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Updated: 29 मार्च, 2016 03:23 PM
डा. दिलीप अग्निहोत्री
डा. दिलीप अग्निहोत्री
  @dileep.agnihotry
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विधेयक के संबंध में राज्यपाल की शक्तियों पर विचार से पहले दो तथ्यों पर ध्यान देना चाहिए. पहला यह कि राज्यपाल राज्य विधान मण्डल का एक अंग होता है. इसका तात्पर्य है कि उसकी सहमति के बिना कोई भी विधेयक कानून नहीं बन सकता. यह संसदीय शासन प्रणाली की अनिवार्य संवैधानिक विशेषता होती है, जिसे भारतीय संविधान में शामिल किया गया. दूसरा तथ्य यह कि संविधान में विधेयक पर राज्यपाल की सहमति अथवा असहमति की समय सीमा का कोई उल्लेख नहीं है. विधेयक के संबंध में राज्यपाल को एक अन्य विशेषाधिकार है. वह विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ भेज सकता है. यहां भी गौरतलब है कि राष्ट्रपति के विधेयक पर विचार संबंधी किसी समय सीमा का संविधान में कोई उल्लेख नहीं है.

यह सही है कि विधेयक को रोकने, राष्ट्रपति के विचारार्थ भेजने आदि के संबंध में विवादों की सूचि लम्बी है, लेकिन इन विवादों में भी स्पष्ट विभाजन रेखा है. एक तरफ वह विवाद हैं जहां किसी राज्यपाल ने पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर विधेयकों को मंजूरी नहीं दी अथवा उसे लंबित रखने के उद्देश्य से राष्ट्रपति को भेज दिया.

लेकिन उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाईक पर पूर्वाग्रह जैसा कोई आरोप नहीं लगाया जा सकता क्योंकि वह प्रत्येक विधेयक पर संविधान के आधार पर विचार करते हैं, संविधान विशेषज्ञों से सलाह लेते हैं. इसके बाद वह विधेयकों पर फैसला करते हैं. विधेयक पर उनके इकरार और इनकार का बिन्दुवार स्पष्टीकरण होता है. कुछ समय पहले उन्होंने विधान परिषद की सदस्यता के लिए नामित करने की मुख्यमंत्री द्वारा भेजी गयी सूची पर आपत्ति दर्ज की थी. निश्चित ही सत्ता पक्ष के कुछ सदस्यों को यह बात नागवार गुजरी थी लेकिन राज्यपाल ने संविधान के उन शब्दों का उल्लेख किया, जिसमें नामित सदस्यों की सदस्यता का स्पष्ट वर्णन था. उन्होंने सूची के एक-एक नाम को संविधान में वर्णित अर्हता से जोड़ा, फिर फैसला लिया. इस पर राज्यपाल ने संविधान के प्रति अपने दायित्वों का अक्षरशः निर्वाह किया. किसी के प्रति पूर्वाग्रह नहीं था, इसलिए आपत्तियों का औचित्य नहीं था.

