हमने बापू के आदर्शों को माना तो, लेकिन अपने तरीके से
'बुरा मत कहो' को सबसे सही ढंग से अगर किसी ने समझा और पालन किया है तो वो हैं टीवी शो के जज मंडल! ये अंतरिक्ष में बैठकर चुस्की या मटका कुल्फ़ी खाने की उम्मीद लिए वे प्राणीसमूह हैं जिन्हें कुछ जंचता ही नहीं!
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मेरे प्यारे देशवासियों, तुम तो बड़े चूज़ी निकले!
बापू का ये मतलब था कि "बुरा मत करो, बुरा मत करो, बुरा मत करो"
"बुरा मत देखो, बुरा मत बोलो, बुरा मत सुनो"
निस्संदेह गांधी जी ने यह बात देशवासियों को शांति और अहिंसा का संदेश देते हुए एक सकारात्मक और आशावादी जीवन जीने की प्रेरणा देते हुए कही थी. लेकिन मनुष्य तो आख़िर नालायक मनुष्य ठहरा और जो बात सीधे-सीधे समझ ले तो फिर बेचारा अपने इस पचास ग्राम दिमाग का क्या करेगा! इसी बात को मद्देनज़र रखते हुए कुछ मानवों (कृपया 'मा' को 'दा' पढ़ें) ने यह तय किया कि "चलो, हम बुरा नहीं सुनेंगे." और जो भी हमारी बुराई करने का इत्तू-सा भी प्रयास करेगा, हम उसे देशद्रोही कहकर इत्ती लानतें भिजवायेंगे, इत्ती लानतें भिजवायेंगे कि अगली बार 'चाय' बोलने से पहले भी वो सौ बार सोचेगा कि कोई इसे personally तो न ले लेगा! यही मानकर आम जनता का EGO भी GO नहीं हो पा रहा. उनकी किसी बात पर आप टोकिये, फिर देखिये कैसे टसुए भर-भर रोना-पीटना मचता है! उन्हें भी बस अपनी तारीफ़ ही चैये, भले ही वो झूठी हो तो क्या!
बापू का मतलब था कि "बुरा मत करो, बुरा मत करो, बुरा मत करो"
"बुरा मत कहो" को सबसे सही ढंग से अगर किसी ने समझा और पालन किया है तो वो हैं टीवी शो के जज मंडल! ये अंतरिक्ष में बैठकर चुस्की या मटका कुल्फ़ी खाने की उम्मीद लिए वे प्राणीसमूह हैं जिन्हें कुछ जंचता ही नहीं! परफेक्ट में भी डिफेक्ट निकाल देना इनका प्रिय शग़ल है. न न न न... अब आप ये न समझें कि इन्हें बुरा कहने में मज़ा आता है! कदापि नहीं! बल्कि ये तो अपनी बात इस तरह से लपेटकर पेश करते हैं कि प्रतियोगी भी कन्फ्यूज़िया जाता है कि अभी मैं उदासी वाला पोज़ दूं या कि ख़ुशी की बत्तीसी चमकाऊं! कान को घुमाकर पकड़ने का आदरणीय जज साब/मेमसाब का इश्टाइल देखें-
"मुझे लगता है आज आपने आपका 100% नहीं दिया!" काहे लगता है रे? क्या वो 30% लॉकर में रखकर यहां गुल्ली-डंडा खेलने आया है?
"आप इससे बेहतर कर सकते हैं... हमें आपसे बहुत उम्मीदें हैं!" अरे, पर अभी तो बताओ न! हमने ऐसा का कर दिया! अब का हम देश से ग़रीबी हटायें! तुम तो भैया, हर साल ऐसी पचास उम्मीदों को पलटकर पूछते भी नहीं!
"अच्छी कोशिश थी!" मितरों... इसके बाद और इंसल्ट करने को कुछ शेष ही नहीं रहता. प्रतियोगी जान जाता है कि "ये गलियां ये चौबारा, यहां आना न दोबारा."
"बुरा मत देखो" इसका दर्शक रत्न पुरस्कार उस भीड़ को जाता है जो अपराध को होते देख तुरंत वहां से ख़िसक लेना ही उत्तम कर्म समझती है. कभी-कभी वो इतनी मासूम भी बन जाती है कि अपनी आंख उठाकर देखने की बजाय मोबाइल के लेंस की दिशा उस तरफ़ कर देती है पर मजाल है कि नंगी आंखों से उसने कभी कुछ बुरा देखा हो! इस विधा का प्रयोग अपने बात से पलटते ग़वाह भी वर्षों से करते आ रहे हैं और हमने भी ऐसे कई निर्णय देखे हैं कि लाश सामने है पर हत्यारा तो कोई है ही नहीं... किसी ने देखा ही नहीं!
मेरे प्यारे बापू, मैं अहिंसा और शांति की कट्टर वाली समर्थक हूं पर आजकल 'लातों के भूत बातों से नहीं मानते'. आपको लाठी घुमाते हुए इन चूज़ी नासमझों को आपके सन्देश का सार डायरेक्टली ही समझा देना था कि "नासपीटों अपने ही देश और देशवासियों का... बुरा मत करो, बुरा मत करो, बुरा मत करो! हुँह, कभी नहीं!"
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