क्योटो भले न बन पाया पर यूपी पॉलिटिक्स का बोनसाई तो बन ही गया बनारस
वाराणसी में यूपी की सियासत की सारी तकरीर, नेताओं के तेवर, और उनके अंदाज ए बयां में तासीर वैसे ही कायम रही जैसे चुनाव आयोग का मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट हो.
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बनारस की भीड़ ने किसी के भी रोड शो से भेदभाव नहीं किया. चाहे लंका से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी निकले हों या कचहरी से अखिलेश यादव और राहुल गांधी - रोड शो जिस गली मोहल्ले से गुजरा लोग खिड़की-दरवाजों से लेकर छतों तक चारों तरफ लोगों का हुजूम नजर आया. गलियों की भीड़ की तस्वीरें तो इतनी जबरदस्त रहीं कि पूरी खबर बताने के लिए कैप्शन ही काफी था.
बनारस पहुंची मायावती खामोशी से निशाने पर चुन चुन कर वार करती रहीं, तो खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आभामंडल भी बीजेपी के बागियों के सामने बेअसर रहा. हां, सियासत की सारी तकरीर, नेताओं के तेवर, और उनके अंदाज ए बयां में तमीज काशी में वैसे ही कायम रही जैसे चुनाव आयोग का मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट हो. पूरा नजारा ऐसा रहा कि हर कोई अपनी जीत का दावा तो कर सके लेकिन किसी को भी काशीवासियों के मन की बात की भनक तक न लग पाये.
तकरीर
सिर्फ संसदीय क्षेत्र की बात न करें, बल्कि पूरे वाराणसी जिले पर गौर करें तो पिछले चुनावों की तरह इस बार भी दो छोर साफ नजर आये - एक छोर पर श्यामदेव रॉय चौधरी तो दूसरी ओर अजय राय. शहर दक्षिणी से दादा के नाम से लोकप्रिय श्यामदेव रॉय चौधरी को टिकट भले न मिला हो लेकिन वो टॉप ट्रेंड से कभी नीचे नहीं उतरे. उसी तरह लोक सभा चुनाव में मोदी को चैलेंज कर चुके अजय राय भी उसी पार्टी के टिकट पर पिंडरा से मैदान में डटे रहे.
दादा के इलाके को ही देखें तो वहां पूरे उत्तर प्रदेश चुनाव की कहानी तफसील से सुनी जा सकती है. बीजेपी में टिकट बंटवारे से उपजे असंतोष की कहानी के प्रतिनिधि किरदार दादा हैं तो उम्मीदवार उतारने में बीएसपी नेता मायावती की चतुराई भी देखी जा सकती है.
डैमेज कंट्रोल की कवायद...
संघ से नजदीकियों के चलते बीजेपी ने इस सीट से नीलकंठ तिवारी को टिकट दिया तो कांग्रेस ने वाराणसी से ही सांसद रह चुके राजेश मिश्रा को चुनाव लड़ने भेज दिया. एक दौर था जब कॉलेज के छात्र संघ चुनाव में राजेश मिश्रा मठाधीश की भूमिका में रहे और नीलकंठ तिवारी छात्र उम्मीदवार, गुजरते वक्त के साथ दोनों एक सीट पर मुकाबले में आमने सामने हैं. देखना होगा नीलकंठ हिसाब बराबर कर पाते हैं या नहीं, या फिर कोई तीसरा बाजी मार ले जाता है.
ये तो रही बीजेपी और कांग्रेस की राजनीति, अब जरा मायावती की दूरदृष्टि देखिये. पूरे सूबे में दलित-मुस्लिम गठजोड़ पर जोर देने वाली मायावती ने इस सीट से सवर्ण उम्मीदवार को टिकट दिया. सवर्ण में भी राकेश त्रिपाठी यानी दो ब्राह्मणों के बीच तीसरा प्रत्याशी भी ब्राह्मण.
नीलकंठ पर बीजेपी और संघ का वरद हस्त है तो राजेश मिश्रा की खुद अपनी फॉलोविंग है जिनमें ब्राह्मण और युवा दोनों हैं. अगर नीलकंठ और राजेश को लेकर लोगों की राय में कुछ इधर-उधर हुआ तो मायावती के उम्मीदवार को फायदा मिलेगा.
