मुस्लिम वोट मिल जाये तो भी मोदी का बदला रूप बीजेपी सपोर्टर बर्दाश्त नहीं कर पाएगा
मौलाना महमूद मदनी (Maulana Mahmood Madani) भले कहें कि बीजेपी-RSS से कोई दुश्मनी नहीं है. मोहन भागवत (Mohan Bhagwat) की बात भी अलग है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) का मुस्लिम समुदाय के बीच ज्यादा नजर आना बीजेपी के कट्टर समर्थकों को शायद ही अच्छा लगे.
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) का दाऊदी बोहरा समुदाय के बीच बार बार जाना भी संघ और बीजेपी का राजनीतिक बयान ही है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2018 में इंदौर में बोहरा समुदाय की एक मस्जिद में गये थे - और तब भी वैसे ही अपनेपन का प्रदर्शन किया था, जैसा मुंबई में देखने को मिला है.
प्रधानमंत्री मोदी ने बोहरा समुदाय के एक शिक्षण संस्थान के परिसर में कबूतर भी उड़ाये और रोटियां भी बनायी - और बोले कि वो न तो प्रधानमंत्री के तौर पर न मुख्यमंत्री के रूप में उनके बीच हैं, बल्कि परिवार की चार पीढ़ियों से जुड़े हुए हैं.
प्रधानमंत्री के दौरे को बीएमसी चुनावों की राजनीति से जोड़ कर देखा और समझा जा रहा है - और इसकी सबसे बड़ी वजह बीएमसी के कई वॉर्डों में मुस्लिम वोटों का निर्णायक भूमिका में होना माना जा रहा है. मोदी से पहले महाराष्ट्र के डिप्टी सीएम देवेंद्र फडणवीस भी बोहरा मुस्लिम समुदाय के एक कार्यक्रम में शामिल हुए थे. जाहिर है ये सब बीएमसी चुनाव की तैयारियों का ही हिस्सा है.
अपने हिंदुत्व के एजेंडे को लेकर राजनीतिक विरोधियों के निशाने पर रहे उद्धव ठाकरे की तरफ से भी ऐसे मुस्लिम वोटर को रिझाने की कोशिश करते देखा गया है. फिर तो यही लगता है कि हिंदुत्व के नाम पर उद्धव ठाकरे की राजनीति को करीब करीब मिट्टी में मिलाने के बाद बीजेपी नेतृत्व बोहरा मुस्लिम वोटर को भी अपनी तरफ खींचने में जुट गया है.
क्या बीजेपी को लगता है कि ये मुस्लिम मतदाता उद्धव ठाकरे वाली शिवसेना का रुख कर सकते हैं? और इसीलिए मुंबई में मोदी का कार्यक्रम रख कर बीजेपी ये संदेश देने की कोशिश कर रही है कि बीजेपी मुस्लिमों के खिलाफ नहीं है?
ये बात तो संघ प्रमुख मोहन भागवत (Mohan Bhagwat) भी बार बार दोहराते रहे हैं. संघ के मुखपत्र ऑर्गनाइजर को दिये एक इंटरव्यू में मोहन भागवत कहते हैं, 'आज भारत में रह रहे मुसलमानों को कोई खतरा नहीं है... इस्लाम को कोई भय नहीं है... लेकिन मुसलमान अपनी श्रेष्ठता को लेकर बड़बोले बयान देना छोड़ दें.'
भारत जोड़ो यात्रा के दौरान कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने मुस्लिम समुदाय के प्रति संघ प्रमुख और प्रधानमंत्री मोदी के ताजा रुख को लेकर कटाक्ष भी किया था. दिग्विजय सिंह का कहना रहा कि ये भारत जोड़ो यात्रा का ही असर है कि आरएसएस चीफ मोहन भागवत को मदरसा और मस्जिद जाने के मजबूर होना पड़ रहा है - और लगे हाथ ये भी दावा कर डाले कि कुछ ही दिनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी टोपी पहनना शुरू कर देंगे. दिग्विजय सिंह असल में उस वाकये के संदर्भ में इशारा कर रहे थे जब मोदी ने एक बार मंच पर मुस्लिम टोपी पहनने से मना कर दिया था. मोदी की वही अदा बीजेपी समर्थकों को सबसे ज्यादा भाती है. मोदी के उभार, लोकप्रियता में इजाफा और उनके नेतृत्व में आस्था की सबसे बड़ी वजह भी उनकी वही सख्त छवि रही है.
पिछले साल सितंबर, 2022 में मोहन भागवत का दिल्ली के एक मदरसे का दौरा काफी चर्चित रहा. तब भागवत ने मस्जिद के इमाम उमर अहमद इलियासी और कई मुस्लिम नेताओं से भी मुलाकात की थी.
