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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 21 अक्टूबर, 2022 09:47 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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कांग्रेस के नये अध्यक्ष के नाम में गांधी सरनेम नहीं लगा है. और राहुल गांधी (Rahul Gandhi) तो ऐसा ही चाहते भी थे. देखा जाये तो राहुल गांधी ने जो स्टैंड लिया था, पूरा होने तक डटे रहे - लेकिन चुनाव नतीजे आने के बाद लोग मल्लिकार्जुन खड़गे (Mallikarjun Kharge) को भी गांधी परिवार से बाहर का मानने को तैयार नहीं हैं.

हो सकता है, शशि थरूर चुनाव जीत गये होते तो लोगों को ऐसा लगता भी. ऐसा लगता जैसे कोई नेता गांधी परिवार के सपोर्ट के बगैर कांग्रेस अध्यक्ष (Congress President) का चुनाव लड़ा और जीत गया. मल्लिकार्जुन खड़गे के नामांकन से लेकर चुनाव कैंपेन और यहां तक कि कुछ राज्यों में बैलट पेपर की सुरक्षा को लेकर भी शशि थरूर और उनकी टीम की तरफ से सवाल उठाये जाते रहे - शशि थरूर के चुनाव एजेंट सलमान सोज ने तो उत्तर प्रदेश, पंजाब और तेलंगाना में हुई वोटिंग में धांधली का ही आरोप लगा डाला है.

अगर मल्लिकार्जुन खड़गे की जगह अशोक गहलोत भी कांग्रेस अध्यक्ष बने होते तो भी लोगों की राय ऐसी ही होती. भले ही वो भी चुनाव लड़ कर ही क्यों न बने होते - और दिग्विजय सिंह का भी बिलकुल यही हाल हुआ होता.

ये तो नहीं कह सकते कि कांग्रेस में हुए बदलाव का कोई असर नहीं होने वाला, लेकिन ये भी है कि अगर राहुल गांधी को लग रहा है कि अपनी एक जिद की बदौलत वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, बीजेपी नेता अमित शाह को खामोश कर चुके हैं, तो ऐसा नहीं है. हां, हमले की धार थोड़ी नरम जरूर पड़ सकती है.

बीजेपी और मोदी-शाह कांग्रेस पर पहले की तरह परिवारवाद के आरोप सीधे सीधे तो नहीं लगा सकते, लेकिन नया रास्ता तो खोज ही लिया गया है. संघ और बीजेपी की टीम की तरफ से समझाया जाने लगा है कि कांग्रेस में वही होगा जो मंजूर-ए-गांधी परिवार होगा.

राहुल गांधी ने मल्लिकार्जुन खड़गे को कांग्रेस अध्यक्ष बना कर अपने खिलाफ संघ और बीजेपी के लिए राशन-पानी भले ही थोड़ा कम कर दिया हो, लेकिन ऐसा करके बीजेपी के निशाने पर आने वाले दूसरे राजनीतिक दलों की मुसीबत बढ़ा दी है.

मान कर चलना होगा कि कांग्रेस और गांधी परिवार को निशाना बनाने के लिए बीजेपी को नये हथियार की जरूरत होगी, लेकिन परिवारवाद की राजनीति के बूते खड़े हुए क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की मुसीबत बढ़ जाएगी - ऐसे दलों के खिलाफ तो परिवारवाद की राजनीति को लेकर बीजेपी के पुराने हथियार ही बड़े आराम से चलेंगे.

