यूपी की सियासत में ओवैसी-केजरीवाल जैसे नेताओं की अहमियत...
उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव (UP Assembly Elections )आने में भले ही अभी वक़्त हो मगर जैसे ओवैसी (Asaduddin Owaisi) और अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) समेत अन्य छोटे बड़े दल यूपी का रुख कर रहे हैं सियासी पंडितों का अनुमान यही है कि भाजपा को थोड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है.
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जलाशय में खरपतवार बिन बुलाए मेहमान की तरह आती है. ये किसी काम की नहीं, और हानिकारक भी है. यूपी के सियासी तालाब में भी अचानक खरपतवार पैदा होती जा रही है. ये किसी काम की नहीं या किसी के काम की है? सवाल दिलचस्प है.यदि ये किसी को हानि पहुंचाएगी तो जाहिर सी बात है कि किसी के लिए फायदेमंद भी होगी. Aam Aadmi Party और AIMIM चीफ Asaduddin Owaisi ओवैसी की यूपी में भी एंट्री देश की करवट लेती राजनीति का एक आईना है. उत्तर प्रदेश देश की सियासत की प्रयोगशाला है. जब देश में कांग्रेस का वर्चस्व था तो यूपी में दशकों कांग्रेस जमी रही. देश से कांग्रेस का डाउन फॉल हुआ तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस सत्ता का मुंह देखने को तरस गई. करीब तीन दशक से यहां क्षेत्रीय दलों और भाजपा ने बारी-बारी सत्ता का मज़ा चखा. लगभग तीस बरस बाद अब लोकतांत्रिक भारत की तीसरी पीढ़ी शायद सियासत का नया चेहरा देखेगी. BJP और Congress के बाद क्षेत्रीय दलों का Third Front बन चुका है और सत्ता भी हासिल कर चुका है. अब यूपी की सियासी प्रयोगशाला में चौथे मोर्चे की केमिस्ट्री तैयार हो रही है.
एआईएमआईएम चीफ असदउद्दीन ओवेसी के संग सुभासपा, प्रसपा और अन्य छोटे दलों की एकजुटता की कवायद और आम आदमी पार्टी की सटपटाहट कुछ ना कुछ रंग दिखा सकती है. बिना किसी मजबूत संगठन के अपने-अपने छोटे-छोटे घरों से निकलकर दूसरों के बड़े-बड़े महलों में कदम ताल करने वाली ये सियासी ताकतें यूपी के सियासी तालाब का खरपतवार बन के कमल को घेरेंगे या इसका सुरक्षा कवच बनेंगे ये एक बड़ी जिज्ञासा है.
नए नए दलों के प्रवेश के कारण उत्तर प्रदेश का सियासी रण दिलचस्प होने वाला है
यूपी में ओवेसी और विभिन्न जातियों के छोटे-छोटे दलों का मोर्चा क्या बसपा गठबंधन का हिस्सा बनेगा? क्या आम आदमी पार्टी यूपी चर्चा और खर्चा के बाद सपा गठबंधन से तीस-पैतीस सीटों के लिए पर्चा भरेगी? ये जिज्ञासा भी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव रण के शंखनाद के दिन गिन रही है. फिलहाल अभी उत्तर प्रदेश में सपा, बसपा और कांग्रेस जैसे विपक्षी दलों के स्पेस पर ओवेसी, आप और अन्य छोटे दलों ने अतिक्रमण करना शुरू कर दिया है. यूपी की राजनीति में दमखम के साथ दाखिल हो रहे ये नए सियासी अवतार भाजपा के कमल को मुरझाने का काम करेंगे या खाद-पानी देकर इसकी ताकत बढ़ाएंगे?
अलग-अलग संभावनाएं और कयासों की बात की जाए तो कांग्रेस कमजोर और अलग-थलग दिख रही है. बसपा यदि ओवेसी को साथ लेने के जोखिम में सफल होती है तो ये प्रयोग भारतीय सियासत को एक नई दिशा दे सकता है. यूपी में दलित-मुस्लिम समाज एकजुट हो गया तो ये भाजपा के लिए तो घातक होगा ही समाजवादी पार्टी और कांग्रेस भी धराशायी हो जाएगी. हालांकि ऐसी संभावनाएं इसलिए कम हैं क्योंकि चुनाव में बसपा सुप्रीमों द्वारा अधिक मुस्लिम उम्मीदवार उतारने का बुरा अंजाम हुए.
भाजपा द्वारा दलित समाज को ये समझाना और भी आसान हो गया था कि बसपा में मुस्लिम तुष्टिकरण का बोलबाला है. सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव बयान दे चुके हैं कि वो बड़े दलों से गठबंधन नहीं करेंगे. यदि सपा ने आम आदमी पार्टी के लिए तीस-पैतीस सीटें छोड़ दीं तो ये कैमिस्ट्री भाजपा के लिए खतरा बन सकती है. क्योंकि फ्री बिजली और बेहतर स्कूल का दिल्ली मॉडल जनता को प्रभावित कर रहा है.
भाजपा से नाराज शहरी वोटर आप को विकल्प के तौर पर स्वीकार कर सकता है. यूपी के विधानसभा चुनाव से करीब एक वर्ष पहले इन तमाम कयासों और संभावनाओं में ये तो तय है कि करीब तीस वर्ष पुराना यूपी का पारंपरिक पैटर्न बदलता दिख रहा है.
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