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Updated: 08 दिसम्बर, 2022 08:11 PM
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2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने प्रेम कुमार धूमल को हिमाचल प्रदेश के लिए मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित किया था, लेकिन वो अपनी ही सीट से चुनाव हार गये थे. लिहाजा बीजेपी ने जयराम ठाकुर को मुख्यमंत्री बनाया था. उत्तराखंड और गुजरात की तरह सब जानते समझते हुए भी बीजेपी ने मुख्यमंत्री नहीं बदला और निश्चित तौर पर अब उसका अफसोस हो रहा होगा. मुख्यमंत्री को अकेले दोषी तो नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन वो कम कसूरवार तो नहीं ही माने जाएंगे.

प्रेम कुमार धूमल मौजूदा दौर में बीजेपी के फायर ब्रांड नेता और केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर के पिता हैं. सुनने में आ रहा है कि बीजेपी के भीतर भी पार्टी की फजीहत कराने के लिए अनुराग ठाकुर के साथ साथ बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के फैसलों पर सवाल उठाये जा रहे हैं. कहा जा रहा है कि नड्डा ने जनाधार वाले नेताओं को नजरअंदाज कर अपने करीबियों को तरजीह दी और नतीजा सामने है.

बीजेपी उम्मीदवारों की सूची आने से पहले ही प्रेम कुमार धूमल ने पत्र लिख कर टिकट लेने से मना कर दिया था. आप चाहें तो इसे अपने तरीके से समझ सकते हैं. जो नेता पांच साल तक सत्ता में वापसी का इंतजार करता रहा, वो भला चुनाव लड़ने से ही मना क्यों करेगा? ऐसा करने वाले धूमल अकेले बीजेपी नेता नहीं हैं. गुजरात में भी पूर्व मुख्यमंत्री विजय रुपानी और डिप्टी सीएम रहे नितिन पटेल ने भी बिलकुल ऐसा ही किया था.

जिस जयराम ठाकुर को बीजेपी ने प्रेम कुमार धूमल की जगह लाया था, उनको मुख्यमंत्री पद की दावेदार प्रतिभा सिंह 2013 में भी हरा चुकी हैं. प्रतिभा सिंह, पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की पत्नी हैं, और हिमाचल प्रदेश कांग्रेस की मौजूदा अध्यक्ष भी हैं.

जब वीरभद्र सिंह 2012 में हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गये तो लोक सभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था. 2013 में उपचुनाव में कांग्रेस की तरफ से प्रतिभा सिंह मैदान में उतरीं और फिर जयराम ठाकुर को हरा दिया था. प्रतिभा सिंह ने 1998 में सक्रिय राजनीति शुरू की, लेकिन मंडी लोक सभा सीट से पहला ही चुनाव हार गयीं. हालांकि, 2004 में हुए अगले ही चुनाव में प्रतिभा सिंह ने हार का बदला ले लिया और संसद पहुंच गयीं.

प्रतिभा सिंह तो एक्टिव रहीं ही, प्रियंका गांधी वाड्रा (Priyanka Gandhi Vadra) ने भी हिमाचल प्रदेश में चुनाव प्रचार के लिए डेरा डाल रखा था. रैलियां तो प्रियंका गांधी की कम ही हुईं, लेकिन कांग्रेस कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ाने के लिए वो काफी दिनों तक वहां जमी रहीं - जैसे प्रियंका गांधी ने कांग्रेस की जीत का ऐसा स्वाद पहली बार चखा है, मल्लिकार्जुन खड़गे (Mallikarjun Kharge) को भी कम से कम ये संतोष तो होना ही चाहिये कि उनके कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद मिली ये चुनावी जीत शुभ शुरुआत तो है ही.

जैसे पहाड़ पर कांग्रेस को संजीवनी बूटी मिल गयी हो

अभी कांग्रेस का जो हाल गुजरात में हुआ है, 2017 में हिमाचल प्रदेश में करीब करीब वैसा ही हुआ था. कांग्रेस को सत्ता गंवानी पड़ी थी. करीब करीब वैसे ही जैसे भ्रष्टाचार का मुद्दा 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस पर भारी पड़ा था.

