मायावती की हार : दलितों ने ठगा महसूस किया और मुस्लिमों को यकीन न हुआ
मायावती कह रही हैं कि बीजेपी ने ईवीएम में गड़बड़ी करके चुनाव जीत लिया. अगर ऐसा था तो बीजेपी पंजाब में क्यों नहीं कर पायी? गजब कह रही हैं, अब तो समझ जाइए.
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आस पास चापलूसों की भरमार हो तो कभी कभी दुश्मनों की भी सुन लेनी चाहिये. मालूम नहीं मायावती ऐसी बातों में यकीन रखती हैं या नहीं. पूरे चुनाव में अखिलेश यादव लोगों को पत्थरों के किस्से सुनाते रहे - "जो हाथी बैठे हैं वे खड़े नहीं हुए और जो खड़ें हैं वे..." कोई बताये तो मायावती कह सकती हैं कि अखिलेश ही कौन तीर मार लिये?
नेता पार्टी छोड़ कर जाते रहे, टिकट बेचने जैसे गंभीर आरोप लगाते रहे और रैलियों में भीड़ भी आती रही - लेकिन मायावती ने खुद के आगे किसी की न सुनीं. मायावती जैसा समर्पित सपोर्ट बेस शायद ही किसी नेता का हो जो ऊपर से लेकर ग्रासरूट लेवल पर जातीय समीकरणों में भी पूरी तरह फिट बैठता हो. मायावती ने उसे गंवा दिया है, अभी तो ऐसा ही लगता है.
क्या दलितों ने दगा दे दिया?
यूपी में गठबंधन को लेकर मायावती कांग्रेस की पहली पसंद रहीं, लेकिन उनकी जिद के चलते बात नहीं बन सकी. दरअसल, मायावती ने तय कर रखा था कि किसी भी सूरत में वो चुनाव पूर्व गठबंधन नहीं करेंगी. हां, चुनाव नतीजों के बाद की बात और है. खैर, नतीजों के बाद तो कुछ बचा भी नहीं. दरअसल, मायावती को अपने दलित वोट बैंक पर हद से ज्यादा भरोसा रहा और ब्राह्मणों से मोहभंग के बाद मुस्लिम समुदाय के सपोर्ट की पूरी उम्मीद थी, लेकिन सब कुछ उल्टा-पुल्टा हो गया.
मायावती को अपने दलितों पर उतना ही भरोसा था जितना समाजवादी पार्टी के लिए यादव वोटों पर किया जा सकता है. वैसे मायावती को ये भरोसा यूं ही नहीं बना था. पिछले चुनावों को देखें तो मायावती किसी भी जाति या धर्म के उम्मीदवार को अपने हिस्से का वोट दिला पाने में सक्षम रही हैं, जबकि दूसरी पार्टियों के नेताओं के लिए ये टेढ़ी खीर साबित होती है. समाजवादी गठबंधन के मामले में भी यही हाल रहा.
आखिर दलितों के इतना नाराज होने की वजह क्या रही होगी?
मायावती का मुख्यमंत्री बन जाना या हेलीकॉप्टर से उड़ना ही बीएसपी समर्थकों के लिए बड़ी बात होती है, ऐसा लगता जैसे वो खुद उस बात को एंजॉय कर रहे हों. जब भी सहानुभूति बटोरनी होती मायावती को बस इतना भर कहना होता - ये सब उनके दलित की बेटी होने की वजह से हो रहा है. बेटी होने की बात तो इस बार भी मायावती ने कही - लेकिन दलित नहीं बल्कि यूपी की बेटी कहा. ये बात मायावती ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गोद लिये बेटे वाली बात पर उन्होंने कही.
कोई तिकड़म काम न आया...
क्या टिकट बंटवारे में दलितों को कम जगह दिया जाना भी उनकी नाराजगी की वजह बना?
ये तो साफ तौर पर नजर आया कि मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने में मायावती इस कदर जुटी रहीं कि दलितों की नाराजगी बढ़ती गयी और उन्हें इस बात का एहसास तक न हो सका. पहले सवर्ण और उसके बाद मुस्लिमों पर मायावती की हद से ज्यादा मेहरबानी, हो सकता है ये सब दलितों को नागवार गुजरा हो.
आंकड़े भी दलितों के नाराज होने को गलत नहीं मानते. धीरे धीरे ये तो साफ हो ही गया कि मायावती की बीएसपी वो पार्टी नहीं रही जिसकी नींव कांशीराम ने रखी थी या फिर जैसा सपना उन्होंने देखा था. टिकटों के मामले में भी दलितों को मायावती की दिलचस्पी कम दिखी क्योंकि मुस्लिम, ओबीसी और सवर्ण वोटों से भी कम दलितों को बीएसपी ने टिकट दिये.
वैसे तो हर बार की तरह इस बार भी बीएसपी उम्मीदवारों की सूची में मायावती आखिरी वक्त तक हेर फेर करती रहीं, लेकिन जो फाइनल सूची बनी थी उसमें यूपी की 403 सीटों के लिए मायावती ने 97 मुस्लिम, 106 ओबीसी, 113 सवर्ण उम्मीदवार खड़े किये जबकि दलितों की संख्या महज 87 रही. इस सूची में कभी अंसारी बंधुओं के लिए तो कभी समाजवादी पार्टी छोड़ कर आये अंबिका चौधरी और नारद राय जैसे नेताओं को टिकट देने के लिए लगातार फेरबदल होती रही, लिहाजा पहले से काम कर रहे और उम्मीद लगाये उम्मीदवारों को मजबूरन कुर्बानी देनी पड़ी जिनमें दलित भी शामिल रहे.