अब यूपी की सियासत की इससे अच्छी तकरीर कितनी जगहों पर एक साथ नजर आएगी जहां किस्सा भी वही है और किरदार भी वैसे ही.
तेवर
बीजेपी के लिए बनारस का माहौल इतना माकूल रहा कि पल भर के लिए ये सवाल नहीं उठा कि उसका चेहरा कौन है. जबकि शहर के बीचों बीच राहुल गांधी और डिंपल के साथ मौजूदा सीएम अखिलेश यादव रोड शो में भीड़ बटोर चुके थे तो दूसरी छोर पर मायावती गिन गिन कर विरोधियों की काम और कारनामों के किस्से सुना रही थीं.
बीजेपी आलाकमान को एक बात का मलाल जरूर होगा कि दादा का हाथ पकड़ कर करीब लाने की मोदी की कोशिश या फिर गलबहियां डाल कर मंदिर के गर्भ गृह तक ले जाने कोशिश भी कोई असर नहीं दिखा पायी.
देर से आये, पर दुरूस्त आये...
जिसकी जड़ें जमीन से गहराई तक जुड़ी हों शायद उसे कितनी भी ऊंची कद काठी का न तो असर होता है न वो उसे आकर्षित करते हैं. दादा और मोदी के मामले में ये बात काफी हद तक सटीक दिखती है. दादा को न तो मार्गदर्शक मंडल का भय डिगा सका न भविष्य में मुआवजे के तौर पर प्रस्तावित एमएलसी की पोस्ट. केशव मौर्य को कौन पूछे जब अमित शाह के समझाने के बावजूद दादा मोदी को उसी अंदाज में बुके दिये जैसे हर कोई घर आये मेहमान को देता है. वैसे भी दादा ने शायद ही सोचा हो कि जिस गंगा किनारे उन्होंने पूरी जिंदगी गुजार दी उसी का नाम लेकर आया एक शख्स शहर की गोद में बैठ कर एक दिन उन्हें ही बेदखल कर देगा.
ये तो माना जा सकता है कि मोदी के डेरा डालने से बीजेपी को होने वाले नुकसान की मात्रा कुछ कम जरूर हो गई होगी. मोदी पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के घर गये, गढ़वा घाट भी गये और नाराज कार्यकर्ताओं को काफिले का हिस्सा बनाकर मैसेज देने की कोशिश किये. मोदी ने शहर में घूम घूम कर ये जताने की कोशिश की कि शहर में सब ठीक ठाक है, लेकिन हुजूर आते आते बहुत देर कर दी.
तासीर
मोदी के बनारस पहुंचने से दो दिन पहले राहुल गांधी वाराणसी जिले के पिंडरा इलाके में अजय राय के लिए वोट मांगने पहुंचे थे. उनसे दो दिन पहले वहीं पहुंचे लालू ने मोदी के लिए अपशब्द कहे तो राहुल ने भी लोगों को आगाह किया कि वे स्वयं अपने सामान की सुरक्षा करें वरना गब्बर आ जाएगा. शब्द जो भी हों भाव में नोटबंदी से नाराजगी रही.
मोदी ने सूबे की बाकी रैलियों की तरह बुआ भतीजे और उसके यार को उतना भला-बुरा तो नहीं कहा लेकिन 'हर हर महादेव' 'जय श्रीराम' और 'मोदी-मोदी' के नारों से गूंजती गलियों में 'ऊं गायत्री प्रजापति नम:' का खूब जप किया.
यूपी के लड़कों के चुनाव के दिन साथ दिखने रस्म निभाये जाने में बनारस भी हिस्सेदार बना. जब पूर्वांचल के कई हिस्सों में 4 मार्च को वोट पड़ रहे थे तो दो बार टल जाने के बावजूद अखिलेश और राहुल रोड शो करने उतरे तो कुछ देर बाद दोशीपुरा में डिंपल ने भी उन्हें ज्वाइन कर लिया. डिंपल को देखते ही नारे गूंजने लगे - 'विकास की चाभी, डिंपल भाभी'. चुनाव में ऐसा कॉम्बो कैंपेन पहली और आखिरी बार देखने को सिर्फ बनारस में ही मिला. रैली दर रैली मुखर होती डिंपल ने भी बाद में मोदी की मौजूदगी पर कमेंट किया, "लोगों को आपके अखिलेश भैया पर इतना भरोसा है कि प्रधानमंत्री जी को तीन-तीन बार बनारस में रोड शो करना पड़ रहा है.
