गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार दिए जाने से कांग्रेस क्यों कंफ्यूज है?
केंद्र की बीजेपी सरकार के हर मूव का कांग्रेस के तमाम नेता बगैर सोचे समझे आनन फ़ानन में कटु प्रतिक्रिया देकर अक्सर सेल्फ गोल ही कर बैठते हैं. थोड़ा सा पॉज दे देते तो निश्चित ही गीता प्रेस के मौजूदा मामले में मौन ही रहते और वही उनके लिए लाभकारी भी होता.
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क्या जयराम रमेश बेवकूफ हैं ? एज ए पर्सन तो कदापि नहीं परंतु वे राजनीतिक इडियट जरूर है जिन्हें कन्फ्यूज़न ही कन्फ्यूज़न है, सोल्यूशन का पता नहीं. गर सोल्यूशन मिल भी गया तो क्वेश्चन क्या था पता नहीं उन्हें। दरअसल केंद्र की बीजेपी सरकार का कोई भी मूव होता है, वे और कांग्रेस के अन्य नेतागण भी बगैर सोचे समझे आनन फ़ानन में कटु प्रतिक्रिया देने से बाज नहीं आते और अक्सर सेल्फ गोल ही कर बैठते हैं. थोड़ा सा पॉज दे देते तो निश्चित ही कम से कम गीता प्रेस के मौजूदा मामले में मौन ही रहते और वही उनके लिए लाभकारी भी होता. और बुरा तब होता है जब बजाए एहसास करने के बेवक़ूफ़ी को जायज़ ठहराने के लिए सीरीज ऑफ़ बेवक़ूफ़ियां होती हैं. राजनीतिक मजबूरी देखिए उद्धव शिवसेना को अपने आराध्य वीर सावरकर का अपमान भी सुहा जाता है तभी तो जयराम द्वारा गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार 2021 देना 'सावरकर और गोडसे को पुरस्कृत करने' जैसा बताया जाना स्वीकार्य है. क्या उद्धव सहमत है कांग्रेस से कि सावरकर सम्मान के योग्य नहीं है?
ऑन ए लाइटर नोट, संजय राउत की यूएन से 20 जून को विश्व ग़द्दार दिवस घोषित किए जाने की मांग पर क्या यूएन उद्धव गुट को ही वीर सावरकर के ग़द्दार न मान ले ? दरअसल हर मामले को राजनीतिक रंग में डुबोने की ताक में रहना राजनेताओं की फितरत सी बनती जा रही है. हर मुद्दे को राजनीतिक रंग देने से दलों और नेताओं को कितना फायदा या नुकसान होता है, यह अलग बात है लेकिन सही बात तो यह है कि ऐसे विवादों का खामियाजा देश को जरूर उठाना पड़ता है.
लेकिन कांग्रेस की बदहवासी कहें या कन्फ्यूज़न जिसके तहत उनके नेताओं की स्थिति पल में तोला पल में माशा वाली है. हिंदुओं की मान्यताओं को ना तो वे निगल पाते हैं और ना ही उगल पाते हैं और जब चुनाव नजदीक आते हैं, वे खुद ही खुद को एक्सपोज़ कर देते हैं. गीता प्रेस को अगर ‘एक्सवाईजेड प्रेस’ कहा जाता तो वे इसकी सराहना करते…
जयराम रमेश ने गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार दिए जाने को सावरकर- गोडसे को पुरस्कृत करने जैसा बताया है
लेकिन चूंकि यह एक तो ‘गीता’ है और चूंकि मोदी की ज्यूरी ने पुरस्कार दिया है,इसलिए कांग्रेस को समस्या है. वरना तो इसी गीता प्रेस के फाउंडर हनुमान प्रसाद पोद्दार पर डाक टिकट जारी कर 1990 में कांग्रेस की नरसिंह राव सरकार ने सम्मानित किया था. पोद्दार अंग्रेज़ों द्वारा गिरफ्तार किए गए क्रांतिकारी’ थे और गोविंद बल्लभ पंत ने बाद में उनके नाम की भारत रत्न के लिए भी सिफारिश की थी.
कांग्रेस पार्टी के समक्ष चैलेंज है 2024 चुनाव जीतना. चूंकि राजनीतिक पार्टी है, होना भी चाहिए. लेकिन इतने कन्फ़्युजिया क्यों जाते हैं पार्टी के बड़े छोटे सभी नेता ? कल ही सबसे बड़े नेता ने मुस्लिम लीग को धर्मनिरपेक्ष बता दिया था, आसन्न मध्यप्रदेश के चुनावों को लक्ष्य करते हुए इसी कांग्रेस ने हिंदू राष्ट्र का सपना देखने वाले संगठन 'बजरंग सेना' को साथ मिला लिया है.