तब गुजरात में तो बड़ी मशक्कत के बाद भी कांग्रेस बीजेपी को बहुमत हासिल करने से नहीं रोक पायी थी, लेकिन खुद भी कोई बहुत ज्यादा पीछे नहीं थी. फिर भी गुजरात के नतीजों से उत्साहित राहुल गांधी ने खुशी खुशी अपनी ताजपोशी करा ली थी - और करीब साल भर की मेहनत के बाद राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकारें भी बन गयी थीं.

mallikarjun kharge, priyanka gandhi vadra, rahul gandhiहिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की जीत कोई मामूली नहीं, बल्कि पहाड़ पर संजीवनी बूटी मिलने जैसा ही है

गुजरात तो नहीं लेकिन हिमाचल प्रदेश इस बार कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के लिए अच्छी खबर लेकर आया है - मल्लिकार्जुन खड़गे ने हिमाचल प्रदेश की जीत को अपने लिए शुभ संकेत मान सकते हैं. कम से कम तब तक जब तक आने वाले किसी चुनाव में कांग्रेस को झटका न लगे.

ऐसा लगता है जैसे पहाड़ पर कांग्रेस को संजीवनी बूटी मिल गयी हो - 80 साल की उम्र में मल्लिकार्जुन खड़गे के लिए ये कोई कम मामूली खबर तो नहीं ही समझी जानी चाहिये.

मल्लिकार्जुन खड़गे को हिमाचल प्रदेश की चुनावी नतीजों को शुभ समाचार इसलिए भी मान कर चलना चाहिये - क्योंकि छह महीने के भीतर ही कर्नाटक विधानसभा के लिए भी चुनाव होने वाले हैं. मल्लिकार्जुन खड़गे कर्नाटक से ही आते हैं और उनके कांग्रेस अध्यक्ष बनने की प्रक्रिया को भारत जोड़ो यात्रा के कर्नाटक में होने के दौरान जोड़ कर पेश किया गया था.

हिमाचल प्रदेश के नतीजे तो एक तरह से मल्लिकार्जुन खड़गे को कांग्रेस की तरफ से वेलकम गिफ्ट है - रिटर्न गिफ्ट तो उनको कर्नाटक चुनाव के जरिये देना होगा.

प्रियंका गांधी को श्रेय मिलेगा क्या?

प्रियंका गांधी ने राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सेदारी और सक्रिय राजनीति की शुरुआत भी उत्तर प्रदेश से की थी. प्रियंका गांधी वाड्रा वैसे तो बचपन से ही परिवार के साथ चुनाव कैंपेन के दौरान रायबरेली और अमेठी जाती रहीं, लेकिन कांग्रेस महासचिव बनाये जाने के बाद पहली बार पूर्वी उत्तर प्रदेश की चुनाव प्रभारी बनायी गयी थीं.

और पहली बार में ही बहुत बड़ा झटका लगा. अमेठी लोक सभा सीट पर राहुल गांधी की हार किसी सदमे से कम नहीं थी. और यूपी चुनाव 2022 के नतीजों ने तो जैसे फिर से जख्म हरे कर दिये थे - महिला उम्मीदवारों को 40 फीसदी टिकट देने के बावजूद कांग्रेस को चुनावों में सिर्फ दो सीटें ही मिल सकीं.

जैसे यूपी चुनाव में प्रभारी बनाये जाने के बाद प्रियंका गांधी को कांग्रेस के मंच से पहली बार अहमदाबाद की रैली में महासचिव के रूप में बोलने का मौका मिल पाया था, ठीक वैसे ही यूपी से बाहर ही पहली बार जीत का जायका महसूस करने का मौका हिमाचल प्रदेश जाकर मिला है. ये खुशी इसलिए भी ज्यादा मायने रखती है क्योंकि शिमला के पास ही प्रियंका गांधी वाड्रा ने अपना घर भी बनवाया है.

हिमाचल प्रदेश की जिम्मेदारी एक तरीके से प्रियंका गांधी के ही कंधों पर देखी गयी - क्योंकि राहुल गांधी ने तो उधर झांकने तक की जहमत नहीं उठायी थी. गुजरात में तो एक दिन के लिए वो आदिवासी नेता अनंत पटेल के बुलावे पर कांग्रेस के चुनाव प्रचार के लिए गये भी थे.

ऐसे भी समझा जा सकता है कि अमेठी में राहुल गांधी की हार का दर्द थोड़ा कम हुआ होगा. वैसे भी बड़े दिनों बाद कांग्रेस को अकेले भोगने वाली कोई खुशी मिली है. पीछे देखें तो 2021 में प्रियंका गांधी ने असम चुनाव में भी चुनाव कैंपेन का मौर्चा संभाला था, लेकिन मायूसी ही हाथ लगी थी.

फिर भी बड़ा सवाल ये है कि क्या कांग्रेस में प्रियंका गांधी को हिमाचल प्रदेश की जीत का श्रेय मिलेगा - या भारत जोड़ो यात्रा का असर बता कर ये जीत भी राहुल गांधी को समर्पित कर दी जाएगी?

