बीजेपी के सपने में आते रहेंगे जाट
पिछली बार तो मनोहर लाल खट्टर जीत गए थे, लेकिन इस बार हार के मुहाने पर जा पहुंचे हैं. भले ही जोड़-तोड़ की राजनीति कर के भाजपा हरियाणा में सरकार बना ले, लेकिन ये जाट हमेशा भाजपा के सपनों में आते रहेंगे और अपनी मौजूदगी का अहसास दिलाते रहेंगे.
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जब कभी हरियाणा की राजनीति का जिक्र होता है तो सबसे पहले बात आती है जाटों की. हरियाणा की राजनीति में जाट जाति का समीकरण इतना तगड़ा है कि ये जिस करवट हो जाएं, सत्ता उसी ओर चली जाती है. यूं तो इस बारे में हर सरकार और नेता अच्छे से जानता है, लेकिन मोदी सरकार और हरियाणा की खट्टर सरकार ने इसकी असल ताकत को पहचानने में भूल कर दी, जिसकी वजह से अब उन्हें हरियाणा में सरकार बनाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों में पीएम मोदी प्रचंड बहुमत से जीते थे. हरियाणा से भी उन्हें झोली भरकर वोट मिले. लेकिन हरियाणा विधानसभा चुनाव में जाट फैक्टर ने अपनी ताकत दिखा दी और साफ कर दिया कि उन्हें पीएम के तौर पर मोदी तो बहुत पसंद हैं, लेकिन सत्ता की चाबी मनोहर लाल खट्टर के हाथ में देना गंवारा नहीं. अब सवाल ये उठता है कि आखिर जाट मोदी सरकार से नाराज क्यों हैं? पिछली बार तो मनोहर लाल खट्टर जीत गए थे, लेकिन इस बार हार के मुहाने पर जा पहुंचे हैं. भले ही जोड़-तोड़ की राजनीति कर के भाजपा हरियाणा में सरकार बना ले, लेकिन ये जाट हमेशा भाजपा के सपनों में आते रहेंगे और अपनी मौजूदगी का अहसास दिलाते हुए कहेंगे कि हरियाणा की राजनीति में उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.
पिछली बार तो मनोहर लाल खट्टर जीत गए थे, लेकिन इस बार हार के मुहाने पर जा पहुंचे हैं.
25 फीसदी आबादी जाटों की
हरियाणा की राजनीति में जाट वोट बैंक वहां की कुल आबादी का 20-25 फीसदी है. पिछले चुनावों में तो इन जाटों ने भी पीएम मोदी के चेहरे पर वोट दे दिया था, लेकिन इस बार नॉन-जाट मनोहर लाल खट्टर को अपनी ताकत दिखा दी. 2015 में जाटों ने आरक्षण की मांग की थी, जिसे मनोहर लाल खट्टर और भाजपा के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट ने भी खारिज कर दिया था. जाटों में उसका भी गुस्सा था, जो हरियाणा चुनाव में देखने को मिला. तभी तो जिस हरियाणा में भाजपा 75+ सीटों की उम्मीद लगाए बैठी थी, वहां लगभग आधी यानी महज 40 सीटें ही मिल सकीं. हालात ये हो गए कि सरकार तक बनाना मुश्किल हो रहा है.
भाजपा की जीत के बीच में आए जाट
हरियाणा चुनावों में जाट समुदाय ने खुले तौर भाजपा को नकार दिया. भाजपा के 6 में से 5 जाट नेताओं को कांग्रेस और जेजेपी के हाथों बुरी हार झेलनी पड़ी. भाजपा के नेताओं में वित्त मंत्री कैप्टन अभिमन्यु नारनौद से, कृषि मंत्री ओपी धनकर बादली से, भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सुभाष बरारा टोहना से, केंद्रीय मंत्री बीरेंद्र सिंह की पत्नी प्रेम लता उचाना कलां से और सुखविंदर मंडी बधरा से हार गए. मनोहर लाल खट्टर के खिलाफ लोगों में एंटी एनकम्बेंसी तो थी ही, जाटों का खट्टर से गुस्सा होना आग में घी का काम कर गया. हरियाणा जाट बेल्ट में 36 विधानसभा सीटें आती हैं, जिनमें से 15 कांग्रेस, 10 भाजपा, 7 जेजेपी, 1 इनेलो और 3 अन्य ने जीतीं.