यह वही संगठन है जो अक्सर मुस्लिमों के खिलाफ जहर उगलता रहा है, नाथूराम गोडसे का महिमामंडन करता रहा है. और कांग्रेस के सर्वोच्च परिवार का चुनावी टेंपल रन तो जगजाहिर है ही. तो फिर जयराम रमेश क्यों बेसुरे हो गये ? सीधी सी बात है मोदी विरोध के लिए विवेक शून्य हो गये! गीता प्रेस दुनिया के सबसे बड़े प्रकाशकों में से एक है, जिसने 14 भाषाओं में 41.7 करोड़ पुस्तकें प्रकाशित की हैं.
इनमें श्रीमद्भगवद्गीता की 16.21 करोड़ प्रतियां शामिल हैं. अपनी किताबों के माध्यम से समाज में संस्कार परोसने व चरित्र निर्माण का काम भी संस्था कर रही है. गीता प्रेस के कामकाज को लेकर आज तक कोई विवाद भी पैदा नहीं हुआ. लेकिन एक ने कहा तो नए नवेले पिछलग्गू आरजेडी के मनोज झा भी सुर में सुर मिला बैठे और बेतुका सवाल कर बैठे, 'वे किस तरह का सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन लाए हैं?
उन्होंने अच्छा काम किया है, लेकिन शांति निर्माण में उनका क्या योगदान है?' तमाम पिछलग्गू नेता मानकों का हवाला देकर कुतर्क कर रहे हैं. कोई पूछे उनसे विगत जब बांग्लादेश के शेख मुजीबुर रहमान को यही पुरस्कार दिया गया था इसी मोदी की ज्यूरी द्वारा तब उन्हें मानक याद क्यों नहीं आये थे ?
जयराम रमेश कांग्रेस के जिम्मेदार नेता है और केंद्र में मंत्री भी रह चुके हैं. इस तरह के बयान सामाजिक समरसता को कमजोर तो करते ही हैं, धर्म, आस्था और संस्कारों को बढ़ावा देने वाली संस्थाओं को हतोत्साहित भी करते हैं. वैसे भी हर धर्म व उससे जुड़ी संस्थाओं को अपने कामकाज के प्रचार प्रसार का पूरा हक़ है.
गीता प्रेस के बारे में देश के तमाम बड़े नेताओं और धर्मगुरुओं की राय सकारात्मक ही रही है. संस्था ने सकारात्मकता की एक और मिसाल पेश करते हुए किसी प्रकार का दान स्वीकार न करने के अपने सिद्धांत के तहत एक करोड़ रुपये की पुरस्कार राशि लेने से इंकार कर जयराम रमेश के दुर्भावना पूर्ण ट्वीट का करारा जवाब दे दिया. साथ ही पुरस्कार के लिए कृतज्ञता प्रकट करते हुए सरकार से अनुरोध किया कि वह इस राशि को कहीं और खर्च करे.
राजनेताओं को राजनीतिक दलों की कार्यशैली या उनके कार्यक्रमों को लेकर आपत्ति हो सकती है, पर किसी भी संस्था को बेवजह विवादों में घसीटना अशोभनीय ही कहा जाएगा. परंतु फिर वही बात , आज के दौर में राजनीतिक शुचिता की बात करना ही बेमानी है, दलों व नेताओं की रणनीति वोट बैंक की चिंता और सुर्खियां बटोरने की आतुरता के इर्द गिर्द घूमती है.
लेकिन राजनेताओं से, खासकर बड़े नेताओं से, यह तो अपेक्षा की जाती है कि वे बयान सोच समझकर दें. बयान देकर फिर वापस ले लेने से या पार्टी द्वारा व्यक्तिगत बताकर पल्ला झाड़ लेने से भी नुकसान होता ही है और कभी कभी उसकी भरपाई भी नहीं हो पाती. गांधी से सहमति असहमति कब नहीं रही है ? लेकिन इससे उनकी महानता तो कम नहीं होती ना !
गीता प्रेस की प्रसिद्ध पत्रिका 'कल्याण' में अक्सर महामना मालवीय और गांधी जी एडिटोरियल लिखा करते थे. संस्था के फाउंडर हनुमान प्रसाद पोद्दार भी गांधी जी की कई बातों से असहमति रखते थे, फिर भी अक्सर वे यमुना लाल बजाज जी के साथ गांधी जी के पास जाते थे और चर्चा करते थे. बाबा साहब अंबेडकर के भी गांधी जी से मतभेद थे.
हिंदू कोड बिल की वजह से गीता प्रेस ने अंबेडकर जी का विरोध भी किया था. फिर गांधी जी के जो विचार महिलाओं के लिए थे, आज वे विचार महिला विरोधी कहलाते हैं. कहने का मतलब व्यक्तिगत विचार भिन्न भिन्न होते हैं, पर्सनल लाइफ भी अनपेक्षित हो सकती है, परंतु इन वजहों से किसी की महानता कम नहीं होती. और अंत में सौ बातों की एक बात गीता प्रेस है गीता के लिए और गीता तो गांधी के दिल के सबसे नजदीक थी. निःसंदेह यदि आज गांधी होते तो गीता प्रेस को मिले इस पुरस्कार पर उन्हें सबसे ज्यादा प्रसन्नता होती !
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