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Updated: 13 दिसम्बर, 2017 10:24 PM
राहुल कंवल
राहुल कंवल
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हाई वोल्टेज एक्शन के बाद गुजरात गुरुवार को दूसरे और आखिरी चरण के मतदान के लिए जैसे तैयार है, वैसे इस चुनावी रणक्षेत्र को कवर करने के लिए किए गए राज्य के मेरे चार दौरों के आधार पर जानीं बड़ी बातों को मैंने एक जगह एकत्र किया है. ये निष्कर्ष राज्य के आम और खास आदमी से घंटों हुई बातचीत का नतीजा हैं.

1- बीजेपी के लिए बीते दो दशक की सबसे कठिन लड़ाई

कैमरे पर बीजेपी नेता अति आश्वस्त दिखते हैं. लेकिन कैमरा हटते ही ये नेता स्वीकार करते हैं कि यह बहुत मुश्किल चुनाव रहा है. बीजेपी के एक दिग्गज नेता ने कबूल किया कि पार्टी को बीते दो दशकों में गुजरात में किसी भी चुनाव में इतना पसीना नहीं बहाना पड़ा जितना कि इस बार. कांग्रेस, जिसका अतीत के चुनावों में मध्य में ही चूक जाने का ट्रैक रिकॉर्ड रहा है, इस बार ये ग्रैंड ओल्ड पार्टी टीम की तरह एकजुट होकर सामने आई. बीजेपी ने जैसे सोचा था, कांग्रेस ने उसकी तुलना में कहीं मजबूत तरीके से चुनावी रण में अपनी मौजूदगी दर्ज कराई.

बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं ने खुलासा किया कि जुलाई में जीएसटी आने के बाद राज्य में उलट प्रतिक्रिया इतनी जबरदस्त थी कि पार्टी के खुद के कार्यकर्ताओं ने ही महसूस करना शुरू कर दिया था कि बीजेपी शायद चुनाव हार भी सकती है. लेकिन अब गांधीनगर में बीजेपी के दफ्तर ‘श्रीकमलम’ में उत्साह का माहौल है. साथ ही पार्टी को भरोसा है कि उसने नुकसान की भरपाई कर ली है और 18 दिसंबर को फिनिशिंग लाइन पार कर लेगी. ये देखना दिलचस्प है कि बीजेपी के नेता भी अब 150 से ज्यादा सीटें हासिल करने की बात नहीं कर रहे हैं.

2- राहुल गांधी अब बदली हुई शख्सियत

एक नेता, जिसका लंबे अर्से से ‘पप्पू’  कह कर उपहास उड़ाया जाता रहा और राजनीतिक बोझ कह कर खारिज किया जाता रहा, गुजरात कैम्पेन ने उसी राहुल गांधी को नए अवतार में देखा. लोगों के बीच भाषण की बात है तो राहुल हालांकि अब भी मोदी के सामने कहीं नहीं टिकते, लेकिन उनमें पहले की तुलना में बड़ा बदलाव आया है. राहुल गांधी क्या कहना चाहते हैं, इसे सुनने के लिए लोग पहले की तुलना में अब कहीं ज्यादा दिलचस्पी ले रहे हैं. नए कांग्रेस अध्यक्ष ने सार्वजनिक वक्ता के तौर पर अपने प्रदर्शन को ऊंचा किया है. अब उनके भाषणों में नाटकीयता का पुट दिखाई देता है. अब उनके संदेश कहीं अधिक धारदार और तर्कसंगत लगते हैं. 

इस चुनाव अभियान में राहुल मतदाताओं के दिमाग में विकास के ‘गुजरात मॉडल’ को लेकर संशय के बीज बोने में कामयाब रहे हैं. राहुल की रैलियों में आने वाली भीड़ में जोश दिखाई दिया. राहुल जब भी मंच पर आते तो मतदाता वास्तव में उन्हें लेकर उत्साहित दिखते. ये नजारा उसके उलट था जो इस रिपोर्टर ने अतीत के चुनावों में देखा था. वहां लगता था कि भीड़ को प्रायोजित ढंग से लाया गया है और वहां लोग यही इंतजार करते दिखते कि कब राहुल का भाषण खत्म हो और वो अपने घर वापस जा सकें. 