जैसे कोई 'एक्सीडेंटल प्रेसिडेंट' हो

ये तो काफी पहले से महसूस किया जा रहा था कि राहुल गांधी को भी एक 'मनमोहन सिंह' की सख्त जरूरत है. और हालात भी ऐसे बने कि सोनिया गांधी ने बेटे के लिए भी एक 'एम' फैक्टर यानी मल्लिकार्जुन खड़गे का इंतजाम कर ही दिया.

mallikarjun kharge, rahul gandhi, sonia gandhiमल्लिकार्जुन खड़गे को कांग्रेस अध्यक्ष बना कर गांधी परिवार ने कई क्षेत्रीय दलों की मुसीबत बढ़ा दी है

अब अगर 'एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' वाले नजरिये से देखें तो राहुल गांधी की बहुत सारी समस्यायें तो खत्म हो ही जाएंगी - ये बात अलग है कि संघ और बीजेपी के हमलों को काउंटर करने लिए कुछ नये उपाय भी करने ही होंगे.

क्या खड़गे गांधी परिवार के रबर स्टांप बन जाएंगे: जब गुलाम नबी आजाद ने कांग्रेस छोड़ते हुए सोनिया गांधी को लंबा चौड़ा इस्तीफा लिखा था, तब अशोक गहलोत का कांग्रेस अध्यक्ष बनना तय माना जाने लगा था - और गुलाम नबी आजाद का कहना था कि गांधी परिवार एक रबर स्टांप के इंतजाम में लगा है.

लेकिन जिस तरीके से अशोक गहलोत ने राजस्थान में मुख्यमंत्री बदलने के खिलाफ तेवर दिखाया, न तो सोनिया गांधी कुछ कर पायीं और न ही तब ऑब्जर्वर बना कर भेजे गये मल्लिकार्जुन खड़गे. राजस्थान के मामले में 10, जनपथ का मैसेंजर बने रहना भी कितना मुश्किल होता है ये तो अजय माकन से ऑफ द रिकॉर्ड कोई भी कभी भी चर्चा कर सकता है.

अशोक गहलोत जिस तरह से कांग्रेस में अपने फायदे के लिए तरकीबें निकाल लेते हैं, लगता नहीं कि अगर वो कांग्रेस अध्यक्ष बने होते तो सोनिया गांधी और राहुल गांधी उनको रबर स्टांप की तरह इस्तेमाल कर पाते - बाकी मामलों को छोड़ भी दें तो कम से कम सचिन पायलट के मामले में तो अशोक गहलोत के सामने शायद किसी की चल पाती.

कांग्रेस केकामकाज में गांधी परिवार की भूमिका से तो शशि थरूर भी इनकार नहीं कर पा रहे थे, सिवा मल्लिकार्जुन खड़गे के खिलाफ चुनाव लड़ने के शशि थरूर ने ऐसा कोई संकेत तो नहीं ही दिया कि वो गांधी परिवार के खिलाफ खड़े होने जा रहे है. हां, अपनी बात वो शुरू से ही रखते आयें. बगैर किसी बात की परवाह किये उनको जो ठीक लगता है, डंके की चोट पर कहते रहे हैं.

रही बात मल्लिकार्जुन खड़गे की तो वो शुरू से ही कह रहे हैं कि जो भी फैसले लेंगे आम सहमति से लेंगे. आपको याद होगा गुलाम नबी आजाद भी कह रहे थे कि राहुल गांधी जब से अध्यक्ष बने आम सहमति से फैसले लेने वाली सोनिया गांधी की बनायी हुई व्यवस्था खत्म कर दी गयी. मतलब, ये कि आम सहमति से फैसले लेने की बात से विरोध तो किसी को नहीं होगा.

सवाल ये है कि आम सहमति की परिभाषा क्या होगा? और आम सहमति का दायरा क्या होगा?

मतलब, आम सहमति वाले फैसलों में क्या वास्तव में सलाहकारों की भूमिका होगी? या आम सहमति के नाम पर सोनिया गांधी, राहुल गांधी और अगर जरूरत पड़ी तो प्रियंका गांधी वाड्रा के फरमानों को आम सहमति के नाम पर लागू कराया जाएगा?

ये सब ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब गांधी परिवार को जल्द से जल्द खोज लेना होगा - वरना, मल्लिकार्जुन खड़गे सिर्फ कांग्रेस का ही नहीं, पार्टी के राजनीतिक विरोधियों का भी मोहरा बन कर ही रह जाएंगे.

