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Updated: 01 अगस्त, 2020 05:10 PM
अंकिता जैन
अंकिता जैन
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भारत (India) में पिछली बार 1986 में शिक्षा नीति (Education Policy) में बदलाव हुए थे. उसके बाद 1992 में कुछ छोटे-मोटे बदलाव हुए. अब 34 वर्ष बाद हमारे पास एक नई शिक्षा नीति आई है. ये जो बदलाव हैं, मानती हूं ज़रूरी थे, किन्तु कोई भी नीति, तब कारगर मानी जाती है जब वह पूरी तरह लागू हो जाए, जितना पैसा ख़र्च होने की बात हुई वह वाक़ई उन नीतियों के अनुपालन में ही ख़र्च हो जाएं. अब बात उन बदलावों की कि वे क्या हैं और कितने उचित-अनुचित हैं? नई नीति में हुई केन्द्रीयकरण की बात के लिए कहा जा रहा है कि राज्यों से अधिकार छिन जाएंगे वगैरह-वगैरह. लोग यह अनदेखा कर रहे हैं कि केन्द्रीय नीति, केन्द्रीय शिक्षा प्रणाली ग़रीब के लिए फ़ायदेमंद होती है. इसके उदाहरण हैं, नवोदय विद्यालय, केन्द्रीय विद्यालय, सैनिक विद्यालय. इन विद्यालयों में शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान दिया जाता है, ये सरकारी होते हैं, और उनसे निकले अधिकांश बच्चे जीवन में कुछ कर पाते हैं.

यदि ऐसा ही सभी सरकारी विद्यालयों को बनाया जाए, तो यह एक अच्छा बदलाव होगा. सरकारी विद्यालय उतने ही अच्छे रहेंगे जितने अच्छे उनके शिक्षक रहेंगे. कोई भी विद्यालय सिर्फ पाठ्यक्रम बदलने से अच्छा नहीं बनता. अतः यहां शिक्षकों की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए भी नयी नीति में कुछ बातें हैं. जैसे कि शिक्षकों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम बनाए जाएंगे.

उनके लिए कुछ कार्यप्रणाली पाठ्यक्रम होंगे जहां वे चार वर्ष पूरे करने के बाद ही पढ़ाने जा सकें ताकि वे सीख सकें कि क्या और किस तरह पढ़ाया जाना चाहिए? शिक्षकों पर डाले जाने वाले अतिरिक्त बोझ, जैसे उनकी यहां-वहां लगाई जाने वाली ड्यूटीज़ आदि बंद किए जाएंगे ताकि शिक्षक पूरी मेहनत के साथ पढ़ा सके.

छठवीं कक्षा से वोकेशनल एजुकेशन (व्यावसायिक शिक्षा) की बात कही गई है. मतलब कि, बच्चे की दिलचस्पी समझकर उसकी 'स्किल डेवलपमेंट'. ताकि ग्यारह वर्ष के बच्चा जान सके कि कोर्स की किताबों के अलावा उसकी दिलचस्पी किसमें हैं? कुकिंग में? कोडिंग में? संगीत में? पेंटिंग में? कम्प्यूटर लर्निंग में? या जिसमें भी। पहले यह सब ‘एक्स्ट्रा करिकुलम एक्टिविटी’ मानी जाती थीं. अब ये मुख्य पाठ्यक्रम में जुड़ेंगे. 

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अब तक सरकार जीडीपी का 2.7 प्रतिशत ही शिक्षा विभाग में ख़र्च करती थी. जबकि 1968 से अब तक सरकारों द्वारा कम से कम 6 प्रतिशत ख़र्च करने की बात होती रही है, लेकिन आजतक हो नहीं पाया. अब ऐसा होना तय हुआ है. पहले ;राईट टू एजुकेशन' एक्ट में बच्चे शामिल होते थे, 6 से 14 वर्ष के, अब इसमें 3 से 18 वर्ष तक के बच्चे शामिल होंगे.