पिंडरा में राहुल मोदी को घेरने के लिए किसानों का मुद्दा उठाया तो काशी में अखिलेश ने गंगा के बहाने हमला बोला, "गंगा सफाई का वादा पूरा नहीं होने का मुद्दा उठाते हुए कहा कि इस बार गंगा मैया भी बदला लेने के लिए तैयार हैं. वाराणसी से सीधे जौनपुर पहुंच कर मोदी ने कहा कि हिसाब तो वो जरूर देंगे लेकिन - 2022 में.
बनारस में ऊना की याद...
रोहनिया के एक कॉलेज में मायावती ने भी गंगा के बहाने मोदी को टारगेट किया - 'गंगा मां के साथ जनता भी इस बार देगी सजा.' मोदी के यूपी के गोद लिये बेटे और प्रियंका के यूपी के असली बेटों की दावेदारी में कूदीं मायावती का क्लेम था कि जनता हाथी पर झमाझम वोट डालकर यूपी की बेटी को ही अपना आशीर्वाद देगी.
दलितों का दर्द कुरेदते हुए मायावती बोलीं, "दलित ऊना कांड कोई नहीं भूल सकता, दलितों की पीठ पर पड़ रहे कोडे मेरी पीठ पर पड़ रहे थे." 2009 में मुख्तार अंसारी को वाराणसी लोक सभा से चुनाव लड़ा चुकीं मायावती ने दलितों के साथ साथ मंच से मुस्लिम वोटरों को उनके इंटरेस्ट के हिसाब से इल्जाम लगाया, "लव जिहाद, गौ रक्षा आंतक आदि के नाम पर मुस्लिम समाज के लोगों शक से देखा जाता है."
पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के छोटे बेटे अनिल शास्त्री कांग्रेस में हैं और उनका मानना है कि मोदी के शास्त्री जी के घर जाने का फायदा जरूर मिल सकता है. शायल लोग इसी बात से क्यों खुश हो जाते हों कि मोदी शास्त्री के घर गये थे. लेकिन सवाल भी उठे - तीन साल बाद? चुनाव से पहले उन्हें याद क्यों नहीं आई. यही बात गढ़वा घाट के मामले में लागू होती है.
और आखिर में अखिलेश भी बोले - 'आप क्योटो बनाओ हम भी साथ देंगे'. अखिलेश की इस बात में कमेंट, कटाक्ष और मोदी के प्रभाव में आये बनारसी लोगों को मैसेज देने की कोशिश भी है.
अमित शाह मोदी कैबिनेट के एक दर्जन से ज्यादा मंत्रियों के साथ डेरा डाले रहे तो कांग्रेस के सारे कद्दावर नेता भी बनारस में डटे रहे - और खुद प्रशांत किशोर एक चीज की निगरानी करते रहे. लिहाजा, लखनऊ और दिल्ली से सत्ता के तमाम नुमाइंदे भी तब तक डटे रहे जब तक आयोग की चाबुक उन्हें बाहरी बताकर लौटने को न कह दे.
इस दौरान चुनाव प्रचार बिलकुल बिरहा दंगल की तरह चलता रहा, फर्क बस ये रहा कि सभी के गली और मोहल्ले अलग अलग होते - और जहां कहीं भी आमना सामना होता कार्यकर्ता सीधे सीधे भिड़ जाते, चौकाघाट जैसे इलाके इस बात के उदाहरण बने.
बनारस में तीन दिन तक जो कुछ हुआ वो लगा जैसे यूपी की पूरी सियासत मिलेनिया सिटी में सिमट आई हो. अपनी आन, बान और शान के साथ सदाबहार जिंदगी जीने वाला शहर को देख कर लगा जैसे चुनावी राजनीति के तेवर, तकरीर और तासीर का मोहरा बन कर रह गया हो. फिलहाल इतना तो कह ही सकते हैं - क्योटो भले न बन पाया पर यूपी पॉलिटिक्स का बोनसाई तो बन ही गया बनारस.
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