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Updated: 18 मार्च, 2016 04:43 PM
आशीष मिश्रा
आशीष मिश्रा
  @Ruritania
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असली भारत गाँव में बसता है, भारत कृषिप्रधान देश है, गाँव में किसान रहते हैं, किसान के पास गाय होती है, गाय एक पॉलिटिकल पशु है, किसान एक आत्महत्या प्रधान जीव है, वो खेती करता है, फिर आत्महत्या कर लेता है, जब खेती नही करता तब भी आत्महत्या कर लेता है, जब ज्यादा पानी बरस जाए तो आत्महत्या कर लेता है, कम पानी बरसे तो आत्महत्या कर लेता है, ओले गिरे तो आत्महत्या कर लेता है, सरकार समर्थन मूल्य बढ़ाती है आत्महत्या की दरें बढ़ जाती हैं. ऋण न मिले तो मर जाता है ऋण मिल जाए तो ऋण से मर जाता है. जीडीपी बढ़ती है तो भी आत्महत्या की दरें बढ़ जाती हैं. किसान खाद न मिले तो मर जाता है, कीटनाशक मिल जाए तो पीकर मर जाता है. उसे संसाधनों का उपयोग समझ नही आता, अर्थशास्त्र नही समझता, बाजार नही समझता, राजनीति नही समझता. बैंकॉक की विपश्यना का मर्म नही समझता. उनकी लॉन्चिंग का महत्व नही समझता.

जितनी बार वो लॉन्च हो चुके हैं उनका पता नई दिल्ली की बजाय श्री हरिकोटा होना चाहिए, पर वो दिल्ली में हैं, लौट आए हैं. दिल्ली की बात छोड़िये. वहाँ ज्यादातर ऐसे हैं जिन्हें वहाँ कभी न होना चाहिए, कई ऐसे हैं दिल्ली में जिन्हें महसूस हुआ, उन्हें मनुष्य के शरीर में भेजना परमात्मा का टाइपो था. लिपिकीय त्रुटि! ऊपर वाले के घर भी सूचना का अधिकार होना चाहिए. उन्हें बैल के शरीर में जाना चाहिए था या गधे के, सींग या दुलत्ती ही चलाते, मनुष्य योनि में फँसकर जीवन व्यर्थ हो गया, मुँह बस चला सकते हैं. इधर जीवन व्यर्थ लगना था उधर वो दिल्ली पहुँच गए. जी हाँ दिल्ली ऐसे ही पहुँचते हैं, जिन्हें अपना जीवन बिगड़ा लगता है वो बदले में दिल्ली से बाकियों का जीवन बिगाड़ते हैं, गधे और बैल न हो सकने की कुण्ठा जाती नही ना है. पर सारी सिर-फुटौव्वल दिल्ली में होने की है, दिल्ली में हुए तो दिल्ली में टिकने की होती है, बड़े षट्कर्म कराती है दिल्ली, वो दिल्ली लौटे और रीलॉन्च हुए कितनी बार लॉन्च हो चुके हैं ये गिनना वो अब खुद भी भूल चुके हैं.

वो इस्केप वेलोसिटी की बात करते हैं, जुपिटर की भी. लॉन्च होते हैं. इस्केप कर जाते हैं. उनके कुंजीपटल में इन्टर के मुकाबले इस्केप की कुंजियाँ ज्यादा हैं. लोकसभा चुनाव के समय भी लॉन्च हुए थे, जापानी तकनीक से, मंगलयान से भी महँगे. अंतर ये रहा कि मंगलयान सफल हो गया।अबकी बार लॉन्चिंग पैड दूसरा था, लॉन्चिंग पैड बदला सो तेवर भी, विडम्बना देखिए कोई जान से जाए किसी की राजनीति की जमीन तैयार हो, अपने-अपने स्वार्थ हैं, अपनी मजबूरियाँ वर्ना ख़ाक पड़ी है किसी को किसानों की?

वो सदन में दहके, किलकारियाँ फूट पड़ीं, वो दहक भी सकते हैं, दो महीने बैंकॉक में मसाज करा लौटने के बाद कोई किसानों के बारे में कैसे सोच सकता है? फिर भी दहक रहे हैं वो, वाह-वाह, मजा आ गया. क्या मुद्दा पकड़ा है. मुझे यकीन हो गया हर रात जब वो मखमली गद्दों पर लेटते रहे होंगे किसानों का दुःख उन्हें सालता रहा होगा, वहां कंक्रीट की इमारतों में उन्हें किसान का दुःख नजर आया, अकेले घूमते-टहलते किसानों का संघर्ष नजर आया, दुःख उतरकर महसूस किया जा सकता है थाई मसाज कराते हुए लटके हुए किसान नजर आए. बैंकॉक में भारतीय किसानों का दुःख देख आए, ऐसा होगा कोई दूसरा?

यकीन मानिए जब-जब कहीं कोई किसान फाँसी लगाता है, कोई मुस्कुराता है, चलो मौक़ा मिला. किसी की मौत किसी का मौक़ा, कोई मरे कोई मल्हार गाए. कोई मरकर मुर्दा हुआ, मुर्दा हुआ सो मुद्दा हुआ. कोई मरे किसी को मुद्दा मिले, तुम्हारी देह से चिराग जले किसी के घर का और क्या चाहिए? फिर कहो किसान क्यों न मरे? जब बारिश पर आस लगाए या किसी के वारिस पर. ऐसे सिर्फ ये ही नही हैं, जो घेरे जाते हैं कल तक वो भी खुश होते थे, अदला-बदली का खेल है, पाले बदल जाते हैं, हालात वही रहते हैं, गिद्ध वही गीदड़ वही बस मुर्दे बदल जाते हैं.

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लेखक

आशीष मिश्रा आशीष मिश्रा @ruritania

लेखक एक व्यंग्यकार हैं.

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