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Updated: 17 मार्च, 2016 06:27 PM
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कन्हैया कुमार असम में चुनाव प्रचार का हिस्सा बन चुके हैं. गुवाहाटी में लगे एक बड़े से होर्डिंग में कन्हैया कुमार को सलाखों के पीछे दिखाया गया है. दिलचस्प बात ये है कि कन्हैया हिस्सा बने हैं कांग्रेस के पोस्टर का - न कि उस पार्टी के जिसके विचार उन्हें होश संभालते ही अच्छे लगने लगे.

देशद्रोह के आरोप में जेल से लौटकर कन्हैया ने जो भाषण दिया था उसके बाद चर्चा रही कि कन्हैया पश्चिम बंगाल में लेफ्ट की चुनावी मुहिम का हिस्सा हो सकते हैं.

राजनीति या एक्टिविज्म

कन्हैया के मामले में अंग्रेजी लेखक चेतन भगत की टिप्पणी रही - पीएम युवाओं के साथ तालमेल खो रहे हैं. जेएनयू के एक छात्र ने किसी भी मन की बात से ज्यादा बात की है.

सीपीएम नेता सीताराम येचुरी का भी बयान आया - कॉमरेड कन्हैया को लाल सलाम और आजाद भारत का भविष्य तुम्हारी पीढ़ी के हाथ में है. इसके साथ ही कन्हैया कुमार के केरल और पश्चिम बंगाल में स्टार कैंपेनर के तौर पर चर्चाओं में प्रोजेक्ट किया जाने लगा. कन्हैया से अक्सर ये सवाल भी पूछे जाते.

फिर कन्हैया ने अपनी बात रखी, "मैंने पहले ही कहा है मैं छात्र हूं और पीएचडी पूरी करने के बाद शिक्षक बनना चाहता हूं. हालांकि तब भी मैं एक्टिविज्म जारी रखूंगा."

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शशि थरूर ने कन्हैया के 'भाषण की धाराप्रवाह अकाट्यता, शरारती मुस्कान, मुहावरेदार हिंदी पर प्रभुत्व और भाव-मुद्रा में व्यक्त गंभीरता' की दिल खोल कर तारीफ की तो नीतीश कुमार ने कहा कि कन्हैया कुमार ने शानदार भाषण दिया है और कन्हैया जैसे छात्रों से लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होती हैं. अरविंद केजरीवाल ने तो कन्हैया की तारीफ में भी पीएम मोदी को निशाने पर ले लिया. केजरीवाल बोले - मैंने कई बार कहा मिस्टर मोदी, छात्रों से मत भिड़ो पर मिस्टर मोदी सहमत नहीं हुए.

लेकिन स्वाभाविक तौर पर केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू को ये सब अच्छा नहीं लगा. पढ़ाई भी और राजनीति भी, वेंकैया की नजर में - दोनों साथ नहीं चलेगी.

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वेंकैया नायडू ने कहा, "कन्हैया को फ्री पब्लिसिटी मिल रही है और वो इसके मजे ले रहा है. वो राजनीति क्यों कर रहा है? राजनीति करनी हो तो पढ़ाई छोड़ दो."

नायडू की बात का कन्हैया ने अपने तरीके से जवाब दिया, "पूरा देश जानता है कि जेएनयू में दाखिला पाना कितना कठिन है. क्या हम यहां बगैर पढ़ाई किये रहते हैं? हमारा नारा ही है पढ़ो और संघर्ष करो. क्या उन्हें पता है कि एक्टिविज्म और राजनीति में क्या फर्क है?"

कन्हैया की मुश्किल डगर

अपने कॉलम में शशि थरूर लिखते हैं, "28 वर्ष की उम्र में कन्हैया कुमार ऐसी राजनीतिक घटना बन चुके हैं, जिसका कम्युनिस्ट आंदोलन में पूरी तरह अभाव है. उनके भाषण का अंदाज एकबारगी मृतप्राय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को जिंदा कर सकती है.

कन्हैया की तुलना थरूर सीपीएम नेता येचुरी से करते हैं, "वो पहले ही अपनी पीढ़ी के सीताराम येचुरी बन गए हैं - 1970 के जेएनयू के साहसी छात्र नेता, जिन्होंने सरकार के साहसी विरोध तथा सत्ता पर काबिज लोगों को खरी-खरी सुनाकर, पूरे देश को चौंका दिया था. वो अपनी पार्टी के शीर्ष तक पहुंचे." थरूर को लगता है कि अगर कन्हैया तीस साल के होते तो केरल से राज्य सभा सीट के जरिये उन्हें राष्ट्रीय मंच पर पहुंचा दिया जाता. असल में केरल में सीपीआई को इस साल एक सीट मिलने वाली है. कन्हैया के तीस साल पूरे होने में अभी करीब दो साल बाकी हैं.

लेकिन क्या सीपीआई कन्हैया को इतना जल्दी इतना तवज्जो देगी? कहने को तो वाम दलों में हर किसी को मौका दिया जाता है. हर किसी की बात सुनी जाती है. हर सदस्य बराबर अहमियत रखता है. लेकिन मौका कितनों को मिलता है?

चाहे वो सीताराम येचुरी हों, प्रकाश करात हों या फिर कोई और उन्हें भी दशकों की फुलटाइम राजनीति के बाद एक्सपोजर का मौका दिया गया. कन्हैया जैसे न जाने कितने प्रतिभाशाली युवा मिल जाएंगे जो कैंपस पॉलिटिक्स से आगे नहीं बढ़ पाए.

वाम दलों में बुढ़वा मंगल इतना बेजोड़ है कि युवाओं को मौका मिले भी तो कैसे? केरल की ही राजनीति पर गौर करें तो मालूम होता है कि टॉप पोस्ट के लिए वहां सिर्फ दो च्वायस है - उनमें भी ऐसी गला-काट राजनीतिक दांव पेंच चले जाते हैं कि पूरी कायनात एक ही शख्स पर फोकस हो जाती है.

ठीक ही कहते हैं कन्हैया वो शिक्षक बनेंगे और एक्टिविज्म जारी रखेंगे - वरना स्कोप बहुत कम है. हां, अगर कॅरियर के हिसाब से पॉलिटिक्स को देखें तो आम आदमी पार्टी उन्हें ज्यादा सूट करेगी. दूसरा ऑप्शन उन्हें पोस्टर में जगह देने वाली कांग्रेस भी हो सकती है. लाख टके की सलाह तो यही है कि कन्हैया बस अपने मन की बात सुनें - और राजनीति या एक्टिविज्म में से जो भी ज्यादा पसंद हो उसी को अपने लिए चुनें.

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