हालांकि, राहुल अपने भाषणों में अब भी चूक करते दिखते हैं. जैसे कि आणंद की रैली में उन्होंने कहा कि वे सरदार पटेल के बारे में बात करना चाहते हैं और भाषण में आगे उन पर बोलेंगे. लेकिन भाषण खत्म हो गया और वो सरदार पटेल पर नहीं लौटे. साणंद के पास गांवों के सही नाम लेने में भी उन्हें दिक्कत हुई. साणंद वही जगह है जहां कथित तौर पर कारपोरेट जगत के लोगों को कौड़ियों के भाव जमीन देने के आरोप लगे. हालांकि राहुल का जैसे पहले गलत उच्चारण पर मखौल उड़ाया जाता था, इस बार भीड़ में लोगों ने उनका उच्चारण सही कराने में सहयोग किया. ग्रामीणों की ये मदद करने में अधिक दिलचस्पी दिखी कि राहुल मजबूती से खड़े हों और कहीं लड़खड़ाएं नहीं. ये बड़ा बदलाव है.    

राहुल अपनी इस नई हासिल की गई राजनीतिक दृढ़ता को मतगणना के दिन के बाद भी क्या बनाए रखेंगे, ये अब भी बड़ा सवाल है. क्या वो फिर नए साल के लंबे ब्रेक के लिए भारत से बाहर उड़ते हैं या इसकी जगह मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पार्टी के पुनर्निर्माण को तरजीह देते हैं? इन तीनों राज्यों में अगले साल चुनाव होने हैं. अमेरिका और यूरोप में नेताओं के जिम्मेदार पदों पर होते हुए भी बार-बार छुट्टियों के लिए ब्रेक लेने पर कोई नाक-भौं नहीं चढ़ाता. मगर राहुल का मुकाबला मोदी और अमित शाह से है जो इसे जोर-शोर से मुद्दा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे. मोदी और शाह दोनों ही 24x7 यानि वो हफ्ते के सातों दिन के 24 घंटे सक्रिय रहने वाले राजनेता हैं. अगर राहुल अपने इस नए नवेले जोश को बरकरार रखना चाहते हैं तो उन्हें समझना होगा कि भारतीय राजनीति में छुट्टी का ब्रेक लेने का कभी जोखिम नहीं लिया जा सकता.    

Rahul Gandhi, Modi, Hardik Patelगुजरात चुनाव के तीन बड़े किरदार : राहुल गांधी, मोदी और हार्दिक पटेल. 

3- चुनाव की धुरी जैसा कोई बड़ा मुद्दा नहीं

2017 में अभियान में अलग-अलग मुद्दों को एक साथ उठाया गया. इनमें एक भी ऐसा मुद्दा नहीं था जो पूरे चुनाव की धुरी बन सका. 2002 चुनाव गोधरा की घटना के बाद दंगों के साम्प्रदायिक माहौल में हुए. 2007 चुनाव में गोधरा की राख का सुलगना जारी था और ‘हिंदू हृदय सम्राट’  नरेंद्र मोदी ने विकास के ‘गुजरात मॉडल’  का लाभांश लेना शुरू कर दिया था. 2012 चुनाव में मोदी की प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा ने स्प्रिंग बोर्ड का काम किया. लेकिन 2017 में तस्वीर अलग ही दिखाई दी. 22 साल गुजरात की सत्ता में रहने की वजह से बीजेपी के खिलाफ एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर (सत्ता विरोधी रूझान) गहरा रहा था. बीजेपी के मजबूत पाटीदार वोट बैंक को पटेल आंदोलन ने तोड़ डाला. बेरोजगारी की शिकायत करते युवा आक्रोश में दिखे. और सबसे बड़ी बात नरेंद्र मोदी खुद बीजेपी की ओर से मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं हैं. ग्रामीण इलाकों में किसानों और पाटीदारों के बीजेपी से नाराज होने की वजह से शहर-गांव का विभाजन गहरा है. शहरी क्षेत्रों में कारोबारी बीजेपी से नाखुश तो हैं लेकिन इतने नहीं कि उसके हक में वोट ही ना डालें. 

