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Updated: 02 सितम्बर, 2018 06:12 PM
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देश में जब भी कोई बड़ी घटना होती है तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुप्पी पर सवाल उठाये जाते रहे हैं. वैचारिक असहमति और लोकतंत्र को लेकर छिड़ी बहस के मुद्दे पर प्रधानमंत्री मोदी पर इस बार कोई ऐसा आरोप नहीं लगा सकता. परोक्ष रूप से ही सही प्रधानमंत्री ने इस मुद्दे पर अपने मन की बात कह दी है.

उप राष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू की किताब - 'मूविंग आन मूविंग फारवर्ड, ए इयर इन ऑफिस' के विमोचन के मौके पर प्रधानमंत्री मोदी ने अनुशासन का जिक्र किया और कहा कि अगर कोई ऐसा आग्रह करता है तो उसे तानशाह करार दिया जाता है.

अनुशासन की अहमियत तो है, लेकिन...

देश के मौजूदा माहौल को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना है कि अगर कोई अनुशासित हो तो उसे अलोकतांत्रिक कह दिया जाता है या ऑटोक्रेट तक कह दिया जाता है. प्रधानमंत्री मोदी ने अपने कई पुराने अनुभव साझा करते हुए कहा कि अनुशासन के मामले में उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू ने नजीर पेश किया है.

narendra modiलोकतंत्र में अनुशासन नहीं अभिव्यक्ति और असहमति अहम होती है!

प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, "उपराष्ट्रपति नायडू डिसिप्लीन के बड़े आग्रही हैं... हमारे देश की ऐसी स्थिति है कि डिसिप्लीन को अनडेमोक्रेटिक कह देना... आज कल सरल हो गया है... कोई थोड़ा सा भी डिसिप्लीन का आग्रह करे... मर गया वो... ऑटोक्रेट है... पता नहीं सारी डिक्शनरी खोल देते हैं..."

प्रधानमंत्री मोदी ने किसी का नाम नहीं लिया है और जो कुछ भी बोला है वो पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कई कांग्रेस नेताओं की मौजूदगी में कहा है. ऐसा भी नहीं लगता कि प्रधानमंत्री के बयान में निशाने पर अर्बन नक्सल हैं या फिर प्रमुख विरोधी दल कांग्रेस. प्रधानमंत्री मोदी ने संसद का कामकाज के साथ साथ देश के मौजूदा माहौल की चर्चा करते हुए अनुशासन की बात कही है. उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू के बहाने प्रधानमंत्री मोदी ने समझाने की कोशिश की है कि वो खुद भी अनुशासन कायम रखने के पक्षधर हैं.

सवाल ये है कि लोकतंत्र में अनुशासन की बातें कितना मायने रखती हैं - और अगर लोकतंत्र में अनुशासन की बात बेमानी है तो क्या ये किसी और तरह की सख्ती के संकेत हैं? ये बात ऐसे में काफी महत्वपूर्ण हो जाती है जब देश में अघोषित इमरजेंसी की चर्चा होने लगी हो. खासकर तब जबकि सत्ताधारी दल के ही सीनियर नेता लालकृष्ण आडवाणी देश में इमरजेंसी जैसे हालात की आशंका जता चुके हों.

अनुशासन और असहमति बिलकुल अलग बातें हैं

सेवाओं की बात अलग है. सेना, पुलिस या अर्धसैनिक बलों में सर्विस रू लागू होते हैं. लोकतंत्र में ऐसा कोई रूल नहीं चलता. लोकतंत्र में अनुशासन संवैधानिक प्रक्रिया का पालन और कानून का राज कायम करना होता है. जहां तक इस प्रसंग में अनुशासनात्मक भाव का सवाल है तो आत्मानुशासन से ज्यादा की जरूरत नहीं लगती, लेकिन इसे किसी भी सूरत में थोपा नहीं जा सकता.

देश के प्रति नागरिकों के प्रेम को लेकर भी विधि आयोग ने अपने परामर्श पत्र में कहा अवाम पर ही छोड़ देने की सलाह दी है - ये लोगों पर ही छोड़ देना चाहिये के वे अपने देश के प्रति प्रेम किस तरीके से करते हैं.

हालांकि, सेवाओं में सर्विस रूल भी कई बार अतिशयोक्तपूर्ण लगता है. जब बीएसएफ का एक जवान खराब खाने को लेकर शिकायत करता है तो उसे अनुशासनहीनता मान लिया जाता है. जब वो मेस में जली हुई रोटी और पतली दाल पर सवाल उठाता है तो उसे नौकरी से निकाल दिया जाता है. ऐसा तो नहीं लगता कि वो पहली दफा ही सोशल मीडिया का सहारा लिया होगा. ये रास्ता तो तभी अपनाया होगा जब उसकी कोई सुन नहीं रहा होगा.

सेवा में अनुशासन की अहमियत जरूर है, लेकिन एक लोकतांत्रिक देश में आखिर किस तरह के अनुशासन की अपेक्षा हो रही है? आखिर प्रधानमंत्री मोदी का आग्रह किस तरह के अनुशासन से है?

सेफ्टी वॉल्व और प्रेशर कूकर की मिसाल देकर सुप्रीम कोर्ट से लेकर विधि आयोग तक सभी संस्थान सत्ता पक्ष को आईना दिखाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन यहां तो अनुशासन की अपेक्षा है. अगर लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार के प्रधानमंत्री संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों से लैस लोगों से किसी खास अनुशासन की अपेक्षा रखते हैं, फिर तो वास्तव में किसी न किसी रूप में डेमोक्रेसी खतर में समझी जा सकती है.

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