नड्डा का एक्सटेंशन उनके प्रति मोदी-शाह के भरोसे की कमी का संकेत है
जेपी नड्डा (JP Nadda) को एक और कार्यकाल काम करने (BJP President) का मौका भी दिया जा सकता था, लेकिन मोदी-शाह (Modi-Shah) की नेतृत्व वाली बीजेपी कार्यकारिणी ने सिर्फ साल भर का एक्सटेंशन मिला है - आगे सब इस बात पर निर्भर करता है कि 10 में से कितने मार्क्स मिलते है?
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जेपी नड्डा (JP Nadda) से ऐसी क्या गुस्ताखी हो गयी थी, जो उनको एक छोटा सा एक्सटेंशन दिया गया? अगले आम चुनाव के नतीजे आने तक. 2024 के चुनाव नतीजे मई तक आ जाएंगे - और जेपी नड्डा उसके महीने भर बाद यानी जून, 2024 तक बीजेपी अध्यक्ष बने रहेंगे.
नड्डा को ऐसे एक्सटेंशन दिया गया है, जैसे कोई कंडीशन लगा दी गयी हो. अगर 2023 में होने वाले नौ राज्यों और 2024 के आम चुनाव के नतीजे संतोषजनक रहे, तो फिर से आगे के लिए भी विचार किया जा सकता है. नहीं तो? नहीं तो, समझदार को इशारा काफी होता है.
फर्ज कीजिये, जेपी नड्डा का कार्यकाल 2022 में खत्म हुआ होता, तो भी क्या उनको ये एक्सटेंशन मिला होता? 2022 की शुरुआत में देश भर में पांच राज्यों के विधानसभाओं के चुनाव हुए थे, और आखिर में गुजरात और हिमाचल प्रदेश के. सात राज्यों में से पांच में बीजेपी सरकार बनाने में सफल रही है. पंजाब में तो स्कोप भी कम था - और हिमाचल प्रदेश में हार और जीत में मजह 0.9 फीसदी वोट शेयर का फर्क रहा.
ये सब ऐसे भी समझ सकते हैं, अगर अभी से अगले एक साल तक लगातार चुनाव नहीं होने होते तो जेपी नड्डा को एक्सटेंशन नहीं भी मिल सकता था. जेपी नड्डा पर सबसे बड़ी जिम्मेदारी 2024 के आम चुनाव की है. ये पहला मौका होगा जब बीजेपी जेपी नड्डा के नेतृत्व में लोक सभा का चुनाव लड़ेगी. 2014 का चुनाव राजनाथ सिंह की अध्यक्षता में लड़ा गया, जबकि 2019 का अमित शाह के नेतृत्व में - हालांकि, अमित शाह बीजेपी अध्यक्ष के तौर पर दो कार्यकाल पूरे किये थे.
सवाल ये है कि क्या जेपी नड्डा को भी अमित शाह की तरह दूसरे पूरे कार्यकाल के लिए बीजेपी का अध्यक्ष (BJP President) नहीं बनाया जा सकता था?
ऐसा होने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय मंत्री अमित शाह की मंजूरी जरूरी रही होगी. निश्चित तौर पर ये फैसला बीजेपी की कार्यकारिणी का है, और कार्यकारिणी ने भी तो मोदी-शाह (Modi-Shah) के मन की बात समझ कर ही फैसला लिया होगा - फिर तो ये समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है कि जेपी नड्डा ने देश के दो ताकतवर नेताओं के बीच खुद को फिट कर लिया है, लेकिन पूरी तरह भरोसा नहीं जीत पाये हैं.
ऐसा तो रिटायरमेंट के बाद मिलता है!
दिल्ली में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के दौरान जेपी नड्डा के नाम का प्रस्ताव, एक्सटेंशन देने के मकसद से, पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने रखा था - और फिर सभी ने ताली बजाकर अनुमोदन कर दिया.
नड्डा का नया कार्यकाल पुराने से ज्यादा चुनौतीपूर्ण है
हर फैसले के पीछे कोई दलील जरूर रखी जाती है, जेपी नड्डा को एक्सटेंशन दिये जाने के पीछे बूथ से लेकर ऊपर के लेवल तक कई टास्क पूरे न हो पाना बताया गया है. ये भी बताया गया है कि कोरोना महामारी की वजह से ये टास्क पूरे नहीं हो पाये थे. फिर तो टास्क पूरा होने तक जेपी नड्डा का बीजेपी अध्यक्ष बने रहना जूरूरी हो जाता है.
