गोरखपुर में तो लगता है योगी ही बीजेपी को ले डूबे
गोरखपुर के जातीय समीकरण, अंदरूनी गुटबाजी और अस्पताल में बच्चों की मौत, ऐसे तमाम कारण हैं जो बीजेपी की हार की वजह बने हैं. योगी ने हार यूं ही नहीं स्वीकार की है, ज्यादा जिम्मेदार भी वो खुद ही लगते हैं.
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सोनिया गांधी के ये कहने पर कि बीजेपी के 'अच्छे दिन...' का हाल 'शाइनिंग इंडिया' जैसा होगा, केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने कड़ी आपत्ति जतायी थी. गडकरी का कहना था कि सोनिया गांधी को ये नहीं दिखायी दे रहा कि बीजेपी एक के बाद एक चुनाव जीतती जा रही है.
ज्यादा दिन नहीं बीते और योगी आदित्यनाथ को मानना पड़ा कि अति आत्मविश्वास के कारण ही बीजेपी को हार का मुहं देखना पड़ा है.
ओवरकॉन्फिडेंस ले डूबा!
गोरखपुर में गहमागहमी तो लाजिमी थी, लेकिन बवाल भी जम कर हुए. मतगणना स्थल से मीडिया को बाहर खदेड़ने का मुद्दा यूपी विधानसभा के साथ साथ लोक सभा में भी उठा. समाजवादी पार्टी के धर्मेंद्र यादव की अगुवाई में नारेबाजी करते करते पार्टी सांसद सदन के वेल तक पहुंच गये.
जब बवाल ज्यादा हुआ तो चुनाव आयोग की ओर से भी सफाई आर्ई और गोरखपुर के डीएम भी मीडिया से मुखातिब हुए. चुनाव आयोग ने सफाई दी कि मतगणना स्थल के अंदर मीडिया सेंटर तो है लेकिन ईवीएम के पास जाने की अनुमति नहीं है.
'ये हार मुझे स्वीकार है...'
वोटों की गिनती के दौरान गोरखपुर के डीएम राजीव रौतेला की भूमिका पर भी सवाल उठे. विपक्ष का आरोप रहा कि जब बीजेपी उम्मीदवार उपेंद्र शुक्ल दूसरे दौर में पिछड़ गये तो जिलाधिकारी ने नतीजों की घोषणा रोक दी. बाद में डीएम रौतेला ने सफाई दी कि ऑब्जर्वर की दस्तखत नहीं होने के कारण नतीजे नहीं घोषित किये जा रहे थे.
एक टीवी डिबेट में सीनियर पत्रकार शरद प्रधान का कहना रहा कि डीएम राजीव रौतेला सीएम योगी के बहुत खास हैं. गोरखपुर में ऑक्सीजन की कमी के चलते बच्चों की मौत के बाद कई अधिकारी हटाए गये लेकिन मुख्यमंत्री से नजदीकी के चलते डीएम पर कोई आंच नहीं आई - और फिर वो एहसानों का बदला चुका रहे थे.
बहरहाल, वो घड़ी भी आई जब बीजेपी को गोरखपुर में हार स्वीकार करनी पड़ी. हार कबूल करने के लिए खुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ आगे आये और माना कि अति आत्मविश्वास के चलते बीजेपी की चुनाव में शिकस्त हुई.
ये तो होना ही था...
योगी आदित्यनाथ ने माना कि उपचुनावों में बीजेपी की हार बड़ा सबक है. योगी ने कहा कि वो हार की समीक्षा करेंगे. योगी के मुताबिक उन लोगों ने समाजवादी पार्टी और बीएसपी के गठबंधन को बड़े हल्के में लिया, लेकिन वो बहुत भारी पड़ा.
योगी जो भी कहें और जो भी मानें, फूलपुर की बात और है लेकिन गोरखपुर की हार बीजेपी के लिए कोई मामूली सबक नहीं है. गोरखपुर की हार बीजेपी के लिए ऐसी शिकस्त है जिसे बीजेपी छुपाने की कोशिश करती रही, लेकिन आखिरकार टाल नहीं सकी.
