तो क्या अब सरकार की आलोचना के लिए भी सरकार से ही आदेश लेना होगा
सत्ता में बैठे राजनेता लोकतंत्र की उस प्रकृति से छेड़छाड़ करते दिखते हैं जिसमें कहा गया है कि "जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन". वो अब इस वाक्य को कुछ इस अंदाज़ में लिखना चाहते हैं "नेता द्वारा, नेता के लिए, नेता का शासन."
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राजस्थान सरकार का एक अध्यादेश आजकल विवादों में है. अध्यादेश के मुताबिक, अब कोई भी व्यक्ति जजों, अफसरों और लोक सेवकों के खिलाफ अदालत के जरिये एफआईआर दर्ज नहीं करा सकेगा. मजिस्ट्रेट बिना सरकार की इजाजत के, न तो जांच का आदेश दे सकेंगे और न ही प्राथमिकी दर्ज कराने का आदेश दे सकेंगे. इसके लिए उसे पहले सरकार से मंजूरी लेनी होगी. अध्यादेश में यह भी कहा गया है कि किसी भी जज, मजिस्ट्रेट या लोकसेवक का नाम और पहचान मीडिया तब तक जारी नहीं कर सकता है, जब तक सरकार के सक्षम अधिकारी इसकी इजाजत नहीं दें. क्रिमिनल लॉ राजस्थान अमेंडमेंट ऑर्डिनेंस 2017 में साफ तौर पर मीडिया के लिखने पर रोक लगाई गई है.
कुछ ऐसा ही विवाद इस समय दक्षिण भारत में भी देखने को मिल रहा है. दरअसल हाल ही में रिलीज़ हुई फिल्म मर्सल पर भारतीय जनता पार्टी का आरोप है कि फिल्म जीएसटी को लेकर गलत दिखा रही है. इस फिल्म का एक किरदार सिंगापुर और भारत के जीएसटी की तुलना करता है और बदले में मिलने वाली सुविधाओं को भी बताता है. इसी दृश्य में देश के अस्पतालों की बदहाली का भी जिक्र किया जाता है और अस्पतालों में सिलिंडर की कमी और चूहों के काटने से बच्चों की मौत की भी बात की गयी है.
फिल्म के एक डायलॉग ने भाजपा को हिला दिया
कुछ महीने पहले ऐसा ही विवाद फिल्म इंदु सरकार को लेकर भी हुआ था. तब कांग्रेसी नेताओं ने इस फिल्म पर इंदिरा गांधी की नकारात्मक छवि पेश करने का आरोप लगाया था. फिल्म इंदु सरकार इंदिरा गांधी द्वारा लगायी गयी इमरजेंसी पर आधारित फिल्म थी.
इन कुछ मामलों को देखकर एक बात तो साफ़ है कि कोई भी सरकार अपने खिलाफ हो रही आलोचना बर्दाश्त करने के मूड में नहीं दिखती. फिर चाहे मामला भारतीय जनता पार्टी की सरकार का हो या कांग्रेस की सरकार का या फिर किसी और सरकार का. हालांकि अभी कांग्रेस पार्टी वसुंधरा राजे के अध्यादेश पर जमकर बवाल काटती नजर आ रही. मगर साल 2013 में केंद्र की कांग्रेस सरकार उस समय विवादों में आ गयी थी, जब मनमोहन सिंह सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले को बदलने के लिए अध्यादेश ला दिया था.
दरअसल 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने दोषी पाए गए सांसदों और विधायकों को अयोग्य करार देने के आदेश दिए थे. मगर तत्कालीन केंद्र सरकार इस फैसले को पलटने के लिए एक अध्यादेश लेकर आयी थी. उस समय कांग्रेस पर आरोप लगे थे कि ऐसा कर वो केंद्र में अपने साझीदार रहे लालू प्रसाद यादव को बचाने की कोशिश कर रही है. लालू यादव पर उस समय चारा घोटाला मामले में फैसला आना था. हालांकि बाद में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने इस अध्यादेश को 'नॉनसेन्स' बताते हुए फाड़ दिया था.
कहीं आप तुगलक तो नहीं?
यानी समय समय पर सत्ता में बैठे लोग इस तरह के फैसले लेते आये हैं, जो उनके अनुकूल हो. अब अगर बात वसुंधरा राजे सरकार के अध्यादेश की ही बात करें तो यह अध्यादेश खोजी पत्रकारिता के मूलभूत स्वभाव पर ही रोक लगाना चाहती है. जिसमें बिना आदेश के किसी के बारे में लिखा तक नहीं जा सकता. हालांकि ऐसे कई उदहारण हैं जिसमें खोजी पत्रकारों ने अपनी खबरों के जरिये कई बड़े घोटालों का पर्दाफाश किया है. मगर राजस्थान सरकार के अध्यादेश के बाद शायद ही यह संभव हो पाए. हालांकि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार सार्वजनिक मंचों से इस बात की वकालत करते आये हैं कि सरकार की आलोचना भी अति अनिवार्य है. मगर लगता है कि उनकी ही पार्टी के लोग उनके इस बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दे रहे हैं.
इस तरह के अध्यादेश या फिल्मों पर विवाद कहीं ना कहीं संविधान द्वारा भारत के हर नागरिक को मिले अभिव्यक्ति की आज़ादी को भी ठेस पहुंचते हैं. भारत के संविधान ने भारत के हर नागरिक को बोलने, लिखने और संवाद करने की आज़ादी दे रखी है.
हालांकि सत्ता में बैठे राजनेता समय-समय पर लोकतंत्र की उस प्रकृति से भी छेड़छाड़ करते दिखते हैं जिसमें कहा गया है कि "जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन". मगर लगता है हमारे हुक्मरान इस वाक्य को कुछ इस अंदाज़ में लिखना चाहते हैं "नेता द्वारा, नेता के लिए, नेता का शासन."
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