क्या कांग्रेस पर गांधी परिवार की पकड़ ढीली हो रही है ?
आरके आनंद की हार के तकनीकी पक्ष नहीं, बल्कि अन्य कारणों पर गौर करें तो कदम कदम पर दोस्ती और दुश्मनी के ट्विस्ट देखने को मिलते हैं.
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आरके आनंद की हार के लिए कौन जिम्मेदार है? क्या उन 14 वोटों का रद्द हो जाना? या, वोटों के रद्द होने के पीछे कलम और स्याही के रहस्यमय रंग? या फिर, कोई और, कुछ और?
फिलहाल हरियाणा के पूर्व सीएम भूपेंद्र हुड्डा विवादों के केंद्र में हैं. वो खुद चुप्पी साध लिये हैं - बस, इतना बोल कर कि आनंद को चुनाव आयोग से शिकायत दर्ज करानी चाहिए.
लेकिन क्या आनंद की हार के लिए कांग्रेस नेतृत्व भी जिम्मेदार है? क्या इस हार के भी वही कारण हैं जो असम या अरुणाचल में देखे गये?
दोस्ती-दुश्मनी
आरके आनंद हरियाणा से राज्य सभा सीट के लिए निर्दलीय उम्मीदवार थे - जिन्हें कांग्रेस और इंडियन नेशनल लोकदल का समर्थन हासिल था. आनंद की हार के तकनीकी नहीं, बल्कि अन्य कारणों पर गौर करें तो कदम कदम पर दोस्ती और दुश्मनी के ट्विस्ट देखने को मिलते हैं.
पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव जब जेएमएम रिश्वत कांड में फंसे तो आरके आनंद उनके वकील थे. राव को कांग्रेस से तवज्जो तो नहीं मिली लेकिन आरके आनंद की उम्मीदवारी के बाद कई समीकरण बदले.
आरके आनंद के साथ बड़ी बात ये थी कि वो सुभाष चंद्रा के खिलाफ मैदान में थे. सुभाष चंद्रा और कांग्रेस नेता नवीन जिंदल की दुश्मनी जगजाहिर है. सुभाष को रोकने के लिए जिंदल ने आलाकमान से गुहार लगाई और मिशन में कामयाब रहे. फरमान पहुंचा कि आनंद को कांग्रेस के विधायक सपोर्ट करेंगे. सुभाष चंद्रा की ही तरह नवीन जिंदल और भूपिंदर हुड्डा की दुश्मनी से भी शायद ही कोई होगा जिसे मालूम न हो. सुभाष चंद्रा और हुड्डा के रिश्ते की मिठास तब और बढ़ गई जब उन्हें जिंदल की रणनीति का पता चला. फिर वही दुश्मन का दुश्मन दोस्त वाला फॉर्मूला अप्लाई हो गया - सुभाष चंद्रा ने दोस्ती को तरजीह दी.
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इस मु्द्दे पर हुड्डा तो चुप हैं, उनके एक करीबी करन दलाल बचाव में सामने आए हैं. दलाल ये तो मानते हैं कि हुड्डा समर्थक विधायकों को आनंद के समर्थन की बात दबाव में माननी पड़ी - लेकिन अगर उन्हें पार्टीलाइन के खिलाफ जाना होता तो वो बायकॉट कर देते. दलाल ने भी हुड्डा की तरह इल्जाम बीजेपी पर मढ़ दिया. दलाल का तर्क है कि कांग्रेस विधायक अपने पेन बाहर छोड़ कर ही गये थे और ये किसी कर्मचारी की मिलीभगत है. हुड्डा का बचाव करते हुए दलाल ने सफाई दी कि उनका कांग्रेस आलाकमान से कोई नाराजगी नहीं है.
नाराजगियों के सिलसिले
दलाल जो भी सफाई दें, लेकिन ये तो सबको पता है कि जब राहुल गांधी ने अपने चहेते अशोक तंवर को सूबे की कमान सौंपी तो अगर सबसे ज्यादा कोई दुखी हुआ तो वो कोई और नहीं हुड्डा ही थे. हुड्डा को अशोक तंवर फूटी आंख नहीं सुहाते. इस बात को रामलीला मैदान में हुई कांग्रेस की रैलियों में खुलेआम देखा गया. हरियाणा में तंवर को हुड्डा और कुमारी शैलजा के समर्थकों का विरोध कदम कदम पर झेलना पड़ता है. माना जाता है कि हुड्डा गुट पूर्व मुख्यमंत्री के बेटे दीपेंद्र को नेता बनाए जाने का पक्ष में रहा है.
