बामुलाहिजा होशियार, प्रिंसेस प्रियंका-गांधी-वाड्रा पधार रही हैं...
प्रियंका की चुनौती ये है कि जब विपक्ष यूपी चुनाव में वाड्रा के नाम पर टारगेट करता है तो उससे कैसे निबटती हैं- और लोगों को अपनी बात समझाने में कामयाब हो पाती हैं.
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चलिए पीके यानी प्रशांत किशोर ने तोप के लिए अप्लाई किया और पिस्टल का लाइसेंस उन्हें मिल भी गया. अगर वो सीधे सीधे कांग्रेस आलाकमान के सामने प्रियंका के लिए कोई बड़ा रोल मांगते या सुझाते तो शायद किसी को इस बात की भनक भी नहीं लगती.
पीके के इस दांव का डबल फायदा भी हुआ. राहुल गांधी या प्रियंका गांधी को सीएम कैंडिडेट बनाने की बात लीक होने के साथ ही सुर्खियां बनीं - और तभी से किसी न किसी बहाने खबरों में बनी हुई है. यूपी के मैदान में जहां कांग्रेस का नाम लेने वाला कोई नहीं था - वहां कांग्रेस की लगातार चर्चा हो रही है.
कितना करिश्मा?
प्रियंका के एक्टिव होने की खबर पर बीजेपी प्रवक्ता संबित पात्रा की टिप्पणी है, "कांग्रेस प्रियंका को आगे कर रही है. ऐसा करना बताता है कि राहुल गांधी फेल हो गए हैं."
खबर, इस बीच, ये भी है कि प्रियंका गांधी करीब 150 रैलियां करने जा रही हैं - और ये राहुल गांधी से भी ज्यादा हो सकती हैं. कहते हैं - लोग प्रियंका गांधी वाड्रा में इंदिरा गांधी का अक्स देखते हैं. भीड़ उनकी ओर अपनेआप खिंची चली आती है. लंबे अरसे से कार्यकर्ता 'प्रियंका लाओ कांग्रेस बचाओ' की लाइन पर नारेबाजी और पोस्टरबाजी करते रहते हैं.
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मां सोनिया गांधी और भाई राहुल गांधी की तरह उन्हें लिखे हुए स्पीच नोट और सुनाने के लिए कहानियों की जरूरत नहीं पड़ती - और दोनों के मुकाबले लोगों से बेहतर तरीके से वो लोगों से कनेक्ट भी होती हैं.
अगर विरोधी निशाना बनाते हैं तो उनका पलटवार भी सटीक होता है. जरूरत पड़ने पर चचेरे भाई वरुण को गीता का ज्ञान भी देती हैं - नरेंद्र मोदी को बेटी बताने की हिमाकत न करने की सलाह भी - 'मैं राजीव गांधी की बेटी हूं.'
लेकिन प्रियंका के लिए ये सब कितना आसान होगा?
यूपी की सियासत में प्रियंका को मदारी और जमूरे के खेल की उस डोर पर चलने जैसा है जहां एक हाथ में गांधी परिवार के विरासत को बचाने की जिम्मेदारी तो दूसरे हाथ में वाड्रा के विवादित सौदों का बोझ है.
घर वापसी हो पाएगी?
1989 में नारायण दत्त तिवारी कांग्रेस शासन के आखिरी मुख्यमंत्री रहे - उसके बाद से सोनिया ने केंद्र में दस साल कांग्रेस की सरकार तो चलाई लेकिन यूपी में तमाम कोशिशें बेकार गईं. राहुल गांधी ने जितने भी प्रयास किये कांग्रेस की हालत दिन पर दिन बदतर ही होती गई - 2014 में मुलायम परिवार की तरह बस मां-बेटे रायबरेली और अमेठी की सीट ही बचा पाये.
वक्त के साथ कांग्रेस के थोक वोट बैंक खिसकते गये कुछ बीजेपी की ओर, कुछ मायावती और बाकी मुलायम सिंह के खाते में. हाल फिलहाल तो कांग्रेस फुटकर वोटों के लिए भी जूझती नजर आई है.
बहुत कठिन है डगर... |
कांग्रेस का चुनावी मुहिम संभाल रहे प्रशांत किशोर की कोशिश है कि किसी तरह पार्टी के परंपरागत वोट बैंक की घर वापसी करायी जाय. अयोध्या कांड के बाद मुस्लिम वोट कांग्रेस से छिटक कर मुलायम सिंह यादव की ओर चले गये. दलित की बेटी को जो वोट शेयर मिला वो भी कभी कांग्रेस के साथ हुआ करता था. ब्राह्मण और बाकी सवर्ण वोट कांग्रेस को छोड़ कर बीजेपी से जा मिले.
