बंगाल में भी बीजेपी ने गुजरात जैसा ही प्रयोग किया और दिलीप घोष को जाना ही पड़ा!
बीजेपी के हिसाब से संयोग और प्रयोग दोनों ही बंगाल (West Bengal BJP) में भी गुजरात से ही मिलता जुलता लगता है - दिलीप घोष (Dilip Ghosh) की जगह सुकांता मजूमदार (Sukanta Majumdar) को पश्चिम बंगाल बीजेपी का अध्यक्ष बनाये जाने को कैसे समझें?
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दिलीप घोष (Dilip Ghosh) से कमान छीन कर पश्चिम बंगाल में सुकांता मजूमदार (Sukanta Majumdar) को सौंप दी गयी है. बलूरघाट से बीजेपी सांसद सुकांता मजूमदार को पश्चिम बंगाल भाजपा का अध्यक्ष बनाया गया है.
सुकांता मजूमदार अब बंगाल (West Bengal BJP) में ममता बनर्जी के खिलाफ विधानसभा में विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी के साथ मोर्चा संभालेंगे - और मौका आने पर दो-दो हाथ के लिए तैयार होंगे.
अब तक बीजेपी नेतृत्व को शुभेंदु अधिकारी और दिलीप घोष के बीच यही सबसे बड़ी कमी महसूस होती रही - क्योंकि बंगाल के चुनाव नतीजे आने के बाद से ही दोनों नेताओं के मतभेद कदम कदम पर सामने आ रहे थे. जब भी दिलीप घोष कोई मीटिंग बुलाते रहे, शुभेंदु अधिकारी ही नहीं उनके समर्थक नेता भी नदारद रहते पाये जाते और ऐसा ही शुभेंदु अधिकारी की बुलायी बैठकों में हु्आ करता था. बस एक ही मौका होता था जब पूरी बंगाल बीजेपी साथ देखी जा सकती थी, जब मीटिंग में बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा की भी मौजूदगी होती, लेकिन ऐसा मौका तो कभी कभार ही होता.
बंगाल चुनाव में बीजेपी की हार की गाज सबसे पहले बाबुल सुप्रियो पर गिरी थी जब उनको मंत्री पद से अचानक एक दिन सुबह सुबह फोन आते ही हाथ धोना पड़ा था - और माना ये भी जा रहा है कि बाहुल सुप्रियो के बीजेपी छोड़ कर जाने में भी दिलीप घोष ही बड़े कारण हैं, जैसे मुकुल रॉय की घरवापसी के पीछे भी समझा जाता है.
वैसे बंगाल चुनाव हार की जितनी जिम्मेदारी दिलीप घोष की है, राज्य के प्रभारी बीजेपी महासचिव कैलाश विजय वर्गीय की भी बराबर ही जिम्मेदारी बनती है. खास कर टिकटों के बंटवारे की बात की जाये तो. चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर के शब्दों में कहें तो टीएमसी के सारे कूड़े-कचरों को टिकट दिये जाने के लिए भी ये दोनों ही नेता जिम्मेदार रहे. हो सकता है दिलीप घोष के बाद कैलाश विजयवर्गीय का ही नंबर आता हो.
देखा जाये तो दिलीप घोष के मुकाबले सुकांता मजूमदार युवा तो हैं ही, बंगाल में बीजेपी के बैलेंसिंग एक्ट में भी आसानी से फिट हो जाते हैं. सुकांता मजूमदार उत्तर बंगाल से आते हैं जिसे बीजेपी का अपेक्षाकृत मजबूत गढ़ माना जाता है. सुकांता मजूमदार की जिम्मेदारी अब दक्षिण बंगाल से आने वाले शुभेंदु अधिकारी के साथ मिल कर ममता बनर्जी के खिलाफ बीजेपी को और मजबूत करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी है - और साफ साफ समझ आता है कि ये सब 2024 के आम चुनाव को ध्यान में रख कर ही किया जा रहा है.
दिलीप घोष भी नजीर बन गये
पश्चिम बंगाल चुनाव में संघ की पृष्ठभूमि होने के नाते दिलीप घोष भी मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में खुद गिनते ही होंगे. दिलीप घोष ने तरक्की की मंशा लिए चुनावों के दौरान वो रास्ते भी अपनाये जिससे बीजेपी में पूछ बढ़ती है. जैसे केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल को निशाना बनाते, ममता बनर्जी के प्रति दिलीप घोष का भी लहजा करीब करीब वैसा ही होता, खास कर ममता बनर्जी को चोट लग जाने के बाद प्लास्टर चढ़ जाने के बाद.
दिलीप घोष की जगह बेशक सुकांता मजूमदार को ममता के खिलाफ बीजेपी ने मोर्चे पर लगा दिया है, लेकिन भवानीपुर का मैदान भी नंदीग्राम जैसा ही इम्तिहान है
चुनाव तक तो सब जैसे तैसे चल गया, लेकिन नतीजे आने के बाद बीजेपी जैसे बिखरी सी नजर आने लगी थी. एक बड़ी वजह ममता बनर्जी को नंदीग्राम में शिकस्त देने के बाद शुभेंदु अधिकारी को मिलने वाला तवज्जो भी रहा. मेहनत तो मुकुल रॉय ने भी की थी, सीनियर भी रहे और अपनी विधानसभा सीट भी जीते थे, लेकिन विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी बना दिये गये. मुकुल रॉय की नाराजगी दोनों ही से थी.
