मोदी का आक्रामक होना वास्तव में समय से पहले आम चुनाव के संकेत तो नहीं!
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गुजरात चुनाव से पहले से ही आक्रामक रूख में देखा जा रहा है, नॉर्थ-ईस्ट और कर्नाटक चुनाव से पहले आक्रामकता में और इजाफा दर्ज हो चुका है. तो क्या इससे कुछ और भी संकेत मिलते हैं?
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चुनाव वक्त से पहले वास्तव में होंगे क्या? पहले इस तरह की बातें सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुहं से सुनी गयीं. फिर नीतीश कुमार और बीजेपी के कुछ मुख्यमंत्री भी हां में हां मिलाते सुने गये.
राष्ट्रपति अभिभाषण में भी एक साथ चुनाव कराये जाने के पर्याप्त संकेत समझे गये. उससे पहले टेक उद्यमी राजेश जैन ने भी एक लेख में तय वक्त से साल भर पहले ही चुनाव की संभावना जता चुके हैं.
अब प्रधानमंत्री मोदी जिस तरीके से कांग्रेस को टारगेट कर रहे हैं ये तो 2014 से भी ज्यादा आक्रामक लग रहा है. पहले तो मोदी के इल्जाम विपक्षी दल के नेता की तरह हुआ करते रहे - अब तो वो कांग्रेस के पाप पर चार साल तक चुप रहने की बात कर रहे हैं. आखिर मोदी के इस हमलावर रुख को राजनीति के किस मकसद से जोड़ा जा सकता है, ये सवाल स्वाभाविक है.
समय पूर्व चुनावी अटकलों का आधार
1. राष्ट्रपति का अभिभाषण : बजट सत्र में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के अभिभाषण में एक साथ चुनाव कराये जाने का जिक्र हुआ. फिर तो समझ ही लेना चाहिये कि मोदी सरकार ने अपने इरादे साफ कर दिये हैं. अगर चुनाव नियत वक्त से कुछ ही पहले कराना होता तो ऐसी बातें आगे आने वाले मौकों पर भी की जा सकती थीं.
यदि होते चुनाव साथ-साथ...
राष्ट्रपति के अभिभाषण में एक साथ सभी चुनाव का जिक्र उन संभावनाओं को बल देता है जो नई दिशाएं में अपने लेख में राजेश जैन ने जतायी हैं. 2014 में मोदी के चुनाव कैंपेन में सक्रिय रहे राजेश जैन का ये लेख राष्ट्रपति के अभिभाषण से हफ्ते भर पहले प्रकाशित हुआ है.
2. राजेश जैन का पूर्वानुमान : देखा जाये तो राजेश जैन ही वो शख्स हैं जिन्होंने समय पूर्व चुनाव की संभावनाओं को तार्किक स्वरूप दिया है. राजेश जैन ने इस बारे में कुल 12 बिंदुओं में अपनी बात रखी है, हालांकि, जो दलील सबसे सटीक लगती है वो है - प्रधानमंत्री मोदी की 'चौंकाने की कला'. जैन लिखते हैं, "हम सब जानते हैं कि मोदी को चौंकाना पसंद हैं." जैन ने तो 100 दिन के अंदर ही चुनाव की संभावना जता रहे हैं.
राजेश जैन का लेख 23 जनवरी को प्रकाशित हुआ है जिसमें उन्होंने फील-गुड बजट की भी संभावना जतायी है. बजट 2018 वोट बैंक के हिसाब से फील गुड तो रहा, लेकिन सभी के लिए नहीं. खासकर मिडिल क्लास के लिए तो बिलकुल नहीं.
3. मोदी का अचानक आक्रामक हो जाना : आक्रामक तो मोदी यूपी चुनाव में भी काफी रहे, लेकिन वहां निशाने पर मुख्य रूप से समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव रहे. कांग्रेस और राहुल गांधी का नाम वो अखिलेश के साथ ले लिया करते थे. हिमाचल प्रदेश चुनावों में तो कांग्रेस का टारगेट होना स्वाभाविक ही था. ये आक्रामकता और परिपक्व हुई गुजरात चुनाव में जहां कांग्रेस ने बीजेपी के लिए कदम कदम पर मुश्किलें खड़ी कर दी थीं. जहां तक मोदी के चुनावी मोड में होने की बात है तो उसकी एक वजह कर्नाटक और उससे पहले मेघालय, त्रिपुरा और नगालैंड का चुनाव होना भी हो सकता है. अगर बात इतनी ही होती तो मोदी चुनावी रैलियों में बीजेपी नेता और उसके स्टार कैंपेनर वाले अंदाज में पेश आते और संवैधानिक मंचों पर प्रधानमंत्री के तौर पर. जिस तरह संसद के दोनों सदनों में प्रधानमंत्री सिर्फ कांग्रेस की आलोचना और अपनी सरकार की उपलब्धियां बताते रहे, उससे तो ऐसा ही लगता है कि बात सिर्फ वो नहीं जो ऊपर से लगती है.
