अंबेडकर बस बहाना हैं, असली मकसद तो दलितों को रिझाना है...
सियासत में शब्दों की कारीगरी और बाजीगरी का वोटबैंक से करीबी का रिश्ता होता है. यही वजह है कि अंबेडकर की आड़ में दलित वोटबैंक को साधने की कोशिश हो रही है. 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में दलितों की आबादी तकरीबन 20.14 करोड़ है. जाहिर है ये किसी भी राजनीतिक दल का भाग्य विधाता बन सकते हैं.
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राजनीति मौके की मोहताज होती है. वह भरोसा पैदा नहीं करती सिर्फ मौका देती है. डॉ भीम राव अंबेडकर की 125 वीं जयंती ने कुछ इसी तरह का मौका उन सियासी दलों को थमाया है, जिनका कभी भी अंबेडकर की विचारधारा और मूल्यों से वास्ता नहीं रहा. लेकिन कहते हैं न कि भिखारी की दृष्टि प्रसाद पर होती है न कि भगवान की मूरत पर.
कुछ ऐसा ही हाल उन सियासी दलों का भी है जिनकी दृष्टि अंबेडकर के बहाने उनके अनुयायिओं पर है जिनके वोटबैंक के भरोसे सत्ता के सिरहाने तक पहुंचने को वे लालायित हैं. अन्यथा यों ही नहीं देश के प्रधानमंत्री को अंबेडकर की जन्मस्थली महू जाकर कहना पड़ता कि वह अंबेडकर की वजह से देश का प्रधानमंत्री बन पाए. यह भी अकारण नहीं कि डॉ लोहिया की माला जपने वाली समाजवादी पार्टी को अचानक अंबेडकर याद आ गए और वह अपने केंचुल से बाहर निकलकर अंबेडकर को समाजवाद के फ्रेम में फिट करने में जुट गयी.
बीजेपी का दलित प्रेम |
घंटे-आधे घंटे के लिए अंबेडकरवादी बने इन सियासी दलों से पूछा जाना चाहिए कि उन्हें अंबेडकर की याद चुनाव के दरम्यान ही क्यों आती है? अगर अंबेडकर के प्रति उनकी इतनी ही निष्काम निष्ठा भक्ति रही तो फिर आजादी के साढ़े छह दशक बाद भी उनके सपने को धरातल पर क्यों नहीं उतारा गया?
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जाति के घरौंदे को तोड़कर समतामूलक समाज की स्थापना क्यों नहीं की गयी? क्या एक समाज को जातिविहिन होने के लिए साढ़े छह दशक से भी अधिक का कालखंड चाहिए? लेकिन यह तमाशा है कि जो लोग अंबेडकर की आड़ में दलित हितैषी होने का स्वांग रच रहे हैं. असल में जिम्मेदार भी वहीं हैं जिन्होंने जातियों के कंधे पर सवार होकर सत्ता के माथे को चूमा है.
दरअसल, सियासत में शब्दों की कारीगरी और बाजीगरी का वोटबैंक से करीबी का रिश्ता होता है. यही वजह है कि अंबेडकर की आड़ में दलित वोटबैंक को साधने की कोशिश हो रही है. आंकड़ों में जाएं तो 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में दलितों की आबादी तकरीबन 20.14 करोड़ है. 20 करोड़ की आबादी वाले सदस्य किसी भी राजनीतिक दल का भाग्य विधाता बन सकते हैं.
गौर करें तो 2016 और 2017 में जिन राज्यों में चुनाव होना है (कुछ में हो रहा है) उनमें उत्तर प्रदेश, पंजाब, असम, केरल, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल विशेष रुप से महत्वपूर्ण हैं. आंकड़ों के मुताबिक उत्तर प्रदेश विधानसभा की कुल 403 सीटों में 85, पंजाब की 117 में 34, पश्चिम बंगाल की 294 में 68, तमिलनाडु की 234 में 44 और केरल में 140 में 14 सीटें दलित वर्ग के लिए आरक्षित हैं
इसके अलावा इन सभी राज्यों में सभी सीटों पर दलित मतदाताओं की तादाद 10 से 15 फीसदी है. उत्तर प्रदेश और पंजाब में तो दलित निर्णायक भूमिका में हैं. यही वजह है कि भाजपा, कांग्रेस, अकाली और समाजवादी पार्टी को अंबेडकर कुछ ज्यादा ही रास आ रहे हैं.