मुस्लिम समुदाय को यकीन न हुआ
मायावती ने मुस्लिम समुदाय को करीब लाने के लिए हर तरकीब आजमायी. मायावती ने उन्हें अयोध्या कांड से लेकर मुजफ्फरनगर दंगों की याद दिला कर डराने की कोशिश की तो ये भी समझाया कि वो समाजवादी पार्टी को वोट देकर उसे बर्बाद न करें. इसके लिए मायावती लगातार मुलायम परिवार में झगड़े की ओर ध्यान दिलाती रहीं.
लेकिन झगड़े से उबरते ही अखिलेश यादव ने बीएसपी नेता पर हमले तेज कर दिये. अखिलेश उन्हें बुआ कह कर बुलाते और उनकी सरकार को पत्थर वाली सरकार कह कर अक्सर मजाक उड़ाते.
बाद के दिनों में तो अखिलेश ये बताना नहीं भूलते कि चुनाव जीतने के बाद बुआ कब बीजेपी नेताओं से राखी बंधवा लें कोई ठिकाना नहीं. बीजेपी के साथ सरकार बना चुकीं मायावती को अखिलेश की इस बात पर रक्षात्मक रुख अपनाना पड़ा. हालांकि, एग्जिट पोल के बाद साफ हो गया कि अखिलेश को भी अब मायावती से परहेज नहीं रहा.
मायावती के लिए न तो पश्चिम यूपी में नसीमुद्दीन सिद्दीकी की भाईचारा मीटिंग काम आई और न ही पूर्वी उत्तर प्रदेश में अंसारी बंधुओं को सुधारने देने वाली जोरदार आवभगत.
सफाई देती रहीं, मगर...
जब बीजेपी के साथ चले जाने का मामला तूल पकड़ा तो मायावती को कहना पड़ा कि बहुमत न मिलने की हालत में वो बीजेपी से हाथ मिलाने की जगह विपक्ष में बैठना पसंद करेंगी. मायावती के इस बयान को भी विरोधियों ने उनके आत्मविश्वास की कमी बताकर प्रचारित कर दिया.
शुरू शुरू में ही जब मायावती रैली के लिए आगरा पहुंची तो उन्हें सवर्णों को लेकर सफाई देनी पड़ी. मायावती की रैली से ठीक पहले बीजेपी नेता वेंकैया नायडू ने बीएसपी के चर्चित स्लोगन - 'तिलक तराजू और तलवार...' का जिक्र कर विवादों को हवा दे दी. मायावती को आगरा के बाद भी कई जगह इस मुद्दे पर सफाई देती रहीं. 2007 में अपने सफल सोशल इंजीनियरिंग के सहारे जब मायावती ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी तो उसमें 139 सीटों पर सवर्णों को टिकट दिया था. मायावती ने इस बार जिन 113 सवर्णों को टिकट दिये उनमें 66 ब्राह्मण, 36 क्षत्रिय और 11 कायस्थ और वैश्य रहे.
2007 में दलित-ब्राह्मण गठजोड़ के सोशल इंजीनियर और इस बार नये एक्सपेरिमेंट के सूत्रधार बने सतीश चंद्र मिश्रा ने एक इंटरव्यू में कहा था, "देखते जाइए 'मुस्लिम और दलित' प्रदेश में नई राजनीतिक इबारत लिखने की राह पर निकल चुका है."
ऐसा भी नहीं कि ये इबारत लिखी ही नहीं गयी. शुरुआत तो ठीक ठाक ही रही - लगता है आगे चल कर पटरी से तो उतरी ही राह भी भटक गयी. वैसे सहारनपुर की सभा में मायावती ने डैमेज कंट्रोल की कोशिश जरूर की थी - लेकिन लगता है न तो दलितों और न ही मुस्लिमों ने - किसी ने भी मायावती की बात पर भरोसा किया - मायावती ने कहा था कि अगर कोई ऐसी स्थिति बनी जब उन्हें प्रधानमंत्री बनना पड़ा तो उनका उत्तराधिकारी या तो दलित होगा या फिर कोई मुस्लिम नेता.
ये तो साफ हो गया कि मुस्लिम समुदाय को मायावती पर यकीन नहीं हुआ, लेकिन अब इसमें भी कोई दो राय नहीं कि दलित समुदाय का मायावती से मोहभंग हो रहा है.
मोहभंग हो भी क्यों न? हाल के दिनों में बीएसपी ने दलितों के लिए आगे बढ़ कर कौन सी लड़ाई लड़ी है भला? प्रेस कांफ्रेंस बुला कर लिखा हुआ भाषण पढ़ देना और संसद में जारी शोर के बीच में एक और बयान जोड़ देने से दलितों का आखिर कितना हित होनेवाला है. मायावती को लेकर दया शंकर सिंह के बयान पर बीएसपी ने लखनऊ में जितना बवाल किया, क्या दलितों के किसी और मसले पर बीएसपी नेताओं ने ऐसा किया क्या?
दलितों ने 2012 में मायावती को नकार दिया. 2014 में घास नहीं डाली - और अब 2017 में उनकी झोली में कुछ फुटकर डाल कर दरवाजा बंद कर लिया. मायावती के लिए दलितों की ओर से इससे बड़ा सबक नहीं हो सकता, बशर्ते उन्हें समझ में भी आये. अब मायावती कह रही हैं कि बीजेपी ने ईवीएम में गड़बड़ी करके चुनाव जीत लिया. अगर ऐसा था तो बीजेपी पंजाब में क्यों नहीं कर पायी? मायावती समझाना चाहती हैं कि वहां उसकी चली नहीं. गजब कह रही हैं, अब तो समझ जाइए. जमाना आगे निकल चुका है, दलित समाज भी जागरुक हो चुका है.
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