कांग्रेस के लिए जिंदा रहना भर जरूरी है

हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस का सत्ता में आना ही नहीं, गुजरात में भी एक दर्जन से ज्यादा सीटें मिलने को भी एक ही तरह की पॉलिटिकल लाइन के तौर पर समझा जा सकता है - कांग्रेस का जिंदा रहना ही काफी है.

जैसे भी संभव हो, कांग्रेस बची रही तो उसे सत्ता में आने का मौका मिल सकता है. इस थ्योरी के हिसाब से देखें तो जहां कहीं भी बीजेपी नहीं जीत पायी है, कांग्रेस ने मौका का फायदा उठा लिया है - ये बात गुजरात और हिमाचल प्रदेश दोनों ही चुनावों पर बराबर लागू होती है.

गुजरात के कुछ ही क्षेत्रों में ये हाल रहा कि इलाके के लोग बीजेपी को वोट नहीं देना चाहते थे, लेकिन हिमाचल प्रदेश में ऐसे ज्यादे इलाके रहे जहां के लोगों में बीजेपी के प्रति नाराजगी रही, या फिर बीजेपी नेता आपस में लड़ते रहे और कांग्रेस को उसका सीधा फायदा मिल गया.

मतलब, देर तो है, लेकिन हमेशा अंधेरा छाया रहेगा ऐसा भी नहीं है. कहने का मतलब ये कि कांग्रेस अगर खत्म नहीं हुई तो कभी भी एक हरे भरे पौधे की तरह उग सकती है - और मतलब ये भी कि बीजेपी का कांग्रेस मुक्त भारत का मिशन अभी अधूरा है. मौका मिलते ही कांग्रेस बीजेपी को भी रिप्लेस कर सकती है.

बीजेपी को बीजेपी ही हराती है

हिमाचल प्रदेश में बीजेपी के साथ करीब करीब वैसा ही खेल हो गया है जैसा पंजाब में कांग्रेस के साथ इसी साल के शुरू में हुआ था - जैसे कांग्रेस ने ही कांग्रेस को हरा दिया, ठीक वैसे ही हिमाचल प्रदेश में बीजेपी ने ही बीजेपी को हरा दिया है.

मतलब, बीजेपी को हारने के लिए कांग्रेस या किसी और राजनतीक विरोधी पार्टी की जरूरत नहीं है. बीजेपी नेता जब चाहें, अपने खिलाफ अपना इंतजाम भी खुद ही कर सकते हैं. जैसे 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में हुआ था. बीजेपी नेतृत्व ने सेलीब्रिटी पुलिस अफसर रहीं किरन बेदी को मुख्यमंत्री उम्मीदवार बना कर थोप दिया और बीजेपी के दिल्ली वाले नेताओं और कार्यकर्ताओं का खून खौल उठा - बीजेपी न सिर्फ चुनाव हार गयी, उसके सिर्फ तीन उम्मीदवार विधानसभा पहुंच पाये थे.

हिमाचल प्रदेश को लेकर चुनाव नतीजे आने से पहले से ही अनुराग ठाकुर और जेपी नड्डा की भूमिका पर सवाल उठने लगे थे. अब तो नतीजे बता रहे हैं कि धुएं इसलिए उठ रहे थे क्योंकि आग तो लगी ही हुई थी - मोदी के चेहरे पर ही बीजेपी चुनाव वहां भी लड़ी थी लेकिन नतीजे गुजरात से अलग आये.

केजरीवाल के लिए मीलों का सफर बाकी है

गुजरात में तो अरविंद केजरीवाल की पार्टी को पांच सीटें मिली भी हैं, लेकिन हिमाचल प्रदेश में तो बैलेंज जीरो ही रहा. गुजरात में अरविंद केजरीवाल के पास पूरा मौका था. वो चाहते तो कांग्रेस की जगह ले सकते थे, लेकिन चूक गये.

निश्चित तौर पर एमसीडी चुनाव में आम आदमी पार्टी का प्रदर्शन बेहतर रहा है, लेकिन पंजाब के अलावा देखें तो गोवा से लेकर गुजरात तक बस जैसे तैसे हाजिरी ही लगा पा रहे हैं. हो सकता है गुजरात के वोट शेयर के आधार आप को भी अरविंद केजरीवाल राष्ट्रीय पार्टी बनाने में सफल रहे, लेकिन ये भी याद रहे कि दिल्ली का मुख्यमंत्री होकर भी दिल्ली की उनकी मंजिल अभी काफी दूर है - और मीलों का सफर बाकी है.

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