ज्योतिरादित्य सिंधिया बनाम दिग्विजय सिंह: ग्वालियर और राघोगढ़ राजघराने का अंतहीन टकराव!
ज्योतिरादित्य सिंधिया और दिग्विजय सिंह के बीच की राजनीतिक अनबन सिर्फ कांग्रेस-भाजपा की लड़ाई नहीं है. ग्वालियर रियासत और राघोगढ़ राजघरानों के बीच के टकराव का इतिहास दो सौ साल पुराना है.
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मध्यप्रदेश का मौजूदा राजनीतिक संकट देखने में तो प्रमुख रूप से कांग्रेस की अंतर्कलह लगती है. खासतौर पर ज्योतिरादित्य सिंधिया और दिग्विजय सिंह के बीच का टकराव. लेकिन ये टकराव आम नेताओं के बीच की राजनीतिक स्पर्धा से कहीं ज्यादा है. चंबल से लेकर मालवांचल तक इन दो राजघरानों के टकराव का इतिहास दंतकथाओं में शामिल है. लेकिन, ब्रिटेन के शाही इतिहासकारों ने इन दो राजपरिवारों के बीच की लड़ाई की हर बारीकी को दर्ज किया है. ब्रिटिश इतिहास के उन दो पन्नों पर हम इसलिए दोबारा लौट रहे हैं, क्योंकि दिग्विजय और ज्योतिरादित्य ने 200 साल पुराने उस कड़वे अतीत की फिर से याद दिला दी है.
ज्योतिरादित्य और दिग्विजय सिंह के बीच का टकराव केवल राजनितिक नहीं है बल्कि इसमें दोनों परिवार भी एक बहुत बड़ी वजह हैं
दिग्विजय सिंह का राघोगढ़ ठिकाना:
ग्वालियर से नेशनल हाईवे 3 (आगरा-मुंबई रोड) पर जब हम ग्वालियर से इंदौर-उज्जैन की ओर बढ़ेंगे, तो ठीक बीच में पड़ेगा राघोगढ़. सिंधिया रियासत का फैलाव ग्वालियर से उज्जैन तक रहा है. लेकिन इस रियासत के लिए राघोगढ़ की जागीर अतीत में कांटा बन गयी थी. 1677 राघोगढ़ को दिग्विजय सिंह के पुरखे लाल सिंह खिंची ने बसाया. कहा जाता है कि उन्हें यहां खुदाई में भगवान विष्णु की एक मूर्ति मिली थी, जिसके कारण उन्होंने इसे 'राघव' के नाम पर राघोगढ़ कहा. वे खुद को 11वीं शताब्दी में दिल्ली पर शासन करने वाले पृथ्वीराज चौहान का वंशज बताते थे. एक बड़े इलाके को अपने अधीन करने के बाद 1705 में राघोगढ़ किला बनवाया गया. पार्वती नदी के किनारे के इस इलाके में बाकी अनाज के अलावा अफीम की खेती भी हो रही थी.
सिंधियाओं का आगमन और राघोगढ़ वालों से टकराव:
औरंगजेब की मौत के बाद मुगलों को खदेड़ते हुए मराठा आगे बढ़ रहे थे. इंदौर में होलकर तो ग्वालियर में सिंधियाओं ने अपनी रियासत कायम की. वे आसपास के छोटे-बड़े राजाओं को अपनी रियासत का हिस्सा बना रहे थे. लेकिन, राघोगढ़ वालों से उनकी ठन गई. आखिरकार महादजी सिंधिया ने 1780 में दिग्विजय सिंह के पूर्वज राजा बलवंत सिंह और उनके बेटे जय सिंह को कैद कर लिया. अगले 38 सालों तक दोनों राजघरानों में टकराव चलता रहा. 1818 में ठाकुर शेर सिंह ने राघोगढ़ को पूरी तरह बर्बाद कर दिया, ताकि सिंधियाओं के लिए उसकी कोई कीमत न बचे. और यह टकराव बंद हो. इसी साल राजा जय सिंह की मौत हो गई. फिर अंग्रेजों की मध्यस्थता से ग्वालियर रियासत और राघोगढ़ के बीच एक समझौता हुआ. जिसके तहत राघोगढ़ वालों को एक किला और आसपास की जमीन मिली. अंदाजा लगाया गया कि इस संपत्ति से 1.4 लाख रुपये सालाना लगान वसूला जा सकता है. राघोगढ़ वालों को कहा गया कि सालाना 55 हजार रुपये से ज्यादा की लगान वसूली हो तो वह रकम ग्वालियर दरबार में जमा करनी होगी. और यदि लगान 55 हजार से कम मिले तो ग्वालियर रियासत राघोगढ़ की मदद करेगा. इस समझौते के अगले दस साल तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि राघोगढ़ वालों ने ज्यादा लगान वसूला हो. आखिर में ग्वालियर दरबार का धैर्य जवाब दे गया. और उन्होंने राघोगढ़ की दी जाने वाली मदद रोक दी. और उनकी सारी संपत्ति जब्त कर ली. 1843 में अंग्रेजों ने फिर एक समझौता करवाया, जिसमें राघोगढ़ को दोबारा ग्वालियर रियासत के अधीन लगान वसूलने की छूट दी गई.
