आसां न था दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी का ‘तमगा’ बीजेपी से छीन लेना
सबकुछ रिकॉर्ड गति से चल रहा था. बीजेपी दुनिया की सबसे बड़ी पॉलिटिकल पार्टी होने का दावा कर रही थी. लेकिन इसमें गड़बड़ी थी. और उसे उजागर करना आसान नहीं था.
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लोकसभा चुनाव 2014 के बाद राजनैतिक फिजा बदल चुकी थी. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी की पूर्ण बहुमत वाली पहली सरकार बनने की ठसक बोलचाल से लेकर कार्यशैली में उभरने लगी थी. मोदी के खासमखास अमित शाह बीजेपी की विक्रमादित्य वाली कुर्सी पर आसीन हो चुके थे. जिन्होंने सबसे पहला लक्ष्य रखा- मोदी लहर में सवार होकर बीजेपी की ओर से उन्मुख लोगों को अपनी नाव पर बिठाना.
शाह ने बीजेपी को 10 करोड़ का सदस्य वाली दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बनाने के लक्ष्य रखा. पहली बार बीजेपी ने तकनीक का इस्तेमाल किया और मिस्ड कॉल के जरिए सदस्यता अभियान की नींव रखी. वैसे यह कोई नया प्रयोग नहीं था. इससे पहले बीजेपी के अध्यक्ष रहे राजनाथ सिंह के समय भी छत्तीसगढ़ के कार्यकर्ताओं ने मिस्ड कॉल का सुझाव दिया था. लेकिन तब उसे अपनाया नहीं गया.
बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने 1 नवंबर 2014 से अप्रैल 2015 तक महासदस्यता अभियान शुरू किया और जल्द ही पार्टी ने 10 करोड़ के निर्धारित लक्ष्य को पार कर लिया. लेकिन यह सब इतनी तेजी से हुआ कि मिस्ड कॉल से सदस्यता के आंकड़े पर संदेह जताया जाने लगा. इसके बाद शाह ने सभी सदस्यों से पार्टी का सीधा संपर्क स्थापित करने वाला महासंपर्क अभियान चलाया.
इस अभियान के तहत बीजेपी के कार्यकर्ताओं को सभी सदस्यों के घर जाकर फॉर्म भरवाना, मोदी सरकार के कामकाज पर फीडबैक लेना और दोबारा एक नए नंबर पर सदस्यता वाले मोबाइल नंबर से मिस्ड कॉल करवाने की जिम्मेदारी सौंपी गई.
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मेरे जेहन में भी एक सवाल उठा और सोचा कि आखिर 11 करोड़ सदस्य बनाकर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी से भी बड़ी पार्टी होने का दंभ भरने वाली बीजेपी के दावे की हकीकत क्या है? अभियान शुरू होते ही मई 2015 में जब बीजेपी के कुछ जमीनी कार्यकर्ताओं से बातचीत हुई क्योंकि मिस्ड कॉल से बने सदस्यों तक पहुंचने में काफी दिक्कतें तो आ ही रही थी, फर्जीवाड़ा भी खूब सामने आ रहा था. उन जमीनी कार्यकर्ताओं की बातें सुनकर मुझे यकीन हो गया था कि जैसे चुनाव के समय जनता को सब्जबाग दिखाकर वोट बटोरे जाते हैं, वैसे ही मोदी-शाह युग में प्रवेश कर चुकी बीजेपी अपना प्रभाव जमाने के लिए हौव्वा बना रही है.
बीजेपी की सदस्यता का महाभियान, जिसका गुब्बारा फूट गया. |
जमीन पर मिली आहट के बाद मैंने पार्टी में शीर्ष स्तर पर अपने संपर्कों को खंगाला. वहां जो चीजें सामने आई वह बेहद चौंकाने वाली थी क्योंकि इसमें न सिर्फ फर्जीवाड़ा, बल्कि गैर कानूनी तरीके से मोबाइल कंपनियों से उपभोक्ताओं का डाटा हासिल करना जैसी और भी कई गड़बड़ियां सामने आईं. लेकिन मैंने स्टोरी लिखने में जल्दबाजी नहीं की, बल्कि मैंने करीब चार महीने तक इस स्टोरी के लिए काम किया और केंद्र से लेकर बीजेपी के मंडल स्तर तक के कार्यकर्ताओं से संपर्क साधा.
आखिरकार मुझे बीजेपी का वह आंतरिक दस्तावेज हासिल हुआ जो रोजाना महासंपर्क अभियान से जुड़े पदाधिकारियों के बीच सर्कुलेट किया जाता था. पार्टी के इन आंतरिक आंकड़ों ने ही बीजेपी की दुनिया की नंबर एक पार्टी होने के दावे की कलई खोलकर रख दी. मामला सीधे सत्ताधारी दल से जुड़ा था, लिहाजा सबूत जुटाने के बाद मैंने अपने दस्तावेज और तथ्यों को पुख्ता करने के लिए अभियान से जुड़े पदाधिकारियों की टीम से औपचारिक बातचीत शुरू की.