इस प्रकार राज्यपाल के क्रियाकलापों पर दो बिन्दुओं पर विचार होना अपरिहार्य है. पहला संविधान के प्रावधान, दूसरा उसका व्यवहार. संविधान की व्यवस्था पर गौर करें तो राज्यपाल को स्वविवेक का स्पष्ट अधिकार दिया गया है. संविधान का अनुच्छेद 163 राज्यपाल को स्वविवेक से कार्य करने का अधिकार देता है. इसमें कहा गया है कि- जिन बातों के संबंध में संविधान द्वारा या संविधान के अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने कार्यो का स्वविवेक से प्रयोग करें. इससे स्पष्ट है कि राज्यपाल को कतिपय स्वविवेक संबंधी शक्तियां प्राप्त हैं. इन पर आपत्ति नहीं उठाई जा सकती. विधेयक पर फैसला करना भी इसी श्रेणी में आता है. इस पर आपत्ति करने से पहले यह देखना चाहिए कि राज्यपाल ने विधेयक क्यों रोका है. श्री रामनाईक की इस बात के लिए प्रशंसा करनी होगी कि वह विधेयक को रोकने अथवा उसे राष्ट्रपति के पास भेजने की स्पष्ट वजह का भी उल्लेख करते हैं. मंत्रिमण्डल ही नहीं, इसकी जानकारी प्रदेश के आमजन को भी हो जाती है. बेशक राज्यपाल प्रदेश का संवैधानिक प्रमुख होता है. वह मंत्रिमंडल की सलाह पर कार्य करता है. फिर भी वह अनुच्छेद 174 के तहत विधानसभा का अधिवेशन बुलाने की कोई तिथि निश्चित कर सकता है. 2004 में सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने अपने एक फैसले में कहा था राज्यपाल अपने विवेक के आधार पर अर्थात राज्य मंत्रिपरिषद की सहायता और परामर्श के बिना किसी मंत्री के विरूद्ध मुकदमा चलाने की अनुमति प्रदान कर सकता है. अनुच्छेद 200 के अनुसार राज्यपाल राज्य विधानमण्डल द्वारा पारित किसी विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति हेतु सुरक्षित रख सकता है.

अनुच्छेद 167 के अनुसार राज्य के मुख्यमंत्री का यह कर्तव्य है कि राज्य प्रशासन से संबंधित मंत्रिपरिषद के सभी निर्णयों और विचाराधीन विधेयक की सूचना राज्यपाल को दे और राज्यपाल इस संबंध में अन्य आवश्यक जानकारी मांग सकता है. जाहिर है कि किसी राज्यपाल ने पूर्वाग्रह अथवा मंत्रिमण्डल के कार्यो में बाधा ड़ालने के मकसद से विधेयक रोका है, तो उसे अनुचित माना जा सकता है. गुजरात की पूर्व राज्यपाल कमला बेनीवाल इसी प्रवृत्ति के कारण आलोचना की शिकार होती थीं.

रामनाईक प्रत्येक विधेयक पर संविधान के आधार पर विचार करते हैं. ऐसे में उनकी आलोचना अपरोक्ष रूप से संविधान के प्रावधान और संविधान की भावना के विपरीत कही जा सकती है. ऐसे में उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष की इस सलाह का औचित्य नहीं हो सकता कि जनहित के बिलों पर उन्हें गंभीरता से सोचना चाहिए. यह आरोप निराधार है राज्यपाल ने ऐसा कोई विधेयक नहीं रोका जिससे जनहित बाधित हुआ हो. सत्ता में बैठे लोगों को आत्मचिंतन करना चाहिए. उन्हें सोचना चाहिए कि क्या किसी विधेयक को रोकने मात्र से एक भी महकमे में भ्रष्टाचार रोकना मुश्किल हुआ है तो क्या अन्य सभी क्षेत्रों में भ्रष्टाचार समाप्त हो गया, क्या भ्रष्टाचार रोकने के लिए मंत्रियों के हाथों में पर्याप्त ताकत नहीं है. बहानों से काम नहीं चल सकता. भ्रष्टाचार रोकने के लिए इच्छाशक्ति चाहिए, नियमों व कानूनों की कमी नहीं है.

राज्यपाल ने संसदीय कार्यमंत्री के विधानसभा में दिए गए जिस भाषण पर आपत्ति दर्ज की, उसे अनुचित नहीं कहा जा सकता. राज्यपाल विधानमण्डल के अंग है, संवैधानिक मुखिया हैं. ऐसे में उनके संविधानसम्मत कार्यो पर आपत्ति अनुचित है. मेयरों को हटाने संबंधी विधेयक में स्थानीय प्रजातंत्र का गंभीर संवैधानिक विषय समाहित है. इस पर सतही या जल्दबाजी में फैसला संविधान की भावना के विपरीत होता. ऐसे में राज्यपाल अपनी जगह पर ठीक हैं. उनका आचरण संविधान के अनुकूल है.

लेखक

डा. दिलीप अग्निहोत्री डा. दिलीप अग्निहोत्री @dileep.agnihotry

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं

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