मुकुल रॉय तो तृणमूल कांग्रेस में लौटे ही और भी बीजेपी विधायकों ने वही रास्ता अख्तियार कर लिया. शुभेंदु अधिकारी ने अपने तरीके से धमकाया भी और दिलीप घोष ने अपनी तरफ से कोशिश भले की हो, लेकिन विधायकों के पार्टी छोड़ने का सिलसिला नहीं थम रहा था. और भी हैं कतार टाइप महसूस होने लगा था, जैसे एक दूसरे से कह रहे हों - तू चल मैं आता हूं.
ये सारे मामले एक एक कर दिलीप घोष के खिलाफ आलाकमान के पास दर्ज की जाने वाली शिकायतों में शुमार होते गये - सबसे खराब बात तो ये हुई कि भवानीपुर उपचुनाव के लिए स्टार कैंपेन की लिस्ट में शामिल किये गये बाबुल सुप्रियो भी ममता बनर्जी के साथ चले गये.
बाबुल सुप्रियो ने मंत्री पद छीन लिये जाने के बाद राजनीति से ही संन्यास की घोषणा कर दी थी, लेकिन जेपी नड्डा और अमित शाह के समझाने पर सांसद बने रहने को तैयार हो गये थे, लेकिन फिर करीब डेढ़ महीने बाद ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस में चले गये.
रूपा गांगुली से झगड़े के बाद दिलीप घोष की कैलाश विजयवर्गीय से भी बातचीत कम हो गयी. मुकुल रॉय और बाबुल सुप्रियो तो दिलीप घोष का कुछ नहीं बिगाड़ पाये, लेकिन शुभेंदु अधिकारी की शिकायत भारी पड़ी - और कुर्सी लेकर ही खत्म भी हुई.
ऐसा लगता है बीजेपी नेतृत्व ने हाल ही में गुजरात से जो मैसेज दिया है, दिलीप घोष भी उसी कड़ी में नजीर बने हैं - और ये बाकियों के लिए भी आखिरी चेतावनी है.
जो मिशन 2024 में मिसफिट होगा, जाएगा
दिलीप घोष के साथ भी मनोज तिवारी जैसा ही सलूक हुआ है. फर्क बस ये है कि अमित शाह, दिलीप घोष के साथ वैसे नहीं पेश आये जैसे दिल्ली विधानसभा चुनाव में मनोज तिवारी के साथ. चुनावों में जैसे दिलीप घोष पश्चिम बंगाल बीजेपी के अध्यक्ष थे, मनोज तिवारी के पास दिल्ली बीजेपी की कमान थी, लेकिन बीजेपी नेता अमित शाह जब मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को बहस के लिए चैलेंज करते तो दिल्ली से ही सांसद प्रवेश वर्मा को आगे कर देते रहे.
चुनावी प्रदर्शन के लिहाज से देखा जाये तो दिलीप घोष के नेतृत्व में ही बंगाल में बीजेपी की लोक सभा की सीटें 42 में से 2 से सीधे 18 पर पहुंच गयीं. दिल्ली में भी बीजेपी 2014 की ही तरह 2019 में भी सभी सातों सीटें जीतने में कामयाब रही - और ये भी सही है कि आम चुनाव में बीजेपी के प्रदर्शन के पीछे मोदी लहर भी काम कर रही थी.
दिल्ली में बीजेपी की हार के बाद संघ और बीजेपी थिंक टैंक की तरफ से एक चेतावनी भरी सलाह भी दी गयी थी - आखिर कब तक मोदी-शाह के भरोसे रह सकते हैं. ये सवाल और सुझाव खास तौर पर दिल्ली बीजेपी के लिए ही था. कहा ये भी गया था कि मोदी-शाह ही बीजेपी के लिए हर चुनाव में जीत सुनिश्चित नहीं कर सकते.
सही बात है. दिल्ली चुनाव से ठीक पहले मोदी-शाह के होते हुए भी बीजेपी झारखंड में सत्ता गंवा बैठी. दिल्ली में तो नहीं लेकिन झारखंड में तो मुख्यमंत्री का चेहरा भी था. उससे पहले आम चुनाव के ठीक बाद बीजेपी हरियाणा में बहुमत से पीछे रह गयी थी, जबकि महाराष्ट्र में भी सीटें कम हो गयीं. हरियाणा में तो जैसे तैसे जाट नेता दुष्यंत चौटाला के सपोर्ट से बीजेपी की सरकार बन भी गयी, लेकिन महाराष्ट्र में शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे गठबंधन तोड़ कर मुख्यमंत्री बन बैठे.