क्या गोरखपुर में बीजेपी की हार सिर्फ समाजवादी पार्टी और बीएसपी के साथ चुनाव लड़ने से हुई है. जिस सीट पर योगी खुद पांच बार सांसद रह चुके हों - और वो सीट उन्हें उनके गुरु से आशीर्वाद और विरासत में मिली हो - उसे गंवा देना किसी को कैसे हजम हो सकता है.
गोरखपुर की सियासी तस्वीर पर गौर करें तो मालूम होता है कि बीजेपी की हार की वजह एक नहीं बल्कि कई हैं. अव्वल तो बीजेपी अंदरूनी गुटबाजी का शिकार हो गयी है, लेकिन लगता है पार्टी को स्थानीय जातीय समीकरण ठीक से समझ में नहीं आया.
गोरखपुर और आसपास के इलाके में बीजेपी कार्यकर्ता मुख्य तौर पर दो गुटों में बंटे हुए हैं - ब्राह्मण और ठाकुर. गोरखपुर में योगी का दबदबा तो है ही उन पर ठाकुर गुट को संरक्षण देने के आरोप भी लगते रहे हैं. बीजेपी को अरसे से चिंता सताती रही कि कैसे वो ब्राह्मणों की नाराजगी दूर करे. शिव प्रताप शुक्ला को राज्य सभा भेजे जाने और फिर मोदी सरकार में मंत्री बनाने के पीछे भी यही वजह समझी गयी.
गोरखपुर सीट पर हुए उप चुनाव में भी बीजेपी ने ब्राह्मण उम्मीदवार उतारा. तो क्या समझा जाये कि ब्राह्मण कैडिडेट बीजेपी के ठाकुर समर्थकों को नागवार गुजरा जो सिर्फ योगी को ही अपना नेता मानते हैं.
अब ये सवाल तो बनता ही है कि आखिर बीजेपी उम्मीदवार के चयन में योगी की कितनी भूमिका रही? कहीं ऐसा तो नहीं कि बीजेपी ने समर्थकों के साथ साथ योगी के मन की बात भी नजरअंदाज करते हुए ऊपर से ही उम्मीदवार थोप दिया और नतीजा सामने है.
एक बात और. गोरखपुर अस्पताल में बच्चों की मौत पर योगी सरकार का रवैया हर किसी को हास्यास्पद लगा था. योगी और उनके साथी अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी की बात आखिर तक झुठलाते रहे, जबकि सारी जांच पड़ताल उसी के इर्द गिर्द घूमती रही. कुछ अधिकारियों पर ठीकरा फोड़ने के बाद सरकारी अमले ने समझा सब ठीक ठाक हो गया. यही सबकी भूल थी.
निकाय चुनाव में भारी जीत दर्ज कर योगी ने वाहवाही तो खूब लूटी लेकिन अपने ही वॉर्ड में चूक गये. जहां से मोदी खुद वोटर हैं, बीजेपी प्रत्याशी को हार झेलनी पड़ी थी.
योगी भले ही अयोध्या से लेकर गोरखपुर तक दिवाली मनायें, पूरे देश में घूम घूम कर बीजेपी के लिए चुनाव प्रचार करें - लेकिन योगी की अपने घर में हार किसी को भी हजम नहीं होती. योगी के समर्थक, खासकर हिंदु युवा वाहिनी के कार्यकर्ता शुरू से ही सवालों के घेरे में रहे हैं. ऐसा भी हुआ है कि योगी के समर्थक बीजेपी के ही खिलाफ खड़े होते रहे हैं. ये ठीक है कि योगी के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद वो ऐसा कोई काम न करते हों जिससे उनके नेता की फजीहत हो, लेकिन जब मन के खिलाफ हो तो खामोशी तो अख्तियार कर ही सकते हैं. लगता है बीजेपी ऐसी ही बातों की शिकार हो गयी है. चुनाव के वक्त भी कार्यकर्ताओं की सुस्ती के किस्से सुने गये थे. गोरखपुर में कम वोटिंग की भी ये वजह रही. फिर तो हार स्वीकार कर योगी बीजेपी पर कोई एहसान भी नहीं कर रहे, ये बात अखिलेश यादव कहें, मायावती कहें या कोई और - फर्क क्या पड़ता है.
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