बीजेपी की तरफ से ये बड़ी घोषणा रही, लिहाजा मीडिया के सामने सीनियर नेता अमित शाह खुद आये. गुजरात में नड्डा के काम की तारीफ करते हुए बोले, 'हमें मोदी जी के करिश्माई नेतृत्व में 156 सीटें... और 53 प्रतिशत मत हासिल हुए... और जेपी नड्डा ने मोदी जी की लोकप्रियता के आधार का और भी अधिक विस्तार किया.'
अमित शाह ने जेपी नड्डा की कई उपलब्धियां भी गिनाई. बोले, 'उनके नेतृत्व में बिहार में पार्टी को सबसे अधिक स्ट्राइक रेट मिला... एनडीए को गिनें, गठबंधन को महाराष्ट्र चुनाव में जीत मिली, उत्तराखंड, मणिपुर और असम में भी सफलता हासिल हुई... बंगाल में चंद सीटों की कमी से पीछे रहना पड़ा, तमिलनाडु में पार्टी ताकत बनकर उभर रही है - और गोवा में भारतीय जनता पार्टी ने हैट्रिक मारी है.'
सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर बीजेपी की तरफ से जो तस्वीर डाली जाती है, दो ही चेहरे देखने को मिलते हैं - एक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और दूसरे जेपी नड्डा. बीजेपी के बाकी आयोजनों में अमित शाह की तस्वीर भी देखने को मिला करती है, लेकिन राष्ट्रीय कार्यकारिणी की ताजा बैठक के दौरान जहां कहीं भी पोस्टर या कट-आइट देखने को मिले - सिर्फ मोदी और नड्डा ही नजर आ रहे थे.
मालूम नहीं क्यों, लेकिन दोनों ही चेहरों के पीछे एक अदृष्य अक्स भी उभरा हुआ लग रहा था - और वो रहा अमित शाह का चेहरा. सीधे सीधे नजर न आने के बाद भी अमित शाह अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहे थे - ये वो मौजूदगी ही रही जो काफी कुछ कहती है.
जेपी नड्डा और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे में एक कॉमन बात ये है कि दोनों को ही कम से कम दो लोगों से पूछ कर काम करना पड़ता है. पूछने से आशय हर बात पूछना जरूरी नहीं भी हो सकता है, लेकिन महत्वपूर्ण मुद्दों पर सहमति और मंजूरी जरूरी होती है.
बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के केस में ये दो लोग प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह होते हैं, और मल्लिकार्जुन खड़गे के मामले में राहुल गांधी और सोनिया गांधी. कभी कभी प्रियंका गांधी वाड्रा की भी सहमति जरूरी हो सकती है, अगर उनके प्रभार वाले कार्यक्षेत्र से जुड़ा मामला हो.
मतलब, ये कि जेपी नड्डा ने मोदी-शाह के बीच एक ऐसी जगह तो बना ही ली है, जहां बने रहना अपनेआम में एक बड़ी चुनौती है. लेकिन दो के बाद तीसरे का दायरा भी एक हद में ही होना चाहिये, नड्डा का एक्सटेंशन ये संदेश भी बड़े आराम से दे रहा है.
मोदी ने नया टास्क भी तो दे ही दिया है
बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के आयोजन स्थल तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रोड शो करते हुए गये थे. पटेल चौक से जयसिंह रोड चौराहे तक ये करीब आधे किलोमीटर लंबा रोड शो रहा. मौका देख कर कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने मोदी के रोड शो को भारत जोड़ो यात्रा की कॉपी करार दिया.
राजस्थान और कर्नाटक में हुई बीजेपी की यात्राओं को भारत जोड़ो यात्रा के समानांतर बताना अलग बात है, लेकिन मोदी के रोड शो को राहुल गांधी की यात्रा की नकल बताना जयराम रमेश का राजनीतिक बयान हो सकता है, और उनको उसका अधिकार है. ऐसा तो नहीं था कि मोदी ने पहली बार रोड शो किया हो.
बहरहाल, प्रधानमंत्री मोदी ने बीजेपी नेताओं और कार्यकर्ताओं को अगले आम चुनाव तक का टास्क भी दे दिया है, और साथ में तमाम नसीहतें भी. वो पहले भी बयान बहादुर नेताओं को मुंह के लाल बता चुके हैं - और कैमरा देख कर कुछ भी बोल देने से बचने को कहते रहे हैं. प्रधानमंत्री की की ताजा नसीहत मध्य प्रदेश सरकार में मंत्री नरोत्तम मिश्रा के लिए खास तौर पर रही, जिनके बयानों में फिल्मों की समीक्षा कुछ ज्यादा ही होने लगी है.
