वारे शहीद हो जाने पर भारत चुप रह सकता है- भला करतार साहिब और हिंगलाज के ढहने पर क्यों ही शोर मचाता.
एक खिलाफत ने पाकिस्तान दिया, कश्मीर बनाया, जामिया बना- ना जाने कितने इस्लामिक थॉट निकले. ना जाने कितने स्कॉलर नेता और चेहरे. ऐसे लोग भी जिनका जब मन करता है आजाद भारत को रौंदते हैं.
बापू मैं आपको कभी माफ़ नहीं कर सकता. खिलाफत की बड़ी कीमत चुकाई है भारत ने. क्या 'अशराफ' आजादी के बाद इस्लाम के संघर्ष का एक और हासिल पाने को व्याकुल हैं.
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