पुराने इतिहास की झलक बरकरार:
ऐतिहासिक परंपराओं ने मध्यप्रदेश के इन दो राजघरानों के बीच एक प्रोटोकॉल तय कर दया है. सिंधिया हमेशा महाराज कहलाएंगे, जबकि राघोगढ़ वाले राजा. लेकिन, इन प्रोटोकॉल के बीच क्या अतीत की कड़वाहट भुलाई जा सकती है? इसका जवाब इन दो राजपरिवारों के हर व्यक्ति के पास संभव है कि अलग-अलग हो.
आइए, आजादी के बाद राघोगढ़ और ग्वालियर रियासत के बीच के रिश्तों पर नजर डालते हैं. विजयाराजे सिंधिया और उनके बेटे माधवराव सिंधिया ने अपनी राजनीति की शुरुआत तो जनसंघ से की, लेकिन माधवराव ने जल्द ही सत्ता का रुझान समझ लिया. वे कांग्रेस में शामिल हो गए. माधवराव सिंधिया को कांग्रेस में लाने का श्रेय दिग्विजय सिंह खुद को देते हैं. लेकिन, मध्यप्रदेश की राजनीति पर नजर रखने वाले बताते हैं कि 1993 के विधानसभा चुनाव में माधवराव सिंधिया की उम्मीदवारी को कमजोर करते हुए दिग्विजय सिंह ने मुख्यमंत्री का पद हासिल किया. और दस साल राज्य की सत्ता पर काबिज रहे. सिंधियाओं की राजनीति हमेशा महाराजा वाली रही, जबकि दिग्विजय सिंह ने सूबे के कई इलाकाई क्षत्रपों को अपने खेमे में मिलाकर अपने आपको प्रदेश का राजा घोषित करवा लिया. माधवराव सिंधिया केंद्र के नेता बनकर रह गए, और उनकी राजनीति मध्यप्रदेश में सिर्फ पूर्ववर्ती सिंधिया रियासत तक सीमित रह गई.
माधवराव सिंधिया के निधन के बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस में जब अपना राजनीतिक कद बढ़ाया तो दिग्विजय फिर सतर्क हो गए. उन्होंने केंद्र में रहते तो ज्योतिरादित्य पर नजर रखी ही, जब छोटे सिंधिया ने 2018 के विधानसभा चुनाव को लेकर मध्यप्रदेश में वापसी की तैयारी की, तो दिग्विजय उनकी हदबंदी में लग गए. कमलनाथ को उन्होंने यह विश्वास दिला दिया कि उनकी सत्ता के लिए सिंधिया खतरा बने रहेंगे. उनकी उतनी ही मांगें मानी जाएं, जितनी कि एक पूर्वज को पेंशन चाहिए. 1818 में राघोगढ़ को ग्वालियर रियासत के आगे झुककर एक समझौता करना पड़ा था. उस घटना के दो सौ साल बाद 2018 में दिग्विजय ने सिंधिया को ग्वालियर तक सीमित करने का काम कर दिखाया.
राजघरानों का मान-अपमान बड़ा है सियासी उपलब्धियों से
कहा जा रहा है कि जब ज्योतिरादित्य ने कांग्रेस छोड़ने के संकेत दे दिए तो उन्हें राज्यसभा में भेजने, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाने जैसी तमाम मांगे मानी जाने लगीं. अब सवाल ये उठता है कि ज्योतिरादित्य जो चाह रहे थे, यदि उन्हें मिल रहा था तो उन्होंने कांग्रेस क्यों छोड़ी? इसका जवाब राजपरिवारों के स्वाभिमान के रूप में मिलता है. सिंधिया यदि कांग्रेस के ऑफर मान भी लेते तो माना जाता कि तमाम अपमानों के उन्हें जो कुछ मिला है, वह दिग्विजय सिंह की सहमति से ही मिला है. ज्योतिरादित्य की बुआ और भाजपा नेता यशोधरा राजे सिंधिया साफ साफ कहती हैं हमारे परिवार के लिए आत्मसम्मान सबसे बड़ा है. यदि यशोधरा राजे यह कह रही हैं तो समझा जाना चाहिए कि उनके परिवार में सभी को राघोगढ़ के साथ रिश्तों का इतिहास अच्छी तरह पता होगा. पता नहीं ज्योतिरादित्य को यह किस किस ने याद दिलाया होगा कि उनके पूर्वज ने राघोगढ़ वालों को कैद किया था, तो वे अब उनकी दया पर कैसे रह सकते हैं?
ग्वालियर रियासत और राघोगढ़ के बीच जंग बाकी है
ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भाजपा ज्वाइन करते हुए कांग्रेस के प्रति अपने गहरे असंतोष को व्यक्त किया है, लेकिन दिग्विजय सिंह के खिलाफ कुछ नहीं कहा. जबकि दूसरी ओर कांग्रेस से ज्योतिरादित्य के बारे में सिर्फ दिग्विजय ही बोल रहे हैं. दो सौ साल पहले अंग्रेजों ने ग्वालियर और राघोगढ़ के बीच मध्यस्थता की थी. लेकिन, अब राघोगढ़ और ग्वालियर के भाजपा है. ज्योतिरादित्य की तरह भाजपा को भी दिग्विजय के साथ कई हिसाब बराबर करने हैं. लोकसभा में साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के हाथों दिग्विजय को पराजित करवाना तो इस हिसाब किताब का पहला चरण था. असली लड़ाई तो तब होगी कि जब एक महाराजा और राजा आमने सामने होंगे.
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