नाराजगी का ये आलम हरियाणा के पड़ोसी पंजाब से लेकर राजस्थान से लेकर मध्य प्रदेश तक देखने को मिलता है. जितने परेशान अशोक तंवर हरियाणा में रहते हैं उससे कहीं ज्यादा मुश्किल अरुण यादव को मध्य प्रदेश में होती है. शायद ही कोई ऐसा मौका हो जब दिग्विजय सिंह, कमल नाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया और अजय सिंह जैसे नेता उनकी नाक में दम न करते हों.
सर्जरी की शुरुआत कहां से हो... |
राजस्थान में राहुल की टीम के सचिन पायलट और पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बीच छत्तीस का आंकड़ा कांग्रेस आलाकमान के लिए गले की हड्डी बना हुआ है. पंजाब में जहां कैप्टन अमरिंदर ने लड़ झगड़ कर कमान अपने हाथ में ले ली और राहुल गांधी के पसंदीदा प्रताप सिंह बाजवा को पीछे हटना पड़ा. अब भला ऐसे हालात में गुटबाजी से निजात कहां मिलने वाली.
कैसी सर्जरी?
हाल में विधानसभा चुनाव के नतीजे आए तो दिग्विजय सिंह ने कांग्रेस में सर्जरी की बात बढ़ाई. फिर सवाल यही उठा कि किस बात की सर्जरी? अभी ये चर्चा शुरू ही हुई थी कि दो और मामले सामने आ गये.
एक, पश्चिम बंगाल में चुन कर आए विधायकों से एफिडेविट लिया गया कि उनकी सोनिया गांधी और राहुल गांधी में गहरी आस्था है और वो किसी भी सूरत में पार्टीलाइन के खिलाफ नहीं जाएंगे.
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दूसरा, पुड्डुचेरी में कांग्रेस ने वी नारायणसामी को मुख्यमंत्री बनाकर भेज दिया. नारायणसामी ने चुनाव भी नहीं लड़ा और सीधे बर्थडे पर आलाकमान ने सीएम की कुर्सी ही गिफ्ट कर दी.
कांग्रेस में ये कोई नया प्रयोग नहीं था, लेकिन विरोध हुआ. विधायकों की नाराजगी स्वाभाविक थी क्या किसी को कुर्सी सिर्फ इसीलिए मिल जानी चाहिए कि उसकी गांधी परिवार से नजदीकियां हैं. गूगल करने पर नारायणसामी की तस्वीर देखी जा सकती है जिसमें वो राहुल का चप्पल हाथ में लिये हुए हैं.
इंदिरा गांधी के जमाने में ऐसे फरमान रेग्युलर फीचर हुआ करते थे. तब शायद अमरिंदर के लिए कमान वापस लेना भी संभव न था. लेकिन अब वो बात नहीं रही.
जब भी राहुल गांधी को कमान सौंपने की बात होती है, कई नेता सोनिया-सोनिया की रट लगाने लगते हैं. राहुल की ताजपोशी की तारीख पक्की न हो पाने में एक वजह ये भी जरूर होगी.
हुड्डा ने खुल कर अपनी नाराजगी नहीं जताई है, लेकिन असम में हिमंत बिस्वा सरमा और अरुणाचल में कलिखो पुल ने अपना अलग रास्ता चुन लिया. मेघालय में भी डीडी लपांग और हिमंत की मुलाकात की खबरें हैं - और पूरे नॉर्थ ईस्ट में तकरीबन एक जैसा ही हाल है. इस तरह तो लगता है हर तरफ एक जैसा ही हाल है - और कांग्रेस पर गांधी परिवार की पकड़ ढीली पड़ती जा रही है.
कांग्रेस आलाकमान को हरियाणा की नब्ज को समझना चाहिए - वरना, चुनाव पंजाब में भी होने जा रहे हैं. उत्तराखंड में जो कुछ हुआ उसका क्रेडिट कांग्रेस आलाकमान खुद नहीं ले सकता, वो सिर्फ और सिर्फ हरीश रावत की कोशिशों और किस्मत का नतीजा रहा. किस्मत के भरोसे लंबा नहीं चला जा सकता. किस्मत बार बार साथ नहीं देती - किसी नसीबवाले का भी.
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