पीके चाहते हैं कि ये सारे वोट भले वापस न मिलें लेकिन उनके बीच कांग्रेस इतनी पैठ बना ले कि उनका एकजुट फायदा किसी और को न मिले. अगर वोट बंटेगा तो कांग्रेस के विरोधियों का नुकसान होगा - जाहिर है कांग्रेस को इसका फायदा जरूर मिलेगा.
मुस्लिम वोटों में पैठ बनाने के लिए ही गुलाम नबी आजाद को जम्मू कश्मीर से यूपी लाया गया है. अब आजाद के साथ मिल कर उन्हें वापस कांग्रेस की ओर लौटाने की जिम्मेदारी प्रियंका पर आ टिकी है.
अगर इतिहास दोहराये तो
प्रियंका ने अब तक सोनिया और राहुल के संसदीय क्षेत्रों तक ही सीमित रखा है - और 2014 की मोदी लहर में भी दोनों सीटें बरकरार रहीं. इसमें प्रियंका की भूमिका को नजरअंदाज तो नहीं किया जा सकता, लेकिन जीत का पूरा क्रेडिट देना भी बड़ी भूल होगी.
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यूपी विधानसभा चुनावों की बात करें तो 2007 तो प्रियंका के हिसाब से ठीक रहा, लेकिन 2012 में वो कांग्रेस को भारी नुकसान से नहीं बचा पाईं. 2007 के विधानसभा चुनाव में रायबरेली की पांच में से कांग्रेस को चार सीटों पर जीत हासिल हुई, लेकिन अमेठी की पांच में से सिर्फ दो सीटों पर जीत मिल पायी.
2012 में प्रियंका ने अमेठी, रायबरेली और सुल्तानपुर की 15 विधानसभा सीटों पर जमकर प्रचार किया, कांग्रेस को बुरी तरह शिकस्त मिली. रायबरेली की पांचों सीटों पर तो कांग्रेस की हार हुई ही, सुल्तानपुर की पांचों सीटों पर उम्मीदवारों की जमानत तक जब्त हो गयी. 15 में से प्रियंका अमेठी की सिर्फ दो सीटें ही कांग्रेस की झोली में डाल सकीं.
2014 के लोक सभा चुनाव में प्रियंका के प्रचार के बावजूद बाहर से आकर स्मृति ईरानी ने तीन लाख से ज्यादा वोट बटोर लिये जबकि सुल्तानपुर में वरुण गांधी को हराने की प्रियंका की अपील खारिज करते हुए लोगों ने उन्हें भारी जीत बख्शी. चौथे स्थान पर रही अमिता सिंह अपनी जमानत भी नहीं बचा पाईं.
और वाड्रा-इफेक्ट?
प्रियंका गांधी की सारी खासियतों के साथ साथ एक कमजोर कड़ी भी जुड़ी हुई है - उनके पति रॉबर्ट वाड्रा के विवादित लैंड डील. अब तक तो कांग्रेस नेता और पिछली बार सोनिया गांधी ही उनके बचाव में मोदी सरकार पर बरसते रहे हैं अब वो खुद भी सोशल मीडिया पर विवादों में घसीटे जाने की वजह राजनीति को ठहराने लगे हैं.
वाड्रा पर सबसे बड़ा और कहें कि पहली बार जोरदार हमला अरविंद केजरीवाल ने किया था जो उनके खुद के सियासी लांच पैड में से एक रहा. लोक सभा चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी भी अक्सर उन्हें टारगेट करते रहे. काफी दिनों तक वाड्रा को 'देश का दामाद' तक कह कर निशाना बनाया जाता रहा.
वैसे वाड्रा के खिलाफ केस की जांच कर रहे आयोग का कार्यकाल इस साल अगस्त तक बढ़ा दिया गया है - तब तक संसद का मॉनसून सेशन भी बीत चुका होगा.
अब प्रियंका की चुनौती ये है कि जब विपक्ष यूपी चुनाव में वाड्रा के नाम पर टारगेट करता है तो उससे कैसे निबटती हैं. लोगों को कैसे समझाती हैं कि वाड्रा जो करते हैं वो सब फेयर है - और लोग उनकी बात मान जाते हैं!
आखिर पश्चिम बंगाल के मंत्री स्टिंग में पैसों की डील करते देखे गये लेकिन ममता ने लोगों को समझा लिया कि सब राजनीतिक साजिश है. क्या प्रियंका भी वैसे ही लोगों को समझा लेंगी? ममता की बात पर लोगों ने भरोसा किया, क्या प्रियंका की बातों को भी उतनी ही तवज्जो मिलेगी?
भूलना लोगों की फितरत है. बस मुश्किल यही है कि भूलते वक्त इंसान ये भूल जाता है कि जो नहीं भूलना चाहिए उसे भूल कर वो कोई बड़ी भूल तो नहीं कर रहा? फिर भी लोग भूल जाते हैं? यही सियासत में होने का वरदान है - नसीबवाला जो बन जाये.
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