क्या खड़गे के कारण कांग्रेस को कोई चुनावी फायदा भी होगा: मल्लिकार्जुन खड़गे के दलित समुदाय से होने का फायदा भी कांग्रेस उठाने की कोशिश करेगी, लेकिन ज्यादा दिन नहीं हुए पंजाब में चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाने का कांग्रेस को कोई फायदा नहीं हुआ. चन्नी तो अपनी सीट भी हार गये थे. ये भी पता चला था कि ये मल्लिकार्जुन खड़गे ही रहे जिन्होंने मुख्यमंत्री के रूप में चन्नी के नाम का सुझाव दिया था.

ये तो साफ हो चुका है कि हिमाचल प्रदेश और गुजरात विधानसभा चुनावों की जिम्मेदारी प्रियंका गांधी वाड्रा को सौंपी जा चुकी है - और ऐन उसी वक्त ये भी साफ हो गया है कि अगले एक साल के भीतर होने जा रहे विधानसभा चुनावों में राहुल गांधी का सबसे ज्यादा जोर कर्नाटक चुनाव पर ही है.

मल्लिकार्जुन खड़गे भी कर्नाटक से ही आते हैं - और कर्नाटक चुनाव के नतीजे ही मल्लिकार्जुन खड़गे की तरफ से सबसे बड़ा तोहफा होगा. अब वो तोहफा कैसा होता है, ये देखना होगा. जिस तरह से सोनिया गांधी भारत जोड़ो यात्रा में कर्नाटक में ही शामिल हुई हैं - और जिस तरह से कर्नाटक में यात्रा को मल्लिकार्जुन खड़गे से जोड़ने की कोशिश हुई है, समझा जा सकता है.

क्या मोदी-शाह से मुकाबला कर पाएंगे: मल्लिकार्जुन खड़गे के जिम्मे जो रूटीन का काम होगा वो मोदी-शाह और उनकी टीम से नियमित रूप से मुकाबला होगा. नियमित होने के साथ साथ मल्लिकार्जुन खड़गे की सबसे बड़ी जिम्मेदारी भी यही होगी - और सबसे बड़ा इम्तिहान भी.

क्षेत्रीय दलों की मुसीबत बढ़ी

परिवारवाद की राजनीति से जुड़े हमलों को काउंटर करने के लिए गांधी परिवार ने अपना इंतजाम तो कर लिया है, लेकिन उसके साथ ही ऐसी ही राजनीति करने वाले क्षेत्रीय दलों की मुसीबत बढ़ा दी है.

हाल ही में लालू यादव, एमके स्टालिन और अखिलेश यादव अपने अपने राजनीतिक दल के अध्यक्ष चुने गये हैं. ऐसी ही ताजा खबर सीपीआई से भी है जहां डी. राजा फिर से महासचिव बन गये हैं.

परिवारवाद की राजनीति को लेकर अभी तो मोदी-शाह के निशाने पर तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव हैं. ये बात अलग है कि उनके घर में भी बेटी ने बगावत कर दी है. हो सकता है ऐसा भाई-बहन के आपसी झगड़े को लेकर हुआ हो, या फिर बेटे को ज्यादा अहमियत मिलने की वजह से बेटी नाराज हो गयी है. असली वजह जो भी हो, मुसीबत तो केसीआर के लिए ही खड़ी हो गयी है.

तेलंगाना में 2023 के आखिर में विधानसभा के चुनाव होने हैं. लिहाजा बीजेपी का सबसे ज्यादा जोर तो तेलंगाना में ही दिखेगा - लेकिन अब अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव ही नहीं, ममता बनर्जी और मायावती को भी परिवारवाद की राजनीति को प्रश्रय देने के आरोपों से बचने के इंतजाम करने होंगे.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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