वैसे भी मोदी के एक साथ चुनाव कराने की मंशा का समर्थन नीतीश कुमार खुले तौर पर कर चुके हैं. मोदी के इस प्रोजेक्ट को बिहार के अलावा महाराष्ट्र, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु और सिक्किम से भी NOC यानी अनापत्ति प्रमाण पत्र मिल चुका है.
2019 से पहले एक साथ चुनाव
देखा जाये तो आजादी के बीस साल बाद तक चुनाव साथ-साथ ही होते रहे. 1951-52, 1957, 1962 और 1967 - लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ हुआ करते रहे, लेकिन 1967 में राजनीतिक उथलपुथल के बाद हालात बदल गये और फिर चुनाव अलग-अलग होने लगे.
अब तो आलम ये है कि पूरे साल कहीं न कहीं चुनाव या उपचुनाव होते ही रहते हैं.
बार बार चुनाव से नुकसान...
2002 में गुजरात में भी चुनाव समय से पहले कराये गये थे. तब के मुख्यमंत्री मोदी ने जुलाई में ही विधानसभा भंग कर दी और चुनाव दिसंबर में हुए. बीजेपी के विरोधियों का आरोप रहा कि ऐसा गोधरा हिंसा से संभावित वोटों के ध्रुवीकरण के मकसद से किया गया.
अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार अक्टूबर, 1999 में बनी थी और इस हिसाब से अगला चुनाव सितंबर-अक्टूबर, 2004 में होना चाहिये था. ये तब की बात है जब बीजेपी को मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा चुनावों में जीत मिली थी और पार्टी इंडिया शाइनिंग के आभामंडल में खोई हुई थी. वाजपेयी सरकार ने करीब छह महीने पहले ही आम चुनाव का रिस्क लिया - और सत्ता गवां बैठी.
2002 में गुजरात के हालात और थे - और 2004 में देश के और. क्या मोदी सरकार वाजपेयी जैसा रिस्क उठाने को तैयार है? मोदी का भाषण सुन कर तो कुछ कुछ ऐसा ही लगने लगा है.
2019 के बाद एक चुनाव
एक स्थिति ऐसी भी बनती है कि एक साथ चुनाव कराये जाने के मकसद से वोटिंग की तारीख कुछ टाल दी जाये. अभी के हिसाब से देखें तो चुनाव 2019 के अप्रैल-मई में होने चाहिये.
"जो ना समझें, वो अनाड़ी हैं..."
फिलहाल बीजेपी की ऐसी पोजीशन है कि देश के 19 राज्यों में वो चुनाव की तारीख आगे पीछे करा सकती है. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा के चुनाव 2019 से पहले होने हैं तो महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड के चुनाव उसके बाद.
किसी सर्वदलीय बैठक में कोई सहमति बने तो चुनावों की कोई ऐसी भी कॉमन तारीख तय हो सकती है.
समय पर चुनाव क्यों नहीं?
सवाल ये है कि ये प्रयोग 2019 में ही क्यों? 2024 में क्यों नहीं? 2019 में सब कुछ आपाधापी में करना होगा, जबकि 2024 के लिए चुनाव आयोग को भी तैयारी का पर्याप्त मौका मिलेगा - और हर चीज को दुरूस्त करने के लिए किसी तरह की जल्दबाजी नहीं होगी.
वैसे फिलहाल समय पर चुनाव क्यों नहीं कराये जा सकते ? यानी जैसे जैसे विधानसभाओं और लोक सभा की मियाद पूरी होती जाये चुनाव करा लिये जायें.
क्या सिर्फ इसलिए कि जिस पार्टी के पास सत्ता है वो ऐसा करना चाहती है? क्या सिर्फ इसलिए क्योंकि सत्ताधारी पार्टी को इसमें अपना फायदा दिखता है?
जाहिर है सरकार के पास मशीनरी होती है और वो चुनाव के लिए विपक्ष से हमेशा बेहतर स्थिति में होती है. उप चुनावों के बारे में भी यही माना जाता है. राजस्थान उपचुनाव के नतीजे भी अपवाद नहीं लगते अगर कारणों को बारीकी से समझने की कोशिश करें.
बेहतर तो यही होता कि जल्दबाजी की बजाय एक साथ चुनाव कराये जाने को लेकर कोई ठोस उपाय होती - और एक बार में न सही, दो बार में ही ऐसा रास्ता खोजा जाता कि सारे चुनाव एक साथ कराये जा सकें.
एक साथ चुनाव कराये जाने के खिलाफ तर्क ये है कि जीतने के बाद एक सी पार्टी को पूरी ताकत हासिल हो जाएगी जिससे उसके निरंकुश होने की संभावना प्रबल है. संविधान में भी ऐसे उपाय इसीलिए किये गये हैं कि हर हाल में लोकतंत्र को कोई खतरा न हो. एक साथ चुनाव के पक्ष में तो सबसे बड़ी दलील यही है कि संसाधनों पर खर्च कम होंगे और विकास के काम सुचारू रूप से चलते रहेंगे. दोनों तर्क अपने अपने हिसाब से सही हैं लेकिन कोई कॉमन रास्ता भी तो खोजा जा सकता है, वैसे भी जनता अब बहुत जागरुक हो चुकी है.
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