दिल्ली बीजेपी को थिंक टैंक की तरफ से स्थानीय नेतृत्व तैयार करने की सलाह दी गयी थी. वैसे ऐसी सलाहियत कोई जगह विशेष के लिए नहीं होती, बल्कि जहां भी जरूरी हो सबके लिए होती है. कभी कभी स्थानीय नेतृत्व मजबूत होने पर आलाकमान के लिए सिरदर्द भी बन जाता है और उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सबसे बड़ी मिसाल हैं.
संघ की पृष्ठभूमि से आने वाले दिलीप घोष को शायद ही उम्मीद रही होगी कि पश्चिम बंगाल बीजेपी के अध्यक्ष पद से हटाकर उनको पार्टी की उपाध्यक्षों वाली बोगी में बिठा दिया जाएगा. मार्गदर्शक मंडल जैसा तो नहीं लेकिन बीजेपी में उपाध्यक्ष पद भी वैसा ही लगता है जैसा नौकरशाही में प्रतिक्षा सूची बनती है या किसी कम महत्व वाली जगह तैनात कर दिया जाता है.
2018 के विधानसभा चुनाव बीजेपी के राजस्थान में सत्ता गंवाने के बाद पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को भी उपाध्यक्ष ही बनाया गया था - और शिवराज सिंह चौहान के साथ भी वैसा ही हुआ था जब तक वो कमलनाथ वाली कांग्रेस सरकार गिरने के बाद फिर से मुख्यमंत्री नहीं बने थे.
बीजेपी में राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाये जाने को दिलीप घोष अंदर से भले ही एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी छीन लिये जाने जैसा महसूस कर रहे हों, लेकिन समझाने की तो यही कोशिश कर रहे हैं कि उनके काम और योगदान के इनाम के रूप में उनको एक सूबे से राष्ट्रीय स्तर पर लाया गया है.
और सबसे बड़ा सच ये है कि बीजेपी में जो भी रद्दोबदल हो रहे हैं या आगे होने हैं, सब के सब 2024 के आम चुनाव के हिसाब से ही हो रहे हैं. दिलीप घोष को अध्यक्ष पद से हटाये जाने और बाबुल सुप्रियो को कैबिनेट से हटाये जाने में भी फर्क है, लेकिन बाबुल सुप्रियो का बीजेपी छोड़ देना और फिर तृणमूल कांग्रेस ज्वाइन कर लेना दिलीप घोष को भारी पड़ा है.
उत्तराखंड, कर्नाटक और हाल में गुजरात में मुख्यमंत्री बदलने के बाद बीजेपी नेतृत्व का साथी नेताओं के लिए मैसेज साफ हो चुका है - जो कोई भी, चाहे वो कितना भी असरदार हो, संघ से कितने भी मजबूत कनेक्शन हों अगर मिशन 2024 के पैमाने पर अनफिट या मिसफिट होगा तो वैसा ही सलूक होगा जैसा अभी अभी दिलीप घोष के साथ हुआ है.
ज्यादा दिन नहीं हुए, राम माधव भी बीजेपी में संघ से ही आये हुए थे. ऐसा भी नहीं कि राम माधव को कोई क्रेडिट नहीं मिला. जम्मू-कश्मीर में अगर बीजेपी ने महबूबा मुफ्ती के साथ गठबंधन सरकार बनायी थी या फिर नॉर्थ ईस्ट में सभी में राम माधव की खास भूमिका मानी गयी. अमित शाह के अध्यक्ष बनने के साथ ही बीजेपी में महासचिव बन कर आये राम माधव ने असम में बीजेपी की सरकार बनने से लेकर त्रिपुरा में लाल को हटा कर भगवा झंडा फहराने में भी खासे सक्रिय रहे - लेकिन 2019 के आम चुनाव के बाद जब जेपी नड्डा ने कमान संभाली तो राम माधव को टीम में जगह नहीं मिली - और आखिरकार राम माधव को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही लौटना पड़ा.
पश्चिम बंगाल बीजेपी के लिए कितना महत्वपूर्ण है ये बीजेपी के चुनाव लड़ने के तरीके से ही पता चलता है. आम चुनाव से पहले से ही अमित शाह की पश्चिम बंगाल और केरल पर नजर टिकी था, लेकिन 2019 के नतीजों ने साफ कर दिया कि केरल बाद में देखा जाएगा, पहले तो बंगाल में भी सरकार बनाने की कोशिश करनी चाहिये और हुआ भी वही.
हो सकता है बंगाल में बीजेपी की सरकार होती और मुख्यमंत्री 2024 के पैमाने पर फिट नहीं बैठता तो गुजरात जैसा ही हाल होता, दिलीप घोष को भी मिलती जुलती परिस्थितियों का ही शिकार होना पड़ा है - 41 साल के सांसद सुकांत मजूमदार भी बीजेपी के पैरामीटर पर वैसे ही फिट हुए हैं जैसे गुजरात में भूपेंद्र पटेल गुटबाजी से दूर दूर तक नाता नहीं और अपने पूर्ववर्ती के मुकाबले उम्र में छोटा होना.
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