मोहन भागवत की इस पहल पर संघ के इंद्रेश कुमार ने कहा था, 'ये एक प्रयास है... 70 साल से तो लड़वा ही रहे हैं... जोड़ने वाले लोग ताकत से लड़ेंगे तो बांटने वाले कमजोर होंगे.'
ऑर्गनाइजर वाले इंटरव्यू में मोहन भागवत ने भी वैसी ही राय जाहिर की है, लेकिन मुस्लिम समुदाय को आगाह भी किया है, 'हम एक महान नस्ल के हैं... हमने एक बार इस देश पर शासन किया था... और फिर से शासन करेंगे... सिर्फ हमारा रास्ता सही है, बाकी सब गलत हैं... हम अलग हैं, इसलिए हम ऐसे ही रहेंगे... हम साथ नहीं रह सकते - मुस्लिमों को, इस नैरेटिव को छोड़ देना चाहिये.'
संघ प्रमुख भागवत की बातों पर गौर करें तो कभी लगता है, वो मुसलमानों को पुचकारते हैं और ऐन उसी वक्त ये भी लगता है जैसे धमका भी रहे हैं. चलेगा. संघ अपने एजेंडे पर काम करता रहे, बीजेपी के हर वोटर पर फर्क नहीं पड़ता. जो संघ से सीधे जुड़े हैं, वो जानते हैं और समझते हैं कि संघ मुस्लिम समुदाय को जो कुछ समझा रहा है, उसके आगे की सोच क्या है?
लेकिन मोदी का समर्थक वैसा नहीं है. कुछ हो सकते हैं, लेकिन सभी समर्थक तो वैसे नहीं ही हैं. मुस्लिम वोटर के प्रति बीजेपी का ये झुकाव भी कांग्रेस के सॉफ्ट हिंदुत्व के प्रयोगों जैसा ही लगता है.
राहुल गांधी का सॉफ्ट हिंदुत्व एक्सपेरिमेंट फेल होने के बाद ये जरूरी तो नहीं है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मुस्लिम समुदाय के प्रति सॉफ्ट कॉर्नर भी सफल नहीं होगा - लेकिन आशंका तो जतायी ही जा सकती है.
बीजेपी सरकार और मुस्लिम समुदाय
दिल्ली के रामलीला मैदान में जमीयत उलेमा-ए-हिंद का 34वां अधिवेशन ऐसे वक्त बुलाया गया है, जब देश के नौ राज्यों में विधानसभा के चुनाव एक के बाद एक होने जा रहे हैं. साथ ही, जम्मू-कश्मीर में भी चुनाव कराये जाने की संभावना जतायी जा रही है - और ये सब अगले आम चुनाव से पहले हो जाना है.
कुछ वोटों के लिए बीजेपी जोखिम क्यों उठा रही है?
अधिवेशन में जमीयत के उलेमा और नुमाइंदे मुस्लिम समुदाय से जुड़े तमाम मुद्दों पर चर्चा किये और यूनिफॉर्म सिविल कोड का मसला भी उनमें से एक रहा. ये भी समझना जरूरी है कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने बोल रखा है कि बीजेपी शासित राज्यों में यूनिफॉर्म सिविल कोड निश्चित तौर पर लागू किया जाएगा - उत्तराखंड को बीजेपी ने इसके पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर चुना है.
जमीयत ने यूनिफॉर्म सिविल कोड को वोट की राजनीति की मंशा से प्रेरित बताया है, और लागू किये जाने को लेकर चेतावनी भी दी है. साथ ही कहा है कि सरकार इस मामले में अदालतों को गुमराह कर रही है - और इसे लागू करके मुस्लिम पर्सनल लॉ को खत्म करना चाहती है. जमीयत की तरफ से इसके लिए तीन तलाक और हिजाब जैसे मुद्दों पर सत्ताधारी बीजेपी के रुख को पर्सनल लॉ खत्म करने के लिए रास्ता बनाने का इल्जाम लगाया है.
और अधिवेशन के मंच से ही मौलाना महमूद मदनी (Maulana Mahmood Madani) का बयान भी आया है, जिसमें वो कहते हैं कि बीजेपी और आरएसएस से कोई दुश्मनी नहीं है, लेकिन धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिये.
मदनी का कहना है कि संघ और बीजेपी के साथ मुस्लिम समुदाय के वैचारिक मतभेद निश्चित तौर पर हैं. मदनी के मुताबिक, संघ के संस्थापक एमएस गोलवलकर की किताब बंच ऑफ थॉट्स को लेकर कई समस्यायें हैं, लेकिन मौजूदा संघ प्रमुख मोहन भागवत के हालिया बयानों को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.
मदनी कहते हैं कि मतभेदों को खत्म करने के लिए वो संघ प्रमुख और ऐसे दूसरे नेताओं का स्वागत तो करते हैं, लेकिन मुसलमानों को पैगंबर का अपमान मंजूर नहीं है. मदनी ने शिक्षा का भगवाकरण किये जाने का आरोप भी लगाया है, और कहा है कि किसी भी धर्म की किताबें दूसरे पर थोपी नहीं जानी चाहिये, क्योंकि ये मुसलमानों को कबूल नहीं होगा.