यह एक ज़रूरी बदलाव है. इससे वे ग़रीब बच्चे जो 6 वर्ष में पहली बार सरकारी स्कूल में जा पाते थे, अब उन्हें 3 वर्ष की उम्र से ही शिक्षा से जोड़ा जाएगा. जैसे संभ्रांत परिवारों के बच्चे 3 वर्ष में प्री-स्कूल या नर्सरी का हिस्सा बनते हैं उसी तरह.पहले 14 वर्ष के बाद बच्चे पढ़ाई छोड़कर कमाई की चिंता करने लगते थे. बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते थे. अब 18 वर्ष यानि कम से कम बारहवीं तक की उनकी पढ़ाई ज़रूरी हो सकेगी. 

पहले स्तानक शिक्षा में तीन वर्ष की पढ़ाई करनी होती थी. अब वह चार वर्ष का होगा. उसमें फ़ायदे यह होंगे कि यदि पहला साल पढ़कर बच्चा बीच में छोड़ना चाहता है तो उसे एक साल का सर्टिफिकेट मिलेगा, दो साल पूरे करेगा तो डिप्लोमा और तीन वर्ष पूरे करेगा तो डिग्री. चार वर्ष पूरे करना शोध आदि कार्यों में जाने के लिए मान्य होगा. इसमें यदि किन्हीं कारणों से किसी बच्चे की पढ़ाई एक वर्ष बाद छूट जाती है, मान लीजिए किसी लड़की की पढ़ाई किसी वजह से सालभर बाद छूट गई और वह वापस वही कोर्स तीन साल बाद ज्वाइन करना चाहे तो उसे वह एक वर्ष दोबारा नहीं पढ़ना होगा. ऐसा ही डिप्लोमा और डिग्री के लिए भी होगा.

साथ ही अब 'क्रेडिट बेस्ड सिस्टम' होगा. यानि रिज़ल्ट क्रेडिट्स पर आधारित होगा. ऐसे में यदि बीच में एक वर्ष का ड्रॉप लेकर किसी दूसरे कॉलेज से एक वर्ष का कोई कोर्स करना चाहें तो वह भी संभव होगा. उसके क्रेडिट कोर्स में जुड़ेंगे. और विद्यार्थी वापस आकर अपनी डिग्री पूरी कर सकते हैं.

पहले यदि आप स्नातक में हैं तो आपको संबंधित सभी विषय पढ़ने ज़रूरी होते थे. मसलन यदि गणित में हैं तो आपको रसायनशास्त्र और भौतिकी भी पढ़ना होता था. लेकिन अब आप एक मेजर सब्जेक्ट ले सकते हैं, एक माइनर, यानि गणित मेजर में सिर्फ गणित पढ़ें और उसके साथ माइनर में पेंटिंग पढ़ लें, संगीत पढ़ लें, फ़ेशन डिज़ाइनिंग पढ़ लें इतिहास पढ़ लें, राजनीति पढ़ लें.  आप अपनी पसंद से अपना कोम्बिनेशन बना सकते हैं.

अभी 10+2 है, मतलब 10 साल तक सिर्फ किताबें बदलती हैं. बाकि के दो साल में पद्धति भी बदलती है. विषय के चुनाव हो जाते हैं, विभाजन हो जाता है.  अब यही 5+3+3+4 में होगा. यानि हर ब्रेक पर पद्धति भी बदलेगी. यह विभाजन उनकी उम्र, सीखने की क्षमता के अनुसार उनकी कक्षाओं को बांटकर उसी हिसाब से उनका पाठ्यक्रम तैयार करने के लिए किया गया है.