कच्छ-सौराष्ट्र में नाराज वोटर बीजेपी की संभावनाओं को चोट पहुंचा सकते हैं. उत्तर गुजरात, जो कि पटेल और ठाकोर आंदोलनों का गढ़ रहा है, में बीजेपी की सीटों की संख्या में अतीत के चुनावों की तुलना में कमी आएगी. लेकिन शहरी, दक्षिण और मध्य गुजरात के वोटरों का झुकाव मजबूती से बीजेपी के साथ बना हुआ है. इन क्षेत्रों में भगवा पार्टी का कुछ वोट शेयर कम भी होता है तो भी पिछले चुनावों में यहां बीजेपी की जीत का अंतर इतना विशाल रहा है कि ऐसी नौबत नहीं बनने वाली कि पार्टी की संभावनाएं उलट जाएं. 

4- मोदी हैं बीजेपी की ‘वन मैन आर्मी’

साणंद में प्रधानमंत्री का गला इतना बैठा हुआ था कि बोलना भी मुश्किल था. इसके बावजूद मोदी ने रैली को संबोधित किया. 2017 के नरेंद्र मोदी की तुलना नब्बे के दशक की भारतीय क्रिकेट टीम के सचिन तेंदुलकर से की जा सकती है. मोदी सही मायने में बीजेपी की ‘वन मैन आर्मी’ हैं. अगर वो नाकाम होते हैं तो पूरी बीजेपी के साथ भी ऐसा होगा. कारोबारी, युवा और किसान कहते हैं कि वो बेरोजगारी, नोटबंदी और जीएसटी के तिहरे कोड़े से नाखुश हैं लेकिन ऐसा कहने वाला एक भी नहीं जिसे प्रधानमंत्री के नाते खुद मोदी से कोई शिकायत हो. साढ़े तीन साल केंद्र की सत्ता में होने के बावजूद नरेंद्र मोदी के चारों ओर टेफलॉन कोटिंग जैसी चमक को कोई नुकसान नहीं पहुंचा है. 

अगर नरेंद्र मोदी फैक्टर मौजूद नहीं होता तो 22 साल का सत्ता विरोधी रूझान 2017 चुनाव में बीजेपी की लुटिया डुबो सकता था. नरेंद्र मोदी जानते हैं कि 2012 में गुजरात में बीजेपी को जितनी सीट मिली थीं, उससे एक भी कम सीट इस चुनाव में आती है तो आलोचक इसे प्रधानमंत्री की खुद की साख पर चोट मानेंगे. प्रचार अभियान के काफी हिस्से में प्रधानमंत्री को पिछड़ी जाति का होने के नाते सवर्ण मानसिकता वाले विपक्ष के द्वेष के पीड़ित के तौर पर निरूपित किया गया. ये बीजेपी के निरुत्साही वोटरों में जोश भरने की सोची समझी रणनीति थी. पार्टी नेता मानते हैं कि इस तरह के दांव आजमाने से बीजेपी को अतिरिक्त वोटरों का साथ बेशक ना मिले, इससे पार्टी के उन आस्थावानों को साथ जोड़े रखने में जरूर मदद मिलेगी जो किसी ना किसी वजह से जोश नहीं दिखा रहे थे.  

