हिमंता बिस्व सरमा को BJP से मेहनत का फल मिला नहीं, ले लिया है!
हिमंता बिस्व सरमा (Himanta Biswa Sarma) 20 साल से कैबिनेट मिनिस्टर थे - फिर बीजेपी ज्वाइन करने की जरूरत क्या थी - असम के मुख्यमंत्री (Assam BJP New CM) रहे सर्बानंद सोनोवाला (Sarbananda Sonowal) की जगह बीजेपी ने खुशी खुशी दे दी या माजरा कुछ और है?
-
Total Shares
हिमंता बिस्व सरमा (Himanta Biswa Sarma) को असम का मुख्यमंत्री (Assam BJP New CM) बनाये जाने से पहले से ही खबरें आने लगी थीं, फिर भी भरोसा नहीं हो रहा था. यहां तक कि जब हिमंता बिस्व सरमा और सर्बानंद सोनवाल दोनों को ही दिल्ली तलब किये जाने की खबर आयी तब भी - और उसकी बहुत बड़ी वजह भी रही.
ऐसे में जबकि कोविड 19 से पैदा नाजुक हो चुके संकट के बीच जहां ज्यादातर बैठकें वर्चुअल हो रही हैं, सर्बानंद सोनवाल (Sarbananda Sonowal) और हिमंता बिस्व सरमा दोनों ही को दिल्ली बुलाया जाना काफी अलग लगा था, लेकिन ऐसा ही लग रहा था कि दोनों को आमने सामने बिठाकर समझौता करा दिया जाएगा - और मिलजुल कर काम करने का वादा कर दोनों गुवाहाटी लौट जाएंगे.
दिल्ली में बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के घर पर अमित शाह और बीएल संतोष जैसे दिग्गजों की मौजूदगी में मैराथन मीटिंग हई - और फिर तमाम मीडिया रिपोर्ट में हिमंता बिस्व सरमा को मुख्यमंत्री बनाये जाने पर बीजेपी नेतृत्व के गंभीरता से विचार के बाद - दोनों के नाम पर 50-50 संभावना बनने लगी थी.
दिल्ली से लौटा दिये जाने के बाद एकबारगी तो यही लगा कि मुख्यमंत्री तो सर्बानंद सोनवाल ही होंगे, हिमंता बिस्व सरमा के नाम पर कुछ देर सस्पेंस बना रहा था, हो गया - लेकिन तभी हिमंता बिस्व सरमा को असम में बीजेपी विधायक दल का नेता चुन लिये जाने की खबर आ गयी.
खबर पर हैरानी की कोई और वजह नहीं थी, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की सरप्राइज देने की आदत रही, लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ - क्या ये पश्चिम बंगाल सहित विधानसभा चुनावों के बाद बीजेपी की बदली हुई रणनीति का कोई हिस्सा है?
हिमंता को बीजेपी ने इनाम दिया है
बीजेपी में मुख्यमंत्रियों को लेकर एक आम अवधारणा रही है - सीएम तो संघ की पृष्ठभूमि वाला नेता ही बनेगा. तभी तो ममता बनर्जी का साथ छोड़ कर बीजेपी में गये शुभेंदु अधिकारी को बीजेपी के चुनाव जीतने की स्थिति में भी सीएम बनाये जाने का भरोसा नहीं था - ये बात अलग है कि अगर बीजेपी ने शुभेंदु अधिकारी को पार्टी का मुख्यमंत्री चेहरा घोषित कर दिया होता तो नतीजों पर असर तो पड़ता ही.
ममता बनर्जी को नंदीग्राम में शिकस्त देने वाले शुभेंदु की वजह से बीजेपी को क्या कुछ और सीटें नहीं मिली होतीं - 100 तो पार हो ही गयी होतीं, जिससे बीजेपी सत्ता हासिल न कर पाने की स्थिति में भी प्रशांत किशोर को तो झुठला ही पाती. साथ ही अगली बार के लिए भविष्य धुंधला नहीं रह जाता ता.