पहले 5 यानि प्री स्कूल के तीन वर्ष और फिर पहली-दूसरी. इसमें जो आंगनबाड़ी होती थीं उनमें अब प्रीस्कूल्स का पाठ्यक्रम रखा जाएगा. एक तरह से आंगनबाड़ी को प्ले-स्कूल बनाया जाएगा. मतलब उनके लिए समर्पित शिक्षक होंगे, ताकि बच्चे वहां खा-पी भी सकें, उनकी देखभाल भी हो सके और उन्हें शिक्षा भी मिल सके. प्राइमरी एजुकेशन पर ज़्यादा फ़ोकस.

यह बदलाव रोट-लर्निंग की मानसिकता को बदलने के लिए ज़रूरी था. अभी तक बस यह सोचा जाता है कि बच्चा दसवीं और बारहवीं बोर्ड में अच्छे नंबर ले आए। अब उनकी पंचमुखी शिक्षा पर ध्यान दिया जाएगा. उसी हिसाब से सिलेबस तैयार किए जाएं. बच्चे की जो शिक्षा हो उसमें रट्टामार पढ़ाई की जगह उसकी प्रेक्टिकल नॉलेज पर ज़्यादा ध्यान दिया जाए.

अब इस बात पर फ़ोकस किया जाएगा कि बच्चे का जो रिपोर्ट कार्ड आए उसे देखकर यह पता लगे कि बच्चे ने सालभर क्या किया? उनके रिपोर्ट कार्ड में सब शामिल होगा. बस यह देखना होगा कि असल में ये कैसे लागू करेंगे. अब सरकारी स्कूल्स में भी एक कैम्पस बनाकर पढ़ाई होगी. मतलब वहीं आंगनबाड़ी, वहीं प्राइमरी, वहीं मिडिल, वहीं हाई स्कूल्स, वहीं प्रौड़ शिक्षा केंद्र भी होगा. इससे सभी शिक्षक एक दूसरे से जुड़ सकेंगे और रिसोर्सेस का भी बेहतर इस्तेमाल हो सकेगा.

कॉलेज एफिलिएशन सिस्टम को अगले पंद्रह वर्षों में ख़त्म किया जा रहा ताक़ि हर कॉलेज या तो ऑटोमस से डिग्री दे या किसी विश्वविद्यालय का ही कॉलेज हो जैसे दिल्ली यूनिवर्सिटी के कई कॉलेज हैं.अभी हर स्कूल, कोलेज अपना ग्रेडिंग सिस्टम चलाते हैं. उसे भी यूनिवर्सल किया जाएगा.सभी को एक ही पद्धति से नंबर देने होंगे. कानूनी और मेडिकल को छोड़कर देश के सभी सरकारी व प्राइवेट उच्च शिक्षा संस्थानों में दाख़िले के लिए एक कॉमन प्रवेश परीक्षा होगी.  जैसे अमेरिका में SAT होती है. 

विदेश शिक्षा संस्थान भी अब भारत में कैम्पस लगा सकेंगे. नयी नीति कहती है, 'जहां तक संभव होगा मातृभाषा में ही प्राइमरी में या उसके आगे भी पढ़ाया जाएगा. मातृभाषा में प्राइमरी शिक्षा क्यों ज़रूरी है? क्योंकि भारत में 60 से 70 प्रतिशत बच्चे सरकारी विद्यालयों में पढ़ते हैं. उन्हें अंग्रेजी मीडियम स्कूल नहीं मिल पाते. लेकिन उन्हें जो सिलेबस मिलता है वह वही घिसा-पिटा.

अब उनके लिए सरकारी विद्यालयों में ही उन्हीं की भाषा में बेहतर कम्पटीटिव सिलेबस पढ़ाया जाए ताकि उन्हें आधारभूत ज्ञान मिल सके. वे सिर्फ भाषा की वजह से कहीं मात ना खाएं. कुल मिलाकर पॉलिसी बहुत अच्छी है. स्वागत है. बस कितना लागू हो पाती है उसी पर इसकी और सरकार की सफ़लता निर्भर है.

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