5- बीजेपी की आंखों में 24 वर्षीय युवक सबसे बड़ा कांटा

प्रधानमंत्री अपनी रैलियों में हार्दिक पटेल के बारे में बात नहीं करते. यही दिखाना चाहा कि हार्दिक फैक्टर कोई मायने नहीं रखता. लेकिन अनौपचारिक बातचीत में बीजेपी नेता मानते हैं कि 24 वर्षीय पाटीदार नेता शक्तिशाली विरोधी के तौर पर उभरा है. हालांकि, हार्दिक की उम्र अभी इतनी नहीं है कि वो चुनाव लड़ सकें, लेकिन ये युवा पाटीदार नेता वहां तक जाने की हिम्मत दिखा रहा है जहां तक जाने का साहस अभी तक कोई और गुजराती नेता नहीं दिखा सका है. हार्दिक खुले तौर पर मोदी के लिए ‘फेंकू’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं और भीड़ से उन्हें तालियां और सीटियां मिलती हैं. किसी भी गुजराती नेता ने मोदी पर प्रहार करते हुए इतनी आक्रामकता नहीं दिखाई है जितना हार्दिक पटेल दिखा रहे हैं. 

ये कुछ-कुछ वैसा ही है जैसा कि अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में किया. बीजेपी के लिए ऐसे विरोधी से निपटना मुश्किल साबित हो रहा है, जिसके पास छुपाने के लिए कुछ नहीं है और ना ही जिसे कुछ खोने का डर है. बीजेपी ने उम्मीद लगाई थी कि आनंदीबेन पटेल को सीएम की कुर्सी से हटाने के बाद हार्दिक की पाटीदार समुदाय पर पकड़ कमजोर हो जाएगी. लेकिन गुजरात में हार्दिक की रैलियों और रोड शो को देख कर लगता नहीं कि इस युवा नेता की पाटीदार समुदाय में अपील में कहीं कोई कमी आई है.

हार्दिक की रैली, खास तौर पर जो शाम को होती हैं, में जाने पर रॉक कंसर्ट सरीखा ही महसूस होता है. हार्दिक की बातों पर समर्थक उछलते नजर आते हैं. हार्दिक ने इंडिया टुडे टीवी को बताया कि अगर गंभीर प्रस्ताव सामने आता है तो चुनाव के बाद वे कांग्रेस में शामिल होने को भी तैयार हैं. हालांकि, निजी तौर पर वो अगले पांच साल में तीसरा मोर्चा खड़ा करने की महत्वाकांक्षा भी जताते हैं जो बीजेपी के लिए 2022 में चुनौती पेश कर सके. लेकिन ये उसी सूरत में होगा कि कांग्रेस हार्दिक पटेल को अगर उनके मन के मुताबिक पेशकश नहीं करती. हार्दिक 2015 के बड़बोलेपन को पीछे छोड़ते हुए बीते दो साल में तेज रफ्तार के साथ परिपक्व हुए हैं. उन्होंने जेल में रहने के अनुभव और दर्जनों कानूनी मामले झेलने से काफी कुछ सीखा लगता है. अब गुजरात में आने वाली नई सरकार हार्दिक से कैसे पेश आती है, ये देखना दिलचस्प होगा. बीजेपी को पहले ही ये सबक मिल चुका है कि हार्दिक को राजनीतिक तौर पर कुचलने की कोशिश करने के उल्टे ही परिणाम सामने आएंगे.   

6- कांग्रेस के गुजरात रणनीतिकार के तौर पर अशोक गहलोत का पुनर्जन्म

जंग में हार और जीत इस बात पर बहुत निर्भर करती है कि जनरल किन्हें अपना लेफ्टिनेंट बनाता है. अतीत में राहुल अहम विधानसभा चुनावों के रणनीतिकारों के तौर पर मधुसूधन मिस्त्री और मोहन प्रकाश जैसे विश्वासपात्र, लेकिन खुद में आश्वस्त नजर नहीं आने वाले नेताओं को चुनते थे. इस बार अशोक गहलोत को चुन कर, इससे भी अहम राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री को उनके कद के हिसाब से सम्मान और जगह देकर राहुल ने अपने नए अवतार में दिखाया कि वो कांग्रेस के पुराने दिग्गजों के साथ मिलकर भी काम करने को तैयार हैं.