बीजेपी कार्यकर्ताओं के बहाने मोदी ने जो टास्क दिया है, वो असल में जेपी नड्डा के लिए ही है. और मोदी ने ये भी याद दिला दिया है कि सिर्फ 400 दिन ही बचे हैं. हर दिन का लक्ष्य निर्धारित कर काम हर हाल में पूरा होना ही चाहिये.
सूत्रों के हवाले से आयी मीडिया रिपोर्ट बता रही हैं कि प्रधानमंत्री मोदी ने एक बार फिर हर तबके तक पहुंचने की जरूरत पर जोर दिया है - और हर तबके से मतलब, वो तबका है जो बीजेपी की मुहिम में पीछे छूट जाता है. ये तबका है मुस्लिम वोटर. अनजाने में तो नहीं कहा जा सकता, कम से कम बीजेपी नेताओं के मुंह से जो बातें सुनी जाती हैं.
अब बीजेपी मुस्लिम समुदाय तक भी पहुंचना चाहती है. ये हिंदुत्व की कट्टर राजनीति से उदारवादी राजनीति की तरफ बढ़ने जैसा है. पहले भी ऐसी पहल हुई है, लेकिन उसका दायरा भी तय कर दिया जाता है. हैदराबाद में हुई बीजेपी कार्यकारिणी में भी प्रधानमंत्री मोदी ने पसमांदा मुसलमानों तक पहुंचने की सलाह दी थी - और अब भी कह रहे हैं कि अल्पसंख्यक और हाशिये पर रहने वाले समुदायों तक पहुंचने की जरूरत है.
कई अखबारों की रिपोर्ट में मोदी की सलाहियत का जिक्र है, लेकिन किसी ने भी इस बात की पुष्टि नहीं की है कि मोदी ने पसमांदा या बोहरा समुदाय का नाम लिया. अल्पसंख्यकों में तो इसाइयों तक कई समुदाय आते हैं.
मोदी की अपील में समाज के हर तबके के बीच भरोसा कायम करने पर जोर नजर आता है - और ये कहना कि देश का सबसे अच्छा दौर आने वाला है जिसे कोई रोक नहीं सकता. मोदी सरकार फिलहाल अमृत महोत्सव मना रही है, और अब शताब्दी की तैयारी है. मतलब, तब तक बीजेपी को ही सत्ता में बनाये रखने की तैयारी है.
और मोदी का ये कहना कि अमृत काल को 'कर्तव्य काल' में बदलने की जरूरत है, ये समझाने की कोशिश है कि आगे के 25 साल बीजेपी को बहुत मेहनत करने की जरूरत है - और 2024 नये टारगेट का पहला पड़ाव है.
जेपी नड्डा को पहला पड़ाव सफलतापूर्वक पार करना है. 2024 में बीजेपी की जीत से बहुत सारी चीजें यूं भी साफ हो जाएंगी. ये भी साफ हो जाएगा कि विपक्ष बीजेपी को चैलेंज करने की स्थिति में खुद को ला पा रहा है कि नहीं? राहुल गांधी के नये तेवर के साथ कांग्रेस बाउंसबैक कर भी पाती है या नहीं? कांग्रेस में विपक्ष का नेतृत्व करने की कुव्वत बची भी है या नहीं? नयी ताकत के तौर पर उभर रहे आम आदमी पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल आगे चल कर कोई मुसीबत खड़ी कर सकते हैं या नहीं?
व्यावहारिक तौर पर देखें तो जेपी नड्डा का मुख्य काम तो यही सुनिश्चित करना है कि मोदी सरकार की नीतियों को आम जन तक पहुंचाया जा सके. अगर सभी तक न सही तो कम से कम केंद्रीय योजनाओं के लाभार्थियों तक तो पहुंच ही जाये - ये बातें तो हैदराबाद कार्यकारिणी से भी आयी थीं, लेकिन वो संदेश सभी के लिए था. इस बार सब कुछ सिर्फ और सिर्फ खास तौर पर जेपी नड्डा के लिए रहा.