देखा जाये तो सर्बानंद सोनवाल भी तो आरएसएस बैकग्राउंड के नहीं ही थे - और हिमंता बिस्व सरमा तो बीजेपी की जानी दुश्मन कांग्रेस छोड़ कर ही आये हैं. हालांकि, काम के मामले में हिमंता बिस्व सरमा तो शुरू से ही कई बीजेपी नेताओं को ही पीछे छोड़ रखा है.
क्या असम में हिमंता बिस्व सरमा को सीएम बना कर बीजेपी ने कोई बड़ा दांव खेला है? अगर ये वास्तव में कोई नया दांव है तो उसके दायरे में कौन कौन आ सकता है और कहां तक असर हो सकता है - आने वाले दिनों ही तस्वीरें साफ हो सकेंगी.
बीजेपी ने चुनाव तो सर्बानंद सोनवाल का चेहरा आगे कर के ही लड़ा, लेकिन हिमंता बिस्व सरमा भी कदम कदम पर अगल बगल ही मौजूद देखे गये, न कि मजबूती के साथ पीछे खड़े वाली स्टाइल में.
बीस साल बाद... हर किसी को मुकाम हासिल होता है, बशर्ते वो हासिल करना चाहे!
अगर 2016 में कांग्रेस के हाथ से सत्ता की चाबी छीन कर बीजेपी को पकड़ाने वाले हिमंता बिस्व सरमा थे, तो सत्ता में वापसी के आर्किटेक्ट भी वही बने हैं. चुनावी जंग भले ही पश्चिम बंगाल में तगड़ी मानी जा रही थी, लेकिन असम में भी लड़ाई बीजेपी के लिए कोई आसान नहीं थी. CAA-NRC को लेकर हुए हिंसक विरोध प्रदर्शनों के बाद बीजेपी की चुनौतियां काफी बढ़ गयी थीं. जरा याद कीजिये, झारखंड विधानसभा चुनाव में रैली करने पहुंच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को असम के लोगों से हिंसा की राह छोड़ कर शांति बनाये रहने की अपील करनी पड़ रही थी.
एक वर्ग सीएए-एनआरसी से नाराज था तो, कुछ पर सत्ता विरोधी फैक्टर का भी प्रभाव था. कांग्रेस ने बदरुद्दीन अजमल की पार्टी से चुनावी गठबंधन कर भी बीजेपी की टेंशन तो बढ़ायी ही थी, लेकिन बीजेपी ने कांग्रेस को ही बदरुद्दीन की बी टीम जैसा पेश करने की कोशिश की और कामयाब रही - और बीजेपी की इस कामयाबी में सबसे बड़ी भूमिका भी हिमंता बिस्व सरमा की ही आयी.
2 मई को जब असम की 126 सीटों पर हुए चुनाव के नतीजे आये तो बीजेपी की झोली में 60 सीटें आ चुकी थीं - और गठबंधन को मिला दें तो पूरे 75 विधायक. अब ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि सर्बानंद सोनवाल का कोई योगदान नहीं रहा. शुरू से ही सर्बानंद सोनवाल की छवि अच्छी रही है. अगर गांव गांव तक सर्बानंद सोनवाली की पहुंच बीजेपी को काम आयी तो शहरों में हिमंता बिस्व सरमा ने कमाल दिखाया है.
सर्बानंद सरकार में स्वास्थ्य मंत्री रहते हुए हिमंता बिस्व सरमा के कामों की तारीफ भी होती थी, खास कर कोरोना वायरस से पैदा हुए संकट काल में. लिहाजा ये बीजेपी को ये भी समझ में आ गया कि असम में सत्ता हासिल करना ही नहीं, सत्ता में बने रहने के लिए भी उसके पास हिमंता बिस्व सरमा का कोई विकल्प नहीं है. मुख्यमंत्री पद के लिए हिमंता बिस्व सरमा के नाम पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह की मुहर लगने में हिमंता बिस्व सरमा की कड़ी मेहनत की भी खास भूमिका है - और ऐसे में अगर मोदी-शाह ने बीजेपी का प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने के लिए हिमंता बिस्व सरमा को इनाम दिया है तो उसके वो असली हकदार भी हैं.
नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलाएंस का संयोजक बनाये जाने के बाद हिमंता बिस्व सरमा ने बीजेपी की लाल झंडा हटाकर त्रिपुरा तक में भगवा फहराने का मौका दे दिया. पश्चिम बंगाल चुनाव के शुरुआती दौर में भी हिमंता बिस्व सरमा को काफी सक्रिय देखा गया था, लेकिन बाद जब असम की होगी तो बंगाल का नंबर तो बाद में ही आएगा.
चुनाव जीतने के बाद बीजेपी की तरफ से केंद्रीय नरेंद्र सिंह तोमर पर्यवेक्षक बना कर असम भेजे गये थे. साथ में पहुंचे बीजेपी महासचिव अरुण सिंह, बीएल संतोष और आम चुनाव से पहले बीजेपी ज्वाइन करने वाले बिजयंत पांडा भी रहे और सबकी मौजूदगी में ही गुवाहाटी के लाइब्रेरी ऑडिटोरियम में बीजेपी के नवनिर्वाचित विधायकों की मीटिंग बुलायी गयी थी.
बीजेपी के असम चुनाव जीतने के बाद से ही मुख्यमंत्री का चेहरा बदलने की चर्चा चल पड़ी थी - और सर्बानंद सोनवाल को दिल्ली बुला लिये जाने के. मुख्यमंत्री बनने से पहले भी सर्बानंद सोनवाल मोदी सरकार में स्वतंत्र प्रभार वाले मंत्री रहे.
केंद्रीय पर्यवेक्षक नरेंद्र सिंह तोमर ने प्रेस कांफ्रेंस कर बताया कि विधायकों की मीटिंग में खुद सर्बानंद सोनवाल ने ही हिमंता बिस्व सरमा के नाम का प्रस्ताव रखा और असम बीजेपी अध्यक्ष रंजीत कुमार के साथ साथ हाफलांग से विधायक नंदिता गार्लोसा ने प्रस्ताव का समर्थन किया - और फिर सर्व सम्मति से हिमंता बिस्व सरमा को बीजेपी विधायक दल का नेता चुन लिया गया.
असम में बीजेपी के चेहरा बदलने के मायने
एक बड़ा ही स्वाभाविक सवाल है कि हिमंता बिस्व सरमा को कांग्रेस छोड़ने की जरूरत क्यों महसूस हुई?
2021 के विधानसभा चुनाव से पहले तक हिमंता बिस्व सरमा वही कर रहे थे जो पिछले 20 साल से करते आ रहे थे. 2001 में अपनी राजनीतिक पारी शुरू करने वाले हिमंता बिस्व सरमा हर बार चुनाव जीतते और कैबिनेट मंत्री बन जाते. पहली बार चुनाव जीतने के बावजूद तत्कालीन मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने हिमंता बिस्व सरमा के टैलेंट को देखते हुए सीधे कैबिनेट मंत्री ही बनाया था - और तब से अलग पिछली बीजेपी सरकार तक में वो वैसे ही मंत्री बने रहे.
अगर हिमंता बिस्व सरमा बीजेपी न भी ज्वाइन करते तो भी राज्य में जो भी सरकार बनती कैबिनेट मंत्री बने रहते - और सरकार भी कांग्रेस की ही बनती क्योंकि हिमंता बिस्व सरमा के साथ होते तरुण गोगोई को चैलेंज करने वाला तो कोई था नहीं. बीजेपी के लिए तो असम में सत्ता हासिल करना सपने जैसा ही था.
निश्चित तौर पर हिमंता बिस्व सरमा का भी मुख्यमंत्री बनने का सपना रहा होगा - और स्वाभाविक तौर पर उम्मीद कर रहे होंगे कि तरुण गोगोई के बाद असम में कांग्रेस का उत्तराधिकारी उनको ही चुना जाएगा. ऐसा तमाम राजनीतिक दलों में होता है और ऐसे मजबूत नेताओं के जीवन में ऐसे दौर भी आते हैं. आरेडी में लालू प्रसाद के बाद पप्पू यादव खुद को दावेदार समझते थे, लेकिन जैसे ही लालू को भनक लगी निकाल बाहर किया, ये कहते हुए कि वारिस बेटा नहीं होगा तो क्या भैंस चराएगा. तेजस्वी यादव की ही तरह मुलायम सिंह यादव की विरासत भी अखिलेश यादव को ही मिली और शिवपाल यादव जान लड़ाकर भी हाथ मलते ही रह गये. बीएसपी में भी स्वामी प्रसाद मौर्य या नसीमुद्दीन सिद्दीकी जैसे नेताओं की मायावती से नाराजगी की मूल वजह यही बनी.