बीजेपी के वरिष्ठ नेता भी अनौपचारिक बातचीत में मानते हैं कि गहलोत ने कांग्रेस के लिए इस चुनाव में कितना बेहतर काम किया. तीन युवा तुर्कों- हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी के साथ तालमेल कायम करने से लेकर टिकट बंटवारे में जाति समीकरण को साधने तक में कांग्रेस ने पिछले चुनावों की तुलना में कहीं बेहतर काम किया.

कांग्रेस की इन सभी उपलब्धियों के लिए लो-प्रोफाइल में रहने वाले, लेकिन जमीनी नेता गहलोत को काफी हद तक श्रेय दिया जा सकता है. गहलोत में कांग्रेस की पारंपरिक शैली के मुताबिक हर किसी की बात सुनने के बाद उसे साथ लेकर चलने की काबीलियत है. गहलोत के रिपोर्ट कार्ड में अगर कुछ नेगेटिव है तो वो ये है कि उन्होंने ठाकोर के उम्मीदवारों को बड़ी संख्या में टिकट दिए. अब यही उम्मीदवार उत्तर गुजरात में कांग्रेस के लिए कमजोर कड़ी साबित हो रहे हैं. चुनाव नतीजे कांग्रेस के लिए अच्छे आते हैं तो इससे 2018 के राजस्थान विधानसभा चुनाव में गहलोत के कांग्रेस के मुख्यमंत्री के लिए चेहरा बनने का रास्ता अधिक प्रशस्त होगा. 

7- भारतीय राजनीति का ‘हिंदू-हितैषी’ मोड़

गुजरात चुनाव में राहुल गांधी के दो दर्जन से ज्यादा मंदिरों में जाने के दूरगामी मायने निकाले जा रहे हैं. ये ऐसी बात है जो पिछले चुनावों से अलग है. साथ ही ये गुजरात के बहुसंख्यक वोटरों को लुभाने की कोशिश भी है. राहुल ने अपना जनेऊ दिखाकर कांग्रेस को हिंदू-हितैषी छवि वाली पार्टी के रूप में दोबारा गढ़ने के बीज भी बो दिए हैं. वर्षों से कांग्रेस पर अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण के आरोप लगते रहे हैं. मुस्लिम समर्थक छवि दिखाने के फेर में पार्टी की हिंदू-विरोधी छवि बन गई. एक मंदिर से दूसरे मंदिर, माथा टेक कर राहुल ने कांग्रेस की हिंदू विरोधी छवि को धोने का प्रयास किया है. राहुल के प्रचार अभियान की रणनीति से मुस्लिम अधिकतर गायब ही दिखे.

आगे बढ़ते हुए कांग्रेस हिंदूवाद और हिंदुत्व में भेद करने की कोशिश करेगी, लेकिन ये साफ है राहुल की कमान में ग्रैंड ओल्ड पार्टी का नया अवतार पार्टी की उस अल्पसंख्यक-हितैषी छवि से किनारा करने के लिए भी काम करेगी, जो उनकी मां के कांग्रेस अध्यक्ष रहते बन गई. कांग्रेस के पुराने दिग्गज ए के एंटनी की अध्यक्षता में 2014 लोकसभा चुनाव में पार्टी की करारी शिकस्त के कारणों का पता लगाने के लिए कमेटी बनी थी. इसी कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में हार का बड़ा कारण पार्टी की अल्पसंख्यक समर्थक छवि की वजह से बहुसंख्यक वोटरों का पार्टी से दूर जाना बताया था. अभी देखना बाकी है कि पार्टी का ये हिन्दू-हितैषी चेहरा कांग्रेस के लिए चुनावी फायदे का सौदा साबित होता है या ये भी 1986 में राहुल के पिता राजीव गांधी की ओर से 1986 में बाबरी मस्जिद का ताला खोले जाने जैसी भारी चूक साबित होता है जो उन्होंने उससे एक साल पहले शाह बानो मामले में पार्टी की स्थिति को पहुंचे नुकसान की भरपाई के लिए की थी.