अगर जमीनी हकीकत देखी जाए तो ये चुनाव सीधे तौर पर जाट बनाम नॉन जाट वाला था. 2015 में भाजपा ने जाटों के आरक्षण के आंदोलन को सही से हैंडल नहीं किया, उसका भी हर्जाना भाजपा को भुगतना पड़ा. वहीं दूसरी ओर जैसे ही कांग्रेस ने अशोक तंवर को छोड़कर भूपिंदर सिंह हुड्डा को मैदान में उतारा तो जाटों ने जाट भूपिंदर सिंह हुड्डा को ही वोट दे दिया और मनोहर लाल खट्टर को नुकसान हो गया. जाटों की वजह से ही भाजपा का हरियाणा में 75+ सीटें जीतने का सपना सिर्फ सपना ही रह गया.
नॉन-जाट खट्टर कैसे बने सीएम?
हरियाणा की राजनीति में जाटों का कितना रुतबा है, इसका अंदाजा इस बात से भी लगता है कि वहां हमेशा जाट ही सीएम रहे हैं. बंशीलाल, ओम प्रकाश चौटाला और भूपिंदर सिंह हुड्डा जाट सीएम रहे. मनोहर लाल खट्टर पहले ऐसे सीएम बने जो नॉन जाट हैं. वह खत्री जाति के हैं, जो पंजाबी अल्पसंख्यक हैं. उनकी जीत की सबसे बड़ी वजह था पीएम मोदी का चेहरा. किसी को पता नहीं था कि सीएम कौन बनेगा. चुनाव के बाद मनोहर लाल खट्टर को मोदी सरकार ने सरप्राइज के तौर पर पेश किया. उस समय तो भाजपा को डेरा सच्चा सौदा के राम रहीम के अनुयायियों का भी पूरा समर्थन मिला था, लेकिन इस बार वह भी नाराज दिखे.
कैसे भाजपा ने जाटों की ताकत कम करनी चाही?
लिब्रलाइजेशन के बाद जब आर्थिक क्रांति आई तो सारा फायदा जाटों को मिलता दिखा, जिसे हरियाणा की नॉन-जाट आबादी भी नोटिस कर रही थीं. एंटी जाट सेंटिमेंट को भापने में भाजपा ने तनिक भी देर नहीं की और अपना दाव चल दिया. हरियाणा की राजनीति में महज एक चौथाई वोटबैंक की ताकत के चलते सत्ता जाटों के हाथ थी, जिसे भाजपा ने छीन लिया. दलितों के मसीहा बनने वाली गुरमीत राम रहीम भी भाजपा के खूब काम आए. ओबीसी, सवर्ण और दलितों के साथ की बदौलत भाजपा ने 2014 की जीत सुनिश्चित की. जाटों ने भी वोट दिए, क्योंकि तब तक सीएम पद का चेहरा तय नहीं था. हालांकि, 2015 में जब जाटों ने आरक्षण की मांग की तो भाजपा ने उनकी मांग सिरे से खारिज कर दी. देखते ही देखते भाजपा ने हरियाणा की राजनीति को जाटों के कब्जे से छुड़ाने में सफलता तो पा ली, लेकिन उनकी ताकत का अंदाजा भाजपा को कल भी था, और आज भी है. इस बार के चुनाव में तो जाटों ने अपनी ताकत दिखा भी दी है.
चुपके से कुछ जाटों को भी उतारा मैदान में, लेकिन फायदा नहीं हुआ
भाजपा ने भले ही एंटी जाट को सीएम बना दिया हो, लेकिन जाटों के बीच भी अपनी मौजूदगी बनाए रखने के लिए कुछ जाट उम्मीदवारों को 2014 में भी टिकट दिया था और इस बार भी ऐसा ही किया. भाजपा को ये तो पता था कि जाटों की ताकत बड़ी है, लेकिन इस का अंदाजा नहीं था कि अगर वह नाराज हो जाएं तो क्या हो सकता है. पिछली बार मोदी के चेहरे पर लड़े गए हरियाणा विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 24 जाटों को टिकट दिया था और इस बार भी भाजपा ने 17 जाटों को टिकट दिया है. भाजपा ने इस बार के चुनाव में टिकट देने के मामले में जाटों को नाराज किया और नतीजे ये हुआ कि अभी भी एक बड़ा रुतबा रखने वाले जाट लामबंद हो गए, जिसका नुकसान भाजपा को हुआ. वैसे भी, खट्टर सरकार ने हरियाणा में कुछ खास नहीं किया और राष्ट्रीय मुद्दों पर राज्यों की राजनीति नहीं चलती.
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