उत्तर प्रदेश में दलितों की आबादी 20.5 फीसद है. इस राज्य की जाति की ब्ल्यू प्रिंट पर नजर डालें तो यहां 49 जिले ऐसे हैं जहां दलित मतदाताओं की तादाद सर्वाधिक है. कुछ जिलों को छोड़कर शेष जिलों में दलित दूसरा सबसे बड़ा वोटबैंक हैं. यहां दलित जाति का खेल सभी खेलते हैं पर दलित वोटबैंक को सबसे अधिक बसपा ने साधा है.
यही वजह है कि भाजपा और कांग्रेस के खेमे में खलबली है और वे अंबेडकर नाम की गुहार लगाकर दलितों को रिझाने पर आमादा हैं. उत्तर प्रदेश की राजनीतिक परिस्थितियों पर गौर करें तो यहां भाजपा और कांग्रेस दोनों हाशिए पर हैं. राज्य में भाजपा का मत प्रतिशत लगातार गिरता जा रहा है.
1996 के विधानसभा चुनाव में उसने 32.52 फीसद वोट के साथ कुल 172 सीटों पर विजय हासिल की. लेकिन 2002 के विधानसभा चुनाव में वह 88 सीटों पर सिकुड़ गयी और उसे सिर्फ 20.08 फीसद मत प्राप्त हुआ. 2007 के विधानसभा चुनाव में उसकी स्थिति पहले से भी बदतर हो गयी. उसे 16.97 फीसद मत हासिल हुआ. 2007 के विधानसभा चुनाव में उसका मत प्रतिशत गिरकर 16.97 फीसद पर आ गया और कुल 51 सीटों पर जीत मिली. 2012 विधानसभा चुनाव पर गौर करें तो उसकी झोली में 47 सीटें आयी और 15 फीसद मत प्राप्त हुआ. भाजपा को सत्ता तक पहुंचने के लिए कम से कम 30 फीसद मत प्राप्त करना होगा और यह दलितों को लामबंद किए बिना संभव नहीं है.
दलित प्रेम दर्शाने में कांग्रेस भी पीछे नहीं |
कांग्रेस की बात करें तो 1991 से पहले दलित वर्ग उसका परंपरागत वोट बैंक था. लेकिन आज वह बसपा के पाले में है. आंकड़ों पर जाएं तो 1980 में कांग्रेस को कुल 37.65 फीसद मत मिले जबकि 2012 में पार्टी 13.26 फीसद पर सिकुड़ गयी है. उत्तर प्रदेश की तरह पंजाब में भी अंबेडकर को हथियाने की कोशिश तेज है.
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पंजाब में दलित मतदाताओं की तादाद तकरीबन 32 फीसद है. जालंधर होशियारपुर, लुधियाना व नवाशहर में उनकी बहुलता है. नवाशहर कांशीराम की जन्मस्थली है और उन्होंने यहीं से दलित राजनीति की शुरुआत की. पंजाब की 117 सीटों में 42 सीटें ऐसी हैं जिनपर दलित वोटबैंक निर्णायक स्थिति में है. यहीं कारण है कि भाजपा, कांग्रेस और अकालियों के बीच अंबेडकर को अपना बनाने की होड़ मची है. भाजपा ने तो दलित वोटबैंक को बटोरने के लिए पंजाब की कमान दलित वर्ग के विजय सांपला को सौंप दी है.
अब देखना दिलचस्प होगा कि सियासी दल बाबा साहेब अंबेडकर की गुहार लगाकर दलितों को लुभा पाने में कितना सफल होते हैं.
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