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मेरे पास स्टोरी को पुख्ता करने वाले तमाम दस्तावेज भले मौजूद थे, लेकिन कमी थी तो सिर्फ एक तथ्य की- आखिर मोबाइल कंपनियों से जो डाटा पार्टी ने हासिल किया, उसे कैसे पुख्ता तौर पर बताया जाए. लेकिन मेरी यह मुश्किल आसान हो गई जब औपचारिक बातचीत में पदाधिकारियों ने खुद यह कबूल लिया कि उन्होंने मोबाइल कंपनियों से डाटा हासिल किए हैं.
बीजेपी अपने 11 करोड़ सदस्यों को कार्यकर्ता बनाने के मकसद से जमीन पर उतरी तो उसके पांव तले जमीन खिसक गई. 11 करोड़ में से 4 करोड़ सदस्यों का कोई नाम-पता ही मौजूद नहीं था. पेशेवर से लेकर बीजेपी ने गैर आधिकारिक तौर से सत्ता के प्रभाव का इस्तेमाल किया और मोबाइल कंपनियों से डाटा मांगे. कंपनियां भी थक-हारकर महज 1.20 करोड़ आंकड़े ही उपलब्ध करा पाई. इस पड़ताल में मुझे उस समय विश्वास हो गया कि सदस्यता अभियान सिर्फ तकनीकों और कागजों तक सीमित है, जमीन पर उतना नहीं जितना पार्टी दावा कर रही है.
एक जश्न जो बाद में मुंह छुपाने का सबब बन गया. |
मेरे इस विश्वास का आधार था- बीजेपी ने सदस्यता और महासंपर्क अभियान को राज्यवार करने की बजाए टेलिकॉम सर्किल के आधार पर बांट दिया. लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद शाह की पार्टी विस्तार की सबसे महत्वाकांक्षी योजना 31 जुलाई 2015 तक की तय सीमा में करोड़ तो दूर महज चंद लाख लोगों तक ही पहुंच पाई. 17 अगस्त 2015 तक के आंतरिक आंकड़ों के मुताबिक भी बीजेपी महज 40 लाख लोगों तक ही संपर्क कर पाई थी. इस तरह यह योजना पूरी तरह से फ्लॉप हो गई और आखिरकार 16 सितंबर 2015 के अंक में इंडिया टुडे की इस स्टोरी के बाद बीजेपी इस योजना को चुपके से बंद करने को मजबूर हो गई.
आज बीजेपी की किसी भी बैठक में खास तौर से महासंपर्क अभियान का जिक्र तक नहीं होता. खुद शाह सदस्यता और महाप्रशिक्षण अभियान की बात जरूर करते हैं. लेकिन महासंपर्क अभियान की कसक उनके चेहरे से साफ झलक जाती है. जाहिर तौर पर मैं उन परेशानियों और बातों को जिक्र अपनी पत्रकारिता धर्म और मर्यादा को ध्यान में रखते हुए जिक्र करना मुनासिब नहीं समझता. लेकिन मामला जब सत्ताधारी पार्टी और सबसे ताकतवर शख्स से जुड़ा हो तो असर को समझा जा सकता है.
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बीजेपी ने इस अभियान को पूरी तरह से बंद कर दिया ताकि उसके 11 करोड़ सदस्यता के आंकड़े पर कोई और सवाल नहीं उठे. स्टोरी प्रकाशित होने के बाद बीजेपी प्रवक्ताओं को इंडिया टुडे हिंदी की मैगजीन पढ़ने और बहस के लिए तैयार होने का निर्देश दिया गया. फिर पार्टी ने अपने स्तर से यह पता करने की तमाम कोशिशें की जिससे डाटा के स्रोतों की जानकारी हासिल की जा सके. अभी भी बीजेपी के मौजूदा नेतृत्व के सामने यह सवाल जस का तस है कि इंडिया टुडे को डाटा कहां से मिला?
लेकिन इंडिया टुडे ने कभी अपनी इस स्टोरी पर वाहवाही बटोरने की कोशिश नहीं की, पर उसकी गूंज शायद बीजेपी के हर शख्स के कानों में लंबे समय तक गूंजती रही. आखिर देश के सबसे प्रतिष्ठित रामनाथ गोयनका एक्सीलेंस इन जर्नलिज्म अवार्ड के लिए हिंदी पत्रकारिता की श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ स्टोरी के तौर पर चुना गया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस अवार्ड समारोह में शामिल हुए और ट्रॉफी देकर सम्मानित किया.
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