8- कारोबारी हमेशा कारोबारी ही रहता है

गुजरात के कारोबारियों और बीजेपी के बीच 2017 में रिश्ता वैसे जोड़े के समान ही दिखता है जिनकी शादी टूटने के कगार तक पहुंच चुकी हो, लेकिन कोई भी पार्टनर तलाक के लिए अपनी ओर से पेपर नहीं भरना चाहता. गुजरात की चुनावी गहमागहमी में कारोबारियों की विमुखता बड़े मुद्दों में शामिल रही. लेकिन ये भी एक तथ्य है कि कारोबारियों ने पीढ़ी दर पीढ़ी बीजेपी के अलावा कभी किसी ओर पार्टी के लिए नोट नहीं किया. हालांकि, बीजेपी ने जीएसटी की दरों को तर्कसंगत बना कारोबारियों की नाराजगी दूर करने की कोशिश की है. लेकिन इसके अमल से जुड़े मुद्दों को लेकर कारोबारियों में हौवा बना हुआ है.

सूरत जैसे शहरों में इस बार कांग्रेस नेताओं का व्यापारी बाजारों में स्वागत करते देखे गए. ये वही बाजार हैं जहां अतीत के चुनावों में कांग्रेस अपने लिए पहले से ही हारी हुई लड़ाई मान कर आने तक की जेहमत नहीं उठाती थी. जब कारोबारियों से पूछा गया कि वो क्यों कांग्रेस से इतना मेलजोल दिखा रहे हैं तो उनका जवाब था कि वे ‘अहंकारी’ बीजेपी को सबक सिखाना चाहती है. बीजेपी नेतृत्व को तगड़े झटके देने के बाद और पार्टी की ओर से उनकी अधिकतर मांगे मान लिए जाने के बाद, अब कारोबारी छुपे तौर पर कबूल कर रहे हैं कि वे बीजेपी के पाले में बने रहेंगे. 

9- हार विकल्प ही नहीं 

गुजरात के 2017 चुनाव ने एक बार फिर नरेंद्र मोदी और अमित शाह की संघर्ष भावना को मजबूती से दिखाया है. एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर कितना भी ऊंचा क्यों ना हो, नाराज वोटरों का मसला कितना भी बड़ा क्यों ना हो, मोदी और शाह ने दिखाया है कि वो अपने किले को बचाए रखने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे. हर जंग उनके लिए जीने और मरने का सवाल है. हार का कोई विकल्प नहीं है और वे ऐसा सब कुछ करने के लिए तैयार हैं जो उन्हें जीत की ओर ले जाए. अब टीकाकार उनके तौर तरीकों को बेशक राजनीतिक गरिमा के अनुरूप ना बताएं. 

बीजेपी नेता अनौपचारिक बातचीत में स्वीकार करते हैं कि मतदान के दिन से पहले भावनाओं के उभार में बहुत कुछ ऊंचा-नीचा बोला गया. दीर्घकालिक दृष्टि से बेशक ये पार्टी की छवि को नुकसान पहुंचाए, लेकिन वो इस वक्त अपना गुजरात का गढ़ बचाने को अधिक चिंतित हैं.

अगर कांग्रेस बीजेपी को हराने की चाहत रखती है तो इसके नेताओं के सामने और कोई विकल्प नहीं है कि वो हर चुनाव को जीने-मरने का सवाल मान कर ही लड़ें. यही वो रास्ता है जो चुनाव लड़ने के लिए मोदी और शाह जानते हैं.

कांग्रेस को अपने सांगठनिक ढांचे को चुनाव से बहुत पहले ही मजबूत बनाने के लिए काम करने की जरूरत है. चुनाव से कुछ महीने पहले ही जागने ने बेशक अतीत में कांग्रेस के लिए काम किया हो सकता है, लेकिन जब आपके सामने आधुनिक भारत की सबसे दुर्जेय चुनाव मशीन हो तो इस तरह की तरह से जंग जीतने की संभावना ना के बराबर है.

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लेखक

राहुल कंवल राहुल कंवल @rahul.kanwal.52

लेखक टीवी टुडे ग्रुप के मैनेजिंग एडिटर और प्रख्यात टीवी एंकर हैं.

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