बोलने को लेकर नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी दोनों की समान राय क्यों हैं?
जिस दौर में बात बेबात ट्वीट हो रहे हों उस वक्त किसी भी नेता का ये कहना कि कोई उसे बोलने नहीं दे रहा, बड़ा अजीब लगता है. अब ये बात चाहे राहुल गांधी बोलें या फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी.
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बोलने की आजादी पर पहली बार आम सहमति बनती दिख रही हो. सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच फ्रेंडली उलाहने वैसे ही लगते हैं जैसे कभी सूर्यग्रहण, चंद्रग्रहण या बरसों बाद बनने वाले ग्रहों के संयोग के बारे में बताया जाता है.
राहुल गांधी का दावा है कि सरकार उन्हें संसद में बोलने नहीं दे रही. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी वैसा ही काउंटर क्लेम है कि लोक सभा में उन्हें बोलने नहीं दिया जा रहा इसलिए जन सभाओं में बोल कर काम चला रहे हैं. इतनी सहमति अगर जीएसटी और दूसरे मसलों पर पहले ही बन गई होती काला धन भी गरीबी की तरह कब का खत्म हो चुका होता.
गुब्बारा फूट जाएगा!
ये शायद पहली बार होगा कि भूकंप सूचना देकर आने की बात कर रहा है. राजनीति और क्रिकेट को कई बार एक तरीके से लिया जाता है लेकिन क्रिकेट में भी ऐसा कोई दावा मुश्किल है.
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नोटबंदी के एक महीना पूरे होने के मौके पर राहुल गांधी ने कहा था कि अगर वो बोले तो भूकंप आ जाएगा - लेकिन उन्हें बोलने नहीं दिया जा रहा. मीडिया से बातचीत में राहुल गांधी फिर से कहा, "प्रधानमंत्री डरे हुए हैं, उनके भ्रष्टाचार की हमारे पास कुछ निजी जानकारी है, जिसे हम सदन में रखना चाहते हैं, इस जानकारी से प्रधानमंत्री का गुब्बारा फूट जाएगा."
कौन है जो...
बहराइच के लिए मौसम जिम्मेदार था इसलिए प्रधानमंत्री मोदी ने परिवर्तन रैली को मोबाइल पर ही अड्रेस करने का फैसला किया - और रैली में आये लोगों ने प्रधानमंत्री मोदी के टेली भाषण से ही काम चलाना पड़ा.
बनासकांठा में अगर मोदी ने ये कहा होता कि राज्य सभा में उन्हें बोलने नहीं दिया जाता तो मन मान भी जाता कि चलो वहां विपक्ष का संख्या बल ज्यादा है इसलिए ऐसा हो सकता है. लेकिन प्रधानमंत्री ने तो कहा था कि लोक सभा में उन्हें बोलने नहीं दिया जा रहा इसलिए जन सभा में अपनी बात कह रहे हैं.
न बोल कर भी तो बहुत कुछ बोला ही जा सकता है |
क्या रेडियो के अलावा भी प्रधानमंत्री लोगों से मन की बात करने लगे हैं? विपक्ष के नेता मुक्त हो चुकी संसद में क्या इस कदर अराजकता मची हुई है कि देश के प्रधानमंत्री का बोलना भी दूभर हो चला है?
क्या ऐसी ही कोई मजबूरी हुआ करती थी और पूर्व प्रधानमंत्री को खामोशी का रास्ता अख्तियार करना पड़ा था? उनके केस में ये बात ज्यादा फिट भी होती है क्योंकि उनके पास तो जन सभाओं के भी लिमिटेड ऑपशन ही हुआ करते थे.
क्या अल्पसंख्यकों पर हमलों के मामलों में भी ऐसा ही रहा? क्या दादरी की घटना को लेकर भी ऐसा ही कुछ दबाव या वजह रही? तब दादरी को लेकर प्रधानमंत्री बोले भी तो बस इतना कि महामहिम राष्ट्रपति के बयान को उन्होंने ब्रह्म वाक्य बता कर पीछा छुड़ा लिया.
जब भी प्रधानमंत्री से किसी खास मसले पर बयान की अपेक्षा होती है उन पर न बोलने का कोई न कोई दबाव होता है क्या? क्या हर प्रधानमंत्री पर ऐसा दबाव होता है? क्या प्रधानमंत्री पद और गोपनीयता के साथ साथ किसी गोपनीय मजबूरी की भी शपथ लेनी पड़ती है जिसका सार्वजनिक जिक्र भी राष्ट्रवाद के खिलाफ जाता है?
जिस दौर में बात बेबात ट्वीट हो रहे हों - उस वक्त ये कहना कि कोई उसे बोलने नहीं दे रहा, बड़ा अजीब लगता है. प्रधानमंत्री मोदी तो बोलने के लिए ट्विटर का हमेशा ही इस्तेमाल करते रहते हैं. राहुल गांधी का भी ट्विटर अकाउंट है जो हैक भले हो गया था लेकिन अब पूरी तरह उनके कंट्रोल में है. जिस भूकंप और गुब्बारा फूटने की बात राहुल मीडिया के कैमरे पर बोल रहे हैं वही ट्वीट भी कर रहे हैं.
जब हर तरीके से राहुल ये बता रहे हैं कि मोदी के खिलाफ उनके पास भ्रष्टाचार से जुड़ी जानकारी है तो उसे ट्विटर पर ही क्यों नहीं शेयर करते? इस मुद्दे पर तो अरविंद केजरीवाल भी राहुल गांधी को जोश दिला रहे हैं कि वो संसद के बाहर ही मोदी को एक्सपोज करें. ये बात अलग है कि केजरीवाल राहुल को भी उसी अंदाज में सलाह दे रहे हैं जैसे उन्होंने सर्जिकल स्ट्राइक के फुटेज पाकिस्तान के मुहं पर दे मारने को कहा था.
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आखिर वो ऐसी कौन सी जानकारी है कि बगैर संसद में बोले दुनिया उस पर भरोसा नहीं करेगी. क्या राहुल गांधी को लगता है कि संसद के बाहर कहने पर उनका मकसद अधूरा रह जाएगा. तो क्या राहुल चाहते हैं कि मामला संसद में उठे और उसकी जांच संसदीय समिति से करायी जाये और प्रधानमंत्री ठीक से घेरा जा सके. क्या राहुल गांधी को ऐसा लगता है कि जब जांच की बात आएगी तो प्रधानमंत्री की ओर से उसे सीबीआई को सौंप दिया जाएगा - और सीबीआई तो तोता है - सीबीआई को ये तमगा भी कांग्रेस शासन में ही सुप्रीम कोर्ट से मिला था.
मौजूदा हालात में एक ही बात समझ नहीं आ रही कि दोनों ही नेताओं को 'नहीं-बोलना' क्यों सूट कर रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि राहुल गांधी, केजरीवाल की तरह खुद और पार्टी को चर्चा में बनाए रखना चाहते हों - और प्रधानमंत्री उसी रास्ते नोटबंदी के फैसले की आलोचना से ध्यान हटाना चाहते हों?
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