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Updated: 06 जुलाई, 2016 03:31 PM
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चुनाव कहीं भी हों, सियासी दल कोई भी हो जीतने का एक सेट फॉर्मूला होता है. उस फॉर्मूले के मुताबिक ही उम्मीदवारों का सेलेक्शन होता है और मेनिफेस्टो जारी किये जाते हैं. एजेंडे और आइडियोलॉजी के अनुसार से उसमें थोड़ी बहुत हेर फेर कर ली जाती है. फिर रिजल्ट इस बात पर निर्भर करता है कि चुनावी मुहिम कैसे चलायी गयी.

वैसे तो जातीय और धार्मिक समीकरणों की पूरे देश में एक जैसी ही भूमिका है लेकिन यूपी और बिहार में इनकी तासीर थोड़ी अलग हो जाती है. बिहार में जीत का समीकरण आप देख ही चुके हैं - आइए अब यूपी के हालात के हिसाब से देखते हैं.

चाल, चरित्र और चेहरा

'चाल, चरित्र और चेहरा' - इसी नाम पर बीजेपी कभी 'पार्टी विद डिफरेंस' के तौर पर खुद को पेश करती थी - गुजरते वक्त के साथ ये टैगलाइन भी धूमिल होती चली गयी. मोदी लहर के बाद बीजेपी ने चेहरे को लेकर दिल्ली से प्रयोग शुरू किया. जब दिल्ली में नाकाम रही तो बिहार में आइडिया को किनारे रख दिया. दो एक्सपेरिमेंट फेल रहे, असम में फिर से चेहरा आजमाया और कामयाबी मिली.

चेहरे की अहमियत सबसे पहले चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने समझायी और याद कीजिए 2014 में आखिरी दौर आते आते मोदी का चेहरा इतना स्थापित हो चुका था कि कहने लगे, "भाइयों और बहनों, आप मुझे वोट दीजिए."

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मोदी के बाद नीतीश कुमार के चेहरे को स्थापित कर कामयाब हो चुके पीके पंजाब में कैप्टन अमरिंदर को लोगों से कनेक्ट करने के लिए तमाम प्रयोग कर रहे हैं. यूपी में भी प्रशांत किशोर ने इसीलिए राहुल गांधी से लेकर शीला दीक्षित तक का प्रस्ताव रखा था - जिसमें प्रियंका का चेहरा अब सामने उभर कर आ रहा है.

यूपी में दो चेहरे तो फिक्स्ड हैं - एक अखिलेश यादव और दूसरी मायावती. इन दोनों के अलावा बीजेपी और कांग्रेस के लिए ये सबसे बड़ी चुनौती बनी हुई है. लेकिन अखिलेश यादव हों या मायावती इनमें से कोई भी 100 फीसदी श्योर नहीं है कि अकेले दम पर चुनाव जीत सके. इसीलिए पर्दे के पीछे हर रोज गठबंधन और एक दूसरे की पार्टी से नेताओं को तोड़ने की कोशिशें जारी हैं. बेनी प्रसाद वर्मा जैसे कुछ नेता इधर से उधर हो चुके हैं जबकि स्वामी प्रसाद मौर्या और आरके चौधरी जैसे नेता अब भी कतार में हैं.

बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही के पास कोई सर्वमान्य चेहरा नहीं है जिसे वो बतौर सीएम कैंडिडेट मैदान में उतार सके. जातिवाद इस कदर हावी है कि अगर किसी एक बिरादरी को उम्मीदवार बनाया जाए तो दूसरा तबका उसे संभव हो तो ठिकाने लगा दे.

ऐसी स्थिति में जरूरी हो गया है कि पार्टियां किसी एक चेहरे पर न जाकर एक कम्प्लीट पैकेज पेश करें - तब संभव है जीत की राह कुछ आसान दिखे.

कॉम्बो ऑफर जरूरी है

यूपी में इस वक्त जाति और धर्म के हिसाब से जो फैक्टर नतीजों को प्रभावित कर सकते हैं वे हैं - ब्राह्मण, मुस्लिम, दलित और ओबीसी. 2011 की जनगणना के मुताबिक यूपी की आबादी में ब्राह्मणों की हिस्सेदारी 10 फीसदी, यादवों की 10 फीसदी, दलितों की 21 फीसदी, ओबीसी की 40 फीसदी और मुस्लिम वोटर की 19 फीसदी से ज्यादा है.

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"यू कैन विन!"

प्रशांत किशोर का जोर सीएम कैंडिडेट के लिए ब्राह्मण उम्मीदवार पर है. पीके का अपना आकलन हो सकता है लेकिन कोई ब्राह्मण उम्मीदवार किसी भी पार्टी के लिए जिताऊ साबित हो पाएगा ये कहना मुश्किल है.

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1. ऐसे में बेहतर है कि जीत के मकसद से किसी ब्राह्मण नेता को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाये. इससे ब्राह्मणों में ये मैसेज जाएगा कि भले वो सीएम न बने लेकिन सत्ता में आने पर पार्टी उसकी बात को तवज्जो जरूर देगी.

2. इसी तरह अगर कोई पार्टी चाहे तो इस तरह के पैकेज में किसी मुस्लिम नेता को डिप्टी सीएम के तौर पर प्रोजेक्ट कर सकती है. बीजेपी को भी इसमें दिक्कत नहीं आएगी - क्योंकि नाम के लिए उसके पास गिने चुने चेहरे तो हैं ही.

3. ब्राह्मण और मुस्लिम वोट बैंक साध लेने के बाद एक ऐसे नेता की जरूरत होगी जो अखिलेश यादव को कुछ चुनौती दे सके. इसके लिए एक यादव नेता की जरूरत होगी - और मतदाताओं को मैसेज देने के लिए ऐसे किसी नेता को कैंपेन चीफ बनाया जा सकता है.

4. अब बचते हैं दलित और ओबीसी जिन्हें कोई पार्टी चाहे तो अपनी पार्टी की ओर से सीएम उम्मीदवार घोषित कर सकती है. दलित उम्मीदवार मायावती को चुनौती देगा जबकि ओबीसी अखिलेश यादव को.

अब अगर समाजवादी पार्टी और बीएसपी भी चाहे तो इसमें थोड़ी फेर बदल कर अपना अलग पैकेज तैयार कर सकती है - ताकि जीत पक्की हो सके.

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