एकसाथ चुनाव कराने की जरूरत
गत दिनों राज्यसभा में भारतीय राजनीति में चुनाव सुधार से जुड़े विविध पहलुओं पर व्यापक रूप से चर्चा हुई. पक्ष-विपक्ष दोनों तरफ से तमाम विचार आए.
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गत दिनों राज्यसभा में भारतीय राजनीति में चुनाव सुधार से जुड़े विविध पहलुओं पर व्यापक रूप से चर्चा हुई. पक्ष-विपक्ष दोनों तरफ से तमाम विचार आए. इसमें कोई दो राय नहीं कि भारतीय लोकतंत्र का विकास परंपरागत तौर पर तमाम सुधारों के माध्यम से हुआ है. अनेक बार अलग-अलग मसलों पर सुधार की आवश्यकता महसूस की गयी है और उन सुधारों को अमल में लाया गया है.
अब एक बार फिर चुनाव सुधार को लेकर व्यापक स्तर पर बहस चल रही है. मेरा ऐसा मानना है और मैंने बहस के दौरान राज्यसभा में अपना पक्ष रखते हुए कहा भी कि चुनाव सुधार की दिशा में सबसे बड़ी सफलता लोकसभा एवं विधानसभा के चुनाव एकसाथ कराकर हासिल हो सकती है.
इस विषय पर आम सहमति से अगर ऐसा हो पाता है तो यह भारतीय लोकतंत्र के लिए बड़ा उपयोगी कदम सिद्ध होगा. वर्तमान स्थिति में अगर देखें तो देश हमेशा ही चुनावों के दौर में रहता है. एक चुनाव खत्म हुआ नहीं कि दूसरा चुनाव शुरू हो जाता है. हर वर्ष देश के अलग-अलग राज्यों में चुनावों का दौर भी चलता रहता है. हालांकि लोकतंत्र में सरकार के गठन और जनादेश को हासिल करने के लिए चुनाव कीपद्धति ही सर्वाधिक आदर्श प्रक्रिया के रूप में सर्वसम्मति से स्वीकार की गयी है. लेकिन इसका एक दूसरा पहलू यह भी है कि अत्यधिक चुनावों के दौर में रहने का असर सरकार के कामकाज पर भी पड़ता है.
चूंकि आदर्श आचार संहिता लागू होने के बाद विकास के तमाम कार्य बाधित होते हैं. ऐसे में अगर अनुमानित तौर पर देखा जाए तो केंद्र एवं राज्यों की सरकारों के कार्यकाल का बड़ा हिस्सा आचार संहिता की वजह से प्रभावित होता है. राजनीति ऐसी हो जो निर्बाध रूप से जन कल्याण की नीतियों को शासन के माध्यम से संचालित करे.
अत: आचार संहिता की बाधाओं को न्यूनतम करने के लिहाज से भी एक साथ चुनाव कराना सही प्रतीत होता है. अगर हम लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एकसाथ करा पाने में सफल होते हैं तो इससे चुनावी खर्चे का बोझ भी कम होगा. वर्तमान में चुनावों के दौरान खर्चे की अधिकता एवं खर्चे के बोझ का प्रश्न भी अकसर उठता रहता है.
ऐसे में चुनाव सुधार के लक्ष्य को व्यापक संदर्भों में भी देखें तो एकसाथ चुनाव कराने के फायदे नजर आते हैं. चुनाव को लेकर हमे समझना होगा कि चुनाव ‘उद्देश्य’ नहीं है बल्कि यह जनादेश हासिल करने का लोकतांत्रिक माध्यम है. अब सवाल है कि आखिर ‘उद्देश्य’ क्या है ? अगर इस सवाल पर विचार करें तो निर्विवाद रूप से एक तथ्य उभरता है कि चुनाव के माध्यम से मिले जनादेश के बाद गठित सरकारें अपनी नीतियों से लोक कल्याण की योजनाओं को धरातल तक अधिक से अधिक पहुंचाए, ये उद्देश्य है.
सरकार का अधिक से अधिक समय लोक कल्याण को समर्पित योजनाओं, नीतियों की दिशा में खर्च हो. इस उद्देश्य को प्राप्त करने की दिशा में जब हम सोचते हैं तो सबसे पहला विचार यह आता है कि एकसाथ चुनाव कराने से इस उद्देश्य को हासिल करने में काफी मदद मिल सकती है. भारतीय जनता पार्टी राजनीति के आंतरिक सुधारों के प्रति सदैव एक कदम आगे बढ़कर चलने में विश्वास रखती है.
यही वजह है कि माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी एवं माननीय वित्तमंत्री श्री अरुण जेटली जी ने राजनीतिक दलों के चंदे में पारदर्शिता को कायम करने के लिए 2 हजार से ज्यादा की राशि नकद नहीं लिए जाने का प्रावधान किया है. पहले यह छूट 20 हजार तक सीमा थी. हम राजनीति में जन कल्याण के उद्देश्यों को लेकर चलते हैं और इस दिशा में हर कदम उठाने के लिए तत्पर हैं.
राजनीतिक दल जबतक खुद को पूर्ण मनोभाव से सुधारों के प्रति सज्ज नहीं करेंगे तबतक बुनियादी परिवर्तन को जमीन पर उतार पाना संभव नहीं होगा. ऐसे सुधारों के लिए किसी एक दल अथवा एक व्यक्ति द्वारा शुरुआत करना सराहनीय जरुर हो सकता है, लेकिन पर्याप्त नहीं हो सकता. इसके लिए सभी दलों के लोगों को संकल्प लेते हुआ आगे आना पड़ेगा. यह महज कानूनी सुधार नहीं है बल्कि यह एक व्यवहारिक प्रक्रिया का भी मसला है.
हमारे देश की जनता द्वारा चुनी गयी सरकारें जनताके प्रति अधिक से अधिक समर्पित भाव से समय देकर काम कर सकें इसके लिए यह बेहद जरूरी है. आज केंद्र में भाजपा-नीत सरकार है और इस सरकार के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी खुद ऐसे सुधारों के पक्षधर हैं, अत: राजनीतिक सुधारों के लिए यह बेहद अनुकूल समय चल रहा है. हम विश्वास कर सकते हैं कि इस सरकार में चुनाव सुधार की दिशा में व्यापक स्तर पर परिवर्तन देखने को मिलेंगे.
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