समर्थकों को बीजेपी आखिर क्या समझती है?
हैदराबाद में हुई बीजेपी की कार्यकारिणी के बाद खबर आयी थी कि कैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पसमांदा मुसलमानों तक पहुंच बनाने की सलाहियत दी है. मोदी की सलाह रही कि पसमांदा मुसलमानों के बीच पहुंच कर बीजेपी के नेता और कार्यकर्ता सरकारी योजनाओं की जानकारी दें - और अगर उनके मन में कोई संदेह है तो दूर कर उनको बीजेपी को वोट देने के लिए मोटिवेट करें.
बाद में यूपी और बिहार में जगह जगह ऐसे कार्यक्रमों की तैयारी की गयी. और बीजेपी के कई बड़े नेताओं की ड्यूटी भी लगायी गयी. सिर्फ मुख्तार अब्बास नकवी ही नहीं, यूपी के डिप्टी सीएम ब्रजेश पाठक भी ऐसे सम्मेलनों में गये और मोदी का संदेश पहुंचाने की यथाशक्ति कोशिश भी की है.
बोहरा समुदाय के बीच प्रधानमंत्री मोदी की मौजूदगी भी पसमांदा मुसलमानों को बीजेपी के पक्ष में करने की ही कोशिश है. बीजेपी का मानना है कि बोहरा समुदाय के साथ उसकी कॉम्पैटिबिलिटी अच्छी है या हो सकती है. देश की मुस्लिम आबादी में दाऊदी बोहरा समुदाय की हिस्सेदारी 10 फीसदी मानी जाती है जो महाराष्ट्र और गुजरात में बसे हुए हैं.
बीजेपी के रणनीतिकार भले ही मुसलमानों को अलग अलग कैटेगरी में रखते हों, लेकिन बीजेपी का सपोर्टर तो ऐसा बिलकुल नहीं मानता. मोदी का मान रख लेने की बात और है, लेकिन ये सब लंबा चल पाएगा, ऐसी कोई गारंटी भी नहीं है.
बीजेपी की निलंबित प्रवक्ता नूपुर शर्मा के मामले में पार्टी का स्टैंड किसी को भी अच्छा नहीं लगा है. अपने आधिकारिक राष्ट्रीय प्रवक्ता को फ्रिंज एलिमेंट बता दिया जाना तो कतई किसी को अच्छा नहीं लगा है - संदेश तो यहां तक गया है कि बीजेपी के नये नये मुस्लिम प्रेम में कभी भी और किसी की भी कुर्बानी दी जा सकती है.
कोई दो राय नहीं होनी चाहिये कि मोदी को उनकी सख्त छवि की बदौलत ही पसंद किया जाता है, वरना किसी जमाने में लौह पुरुष माने जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी का क्या हाल हुआ, सभी जानते हैं. ये भी मान लेते हैं कि आडवाणी का ये हाल किसी और ने नहीं बल्कि संघ की शह पर मौजूदा बीजेपी नेतृत्व ने ही किया है - लेकिन ये भी तो है कि आडवाणी को एक छोटी सी गलती ही भारी पड़ी है. मोहम्मद अली जिन्ना के मामले में आडवाणी के स्टैंड की वजह से ही उनको बीजेपी के अच्छे दिन आने पर भी बुरे दिन देखने पड़े.
हिंदी कवि संपत सरल का 'अंधभक्तों' पर व्यंग्य अपनी जगह है, लेकिन बीजेपी समर्थकों के मन की बात अलग भी नहीं है. 2019 से पहले मेरी एक सीनियर से बात हो रही थी. डॉक्टर साहब को पूरा विश्वास था कि मोदी सरकार की वापसी के बाद पाकिस्तान खत्म हो जाएगा. ये एक्सक्लूसिव जानकारी उनको आरएसएस के किसी बड़े पदाधिकारी ने दी थी. बातचीत में वो संघ के नेता का नाम नहीं ले रहे थे. ये तब की बात है जब अमित शाह संपर्क फॉर समर्थन मुहिम चला रहे थे - और तब तक न तो पुलवामा आतंकवादी हमला हुआ था, न ही बालाकोट एयरस्ट्राइक.
बीजेपी कतई न भूले कि ये कट्टर हिंदुत्व का एजेंडा ही है जिसकी बदौलत तमाम बदलावों से गुजरने के बाद भी बीजेपी 'पार्टी विद डिफरेंस' बनी हुई है. कम से कम बीजेपी का सपोर्टर तो ऐसा ही समझता है - अगर बीजेपी भी आडवाणी बन जाये, तो क्या समर्थक तब भी बीजेपी के साथ बने रहेंगे?
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