चुनाव नतीजे तय करेंगे नड्डा का भविष्य
जेपी नड्डा के कार्यकाल को देखें तो बीजेपी कोई भी चुनाव बुरी तरह नहीं हारी है. पंजाब और पश्चिम बंगाल पर भी यही बात लागू होती है. पंजाब में था ही क्या जिससे जीत की कोई उम्मीद हो, फिर भी मेहनत में तो कोई कमी नहीं ही रही. चुनावी दावेदारी तो सरकार बनाने की ही होती है, जैसे पिस्टल के लिए तोप का लाइसेंस अप्लाई करना. पश्चिम बंगाल में बीजेपी का मुख्य विपक्षी दल बन जाना भी तो उपलब्धि ही है.
कार्यकारिणी में जेपी नड्डा के भाषण में मलाल का एक भाव जरूर था, लेकिन पहले की ही तरह वो संभाल लिये. बोले, 'हिमाचल में रिवाज बदलना था, हम नहीं बदल पाये.' चुनाव नतीजे आने के बाद बीजेपी दफ्तर में भी जेपी नड्डा ने ये कह कर मोदी-शाह को भरोसा दिलाने की कोशिश की थी कि हार और जीत के बीच वोट शेयर का फर्क महज 0.9 फीसदी ही रहा है.
लेकिन लगे हाथ जेपी नड्डा ने आगे के लिए अपना इरादा भी साफ कर दिया. बोले, 'कमर कस लें, हमें एक भी चुनाव नहीं हारना है.' और ये जेपी नड्डा को दिये गये एक्सटेंशन की घोषणा से पहले की बात है.
वैसे भी बात सिर्फ जेपी नड्डा को मिले नये कार्यकाल की अवधि की नहीं है. साल भर की अवधि कम भी नहीं होती - और लगातार इतने सारे चुनाव लड़ना कोई मामूली चुनौती भी नहीं है.
लेकिन किसी भी राजनीतिक दल में पावर सेंटर बनना काफी महत्वपूर्ण होता है. 2014 से पहले कई बीजेपी नेता ऐसे रोल में थे. उसके बाद सारी ताकत सिर्फ दो नेताओं तक सिमट कर रह गयी है. और दो नेताओं के बाद कतार में खड़े नेताओं की बात और है. कौन पहली कतार में है और कौन दूसरी या तीसरी कतार में या आखिरी कतार में, लेकिन चैलेंज करने वाला कोई और नहीं है? ये सारी बातें राजनीतिक समीकरणों के लिए काफी महत्वपूर्ण होती हैं.
लालकृष्ण आडवाणी और अमित शाह के बाद जेपी नड्डा तीसरे ऐसे नेता हैं, जिनका कार्यकाल लगातार दूसरी बार बढ़ाया गया है. ये जेपी नड्डा की काबिलियत भी हो सकती है, और चुनावी साल में कोई जोखिम न उठाने की बीजेपी की मजबूरी भी. जब जोखिम ज्यादा हो तो आजमाये हुए नुस्खों पर ही भरोसा करना ठीक होता है. जेपी नड्डा का कार्यकाल कम से कम ऐसा तो माना ही जाएगा.
हिमाचल प्रदेश की चुनावी हार के बावजूद जेपी नड्डा को गुजरात की जीत को लेकर प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ मिली थी, लेकिन उतनी मात्रा में नहीं, जितनी गुजरात बीजेपी अध्यक्ष सीआर पाटिल को मिली थी. सीआर पाटिल भी भूपेंद्र यादव की तरह ऐसे नेता के तौर पर उभरे हैं जो बूथ लेवल तक चीजों को मैनेज करता है - अमित शाह की भी यही खासियत है. और चुनावों में वो हमेशा सबसे मुश्किल टास्क अपने हाथ में लेते हैं. यूपी चुनाव 2022 में अमित शाह का पश्चिम यूपी का पूरा काम अपने हाथ में लेना ऐसा ही उदाहरण है. वो जानते थे कि किसान आंदोलन के बाद ग्राउंड लेवल पर चीजों को मैनेज करना किसी और के वश की बात नहीं होगी. और वो बिलकुल सही सोच रहे थे. चुनाव नतीजों ने अमित शाह को एक बार फिर से सही साबित कर दिया.
नौ राज्यों की विधानसभा चुनावों और एक लोकसभा सहित कुल 10 चुनाव होने हैं - और जेपी नड्डा का भविष्य भी एक ही बात पर निर्भर करता है कि वो 0-10 मार्क्स में कितना स्कोर कर पाते हैं?
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