धूमल क्यों भूल रहे हैं कि न तो वो जेटली हैं न ही रुपाणी!
प्रेम कुमार धूमल न तो विजय रुपाणी की तरह अमित शाह के करीबी हैं और न ही अरुण जेटली की तरह बीजेपी की जरूरत. हिमाचल प्रदेश में चुनाव हार जाने के बाद भी धूमल ये सब समझने को तैयार क्यों नहीं हैं?
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विजय रुपाणी ही गुजरात के मुख्यमंत्री होंगे - इस बात की घोषणा भले ही अभी अभी हुई है, लेकिन इस पर शक शुबहा तो उसी वक्त खत्म हो गया था जब आनंदी बेन के हटने के बाद उन्हें कुर्सी पर बिठाया गया. विजय रुपाणी को मुख्यमंत्री बनाते वक्त खुद अमित शाह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनाव जीतने की गारंटी जो दी थी. चुनाव नतीजों से ये तो तय कर ही दिया था कि गुजरात और हिमाचल प्रदेश में सरकार तो बीजेपी की ही बनेगी - विजय रुपाणी की जगह दूसरे नाम तो महज सस्पेंस बनाये रखने की कवायद भर रहे.
हिमाचल प्रदेश में गुजरात का उल्टा हो गया जहां मुख्यमंत्री पद के लिए बीजेपी के घोषित उम्मीदवार प्रेम कुमार धूमल चुनाव हार गये. हार के बाद भी धूमल को कुर्सी पर बैठाने की तरकीबें खोजी जाने लगीं. धूमल के समर्थकों को ऐसा क्यों लगता है कि अब भी गुंजाइश बची हुई है? वैसे भी धूमल कोई अरुण जेटली तो हैं नहीं, जिसके लिए चुनाव जीतने की शर्त मायने नहीं रखती.
कहां जेटली, कहां धूमल
जिन हालात में प्रेम कुमार धूमल हिमाचल प्रदेश में बीजेपी के सीएम कैंडिडेट घोषित हुए, जरूरी नहीं था कि चुनाव बाद मुख्यमंत्री भी वही बनते - और बन अगर बन भी जाते तो कितने दिन कुर्सी पर बैठ पाते कहना मुश्किल था.
ये ठीक है कि अरुण जेटली 2014 के मोदी लहर में भी चुनाव हार गये थे, लेकिन याद रखा जाना चाहिये कि उनके खिलाफ मैदान में कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसे कांग्रेस के धाकड़ कैंडिडेट रहे, जो बाद में विधानसभा चुनाव हुए तो राहुल गांधी से लड़कर सूबे में कांग्रेस की कमान ली और बाद में चुनाव जीत कर सीएम बने.
20 साल की दोस्ती पर भारी पड़ रही एक हार...
धूमल का जेटली कनेक्शन भी जाननेवाले जानते ही हैं, लेकिन ये बात उनके हार जाने के बाद भी मुख्यमंत्री बनवा देगी जरूरी नहीं है. लंबे अरसे से हिमाचल प्रदेश में बीजेपी दो गुटों में बंटी हुई है. एक गुट धूमल और उनके बेटे अनुराग ठाकुर का है, तो दूसरा केंद्रीय मंत्री जेपी नड्डा का. अनुराग ठाकुर के चलते इस गुट की जेटली से खूब छनती है. ये गुटबाजी ही है जो नड्डा पर भी भारी पड़ रहा है - और धूमल भी काफी हद तक उसी राजनीति के शिकार हुए हैं.
खास बात ये है कि धूमल खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पसंद हैं, जबकि उनके हार जाने के बाद जो नाम रेस में सबसे ऊपर है वो है अमित शाह की पसंद जयराम ठाकुर. माना जा रहा है कि गुटबाजी के चलते ही अब नड्डा भी केंद्र में ही बने रहना चाहते हैं - और शाह को भी सबसे ज्यादा यही सूट करता है. कहते हैं जयराम ठाकुर के शाह का करीबी बनने के सूत्रधार भी नड्डा ही रहे हैं.
कहां धूमल, कहां जयराम ठाकुर
धूमल को प्रधानमंत्री मोदी के तब से पसंद करते हैं जब वो नब्बे के दशक में हिमाचल प्रदेश के प्रभारी रही. ये वो दौर रहा जब हिमाचल की राजनीति में शांता कुमार का दबदबा हुआ करता था. उन्हीं दिनों धूमल और मोदी ज्यादा करीब आये और नतीजा ये हुआ कि शांता कुमार से उन्होंने गद्दी भी छीन ली. बिहार चुनाव में बीजेपी की हार के बाद अगर शांता कुमार की सक्रियता पर आपने गौर किया हो तो मौजूदा नेतृत्व को लेकर खीझ की झलक साफ देखी गयी थी.
मोदी के कारण ही अमित शाह को धूमल को सीएम कैंडिडेट घोषित करना पड़ा, वरना वो तो उनकी पसंद थे ही नहीं. थोड़ा गौर करें तो धूमल की हार में खांटी राजनीति की खूश्बू भी महसूस की जा सकती है - और महज संयोग भी समझा जा सकता है. चर्चा तो ये भी रही कि मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित कराने के लिए धूमल ने बीस साल पुराने मोदी कनेक्शन का इस्तेमाल भी किया था.
धूमल की भी किस्मत देखिये, हारे भी उसी कैंडिडेट से जो उनका इलेक्शन मैनेजर भी रह चुका है. कहा जाता है कि धूमल को हराने वाले राजिंदर राणा ने राजनीति का ककहरा भी उन्हीं से सीखा है. चुनाव में गुरु पर चेला भारी पड़ गया, जो सीखा उसी दांव का इस्तेमाल भी कर लिया. राणा ने चुनावी नारा दिया था - 'नाम बनान काम'. राणा सामाजिक कार्यकर्ता रहे हैं और इलाके में काफी काम किया हुआ है जिसका उन्हें पूरा फायदा मिला.
धूमल की मुश्किल ये भी है कि हिमाचल में बैकडोर एंट्री के इंतजाम भी नहीं हैं. हिमाचल में एक ही सदन है - विधानसभा. वहां विधान परिषद नहीं है जिसके रास्ते पार्टी उन्हें कुर्सी पर बिठा सके. वैसे अगर बीजेपी आलाकमान को मंजूर हो तो धूमल के करीबी वीरेंद्र कुमार ने उनके लिए अपनी सीट छोड़ने की पेशकश भी कर दी है. वीरेंद्र कुमार कुटेलहार से चुनाव जीते हैं. अगर धूमल का जादू चल गया तो शपथ लेने के छह महीने के भीतर चुनाव लड़ कर खोयी हुई प्रतिष्ठा हासिल कर सकते हैं.
एक तो चुनाव हारने से धूमल की छवि धूमिल हो चुकी है, दूसरे वो न तो विजय रुपाणी हैं जो अमित शाह के करीब हैं - और न अरुण जेटली जो बीजेपी की जरूरत हैं. ऐसे में बेहतर यही होगा कि चर्चाओं पर बाकियों की तरह यकीन कर कहीं का राज्यपाल बनाये जाने का इंतजार करें, वरना - मार्गदर्शक मंडल तो है ही.
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