कांग्रेस में जो व्यवहार हिमंता बिस्व सरमा के साथ हुआ, बिलकुल वैसा ही आंध्र प्रदेश में जगनमोहन रेड्डी के साथ हुआ. दोनों ही ने रास्ते तो अलग अलग अपनाये लेकिन दोनों ही आज अपने अपने राज्यों के मुख्यमंत्री हो गये हैं.
कांग्रेस के मुख्यमंत्री वाईएसआर रेड्डी की हेलीकॉप्टर दुर्घटना में मौत के बाद जगनमोहन रेड्डी ने दावेदारी पेश की थी, लेकिन सोनिया गांधी के दरबार में मुलाकात के लिए तरसना पड़ता रहा. जब जगनमोहन रेड्डी जो जेल भेज दिया गया तो उनकी मां और बहन ने भी गांधी दरबार में अपील की कोशिशें की, लेकिन नाकाम रहे.
जगनमोहन रेड्डी की तरह हिमंता बिस्व सरमा ने भी तभी अपना अलग रास्ता चुनने का फैसला किया जब उनके राजनीतिक गुरु तरुण गोगोई अपने बेटे गौरव गोगोई को हिमंता बिस्व सरमा की जगह महत्व और तरजीह देने लगे. जब हिमंता बिस्व सरमा ने दिल्ली दरबार में अपनी पीड़ा शेयर करनी चाही तो उनका भी अनुभव जगनमोहन रेड्डी और उनके परिवार जैसा ही रहा. हिमंता बिस्व सरमा की वो बात खासी चर्चित रही थी जिसमें वो कहे थे कि राहुल गांधी से मुलाकात होती तो वो कांग्रेस नेताओं से ज्यादा अपने पालतू कुत्तों में दिलचस्पी दिखाया करते थे.
असल में राहुल गांधी भी गौरव गोगोई को ही शुरू से पंसद करते हैं - और आज भी गौरव गोगोई उनके करीबी होने की वजह से बाकियों के मुकाबले कांग्रेस में ज्यादा तवज्जो पाते हैं.
नतीजे आने के बाद से ही हिमंता बिस्व सरमा से उनके मुख्यमंत्री बनने की संभावनाओं पर सवाल पूछे जाते रहे, लेकिन किसी अनुभवी राजनेता की तरह हमेशा ही वो टाल जाते. आपको याद होगा, माहौल ठीक से बनने से पहले से ही हिमंत बिस्वा सरमा चुनाव न लड़ने की बात करते रहे. जब असम के बीजेपी उम्मीदवारो की सूची आयी तो हिमंत बिस्व सरमा का भी नाम उसमें शामिल था - लेकिन पार्टी नेतृत्व के फैसले से हिमंता बिस्व सरमा खुश नहीं लगे थे. फिर भी काम करते रहे, हो सकता है - नेतृत्व ने हिमंता बिस्व सरमा की नाराजगी भांप ली हो और कोई ठोस आश्वासन भी दिया गया हो.
कहीं बीजेपी को ये डर तो नहीं था कि अगर हिमंता बिस्व सरमा को मुख्यमंत्री नहीं बनाया तो जैसे असम में बीजेपी की सरकार बनवायी. ठीक वैसे ही घर वापसी कर कांग्रेस को भी तो सत्ता दिला सकते थे - और अगर ये मौका मिलता तो राहुल गांधी अपने पेट पिडी को छोड़ कर हिमंता बिस्व सरमा से मिलने गेट तक दौड़ कर पहुंचे होते!
इन्हें भी पढ़ें :
सोनिया सच का सामना करें, ममता को 'आज' का नेता मान लें और राहुल को 'कल' का
पश्चिम बंगाल में जो हो रहा है उसके पीछे 'ऑपरेशन लोटस' का नया वैरिएंट है!
ममता बनर्जी फिर से मुख्यमंत्री बन गईं, लेकिन कई बातों की शपथ लेना बाकी है!
आपकी राय