ब्यूरोक्रेसी का निजीकरण : कितना जरूरी और कितना गैर-जरूरी ?
सरकार का ये फैसला प्रशासनिक व्यवस्था में सुधारवादी दौर की शुरुआत है लेकिन इसकी पारदर्शिता सरकार के लिए बड़ी चुनौती है.
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सरदार पटेल ने भारतीय प्रशासनिक सेवा के बारे में टिप्पणी करते हुए कहा था 'नौकरशाही इस देश का स्टील फ्रेम है'. मौजूदा दौर में सरकार के एक फैसले ने इस 'स्टील फ्रेम' को लेकर देश में बहस को जन्म दे दिया है. दरअसल सरकार ने एक विज्ञापन जारी करके सयुंक्त सचिव स्तर के पदों के लिए निजी क्षेत्रों में काम कर रहे लोगों से आवेदन मांगे हैं. अमूमन इस स्तर के पद पर अभी तक यूपीएससी के जरिये आने वाले लोगों को ही नियुक्त किया जाता था लेकिन ये पहला मौका है जब सरकार निजी क्षेत्रों को लोगों को भी ये जिम्मेदारी सौपने जा रही है. सरकार के इस फैसले पर राजनैतिक दलों के साथ-साथ नौकरशाही के भीतर से भी मिली-जुली प्रतिक्रियाएं सामने आयी हैं.
सरकार के इस फैसले पर विपक्ष के अलावा आम लोगों से भी प्रतिक्रियाएं आनी शुरू हो गई हैं
फैसले के पक्ष में दिए जा रहे तर्क :
इस फैसले का जो प्रो पक्ष है उसका कहना है कि इसके चलते प्रशासनिक सेवाएं और ज्यादा प्रतियोगी होंगी, जिसके चलते बेहतर परिणाम सामने आ सकेंगे. साथ ही इस फैसले से प्रशासनिक सोच में नए विचारों का भी जन्म होगा. पीएमओ में राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह का कहना है कि 'यह उपलब्ध लोगों में से सर्वश्रेष्ठ प्राप्त करने का प्रयास है. यह हर भारतीय नागरिक को उनकी क्षमता के आधार पर विकास का मौका देने से प्रेरित है'. गौरतलब है कि भारतीय प्रशासनिक सेवा में इस समय कुल 6500 पद हैं जिनमें 1496 पद अभी खाली पड़े हुए हैं.सबसे ज्यादा पद जिन राज्यों में खाली हैं उनमें क्रमशः बिहार में 128, उत्तरप्रदेश में 117, पश्चिम बंगाल में 101, कर्नाटक में 87 पद हैं
विपक्ष का क्या कहना है सरकार के इस कदम पर :
सरकार के इस फैसले को लेकर विरोध भी खूब हो रहा है. विपक्षी इसे राजनीती से प्रेरित मान रहे हैं. उनका कहना है कि सरकार इस फैसले के जरिये बैकडोर से भाजपा और संघ के लोगों को नौकरशाही में लाना चाहती है. विरोधियों का ये भी कहना है कि सरकार का ये फैसला यूपीएससी की अनदेखी कर रहा है. साथ ही इन नियुक्त होने वाले लोगों को कॉर्पोरेटस के प्रति सॉफ्ट होने की संभावना भी विपक्ष जता रहा है.
यह मनुवादी सरकार UPSC को दरकिनार कर बिना परीक्षा के नीतिगत व संयुक्त सचिव के महत्वपूर्ण पदों पर मनपसंद व्यक्तियों को कैसे नियुक्त कर सकती है? यह संविधान और आरक्षण का घोर उल्लंघन है।
कल को ये बिना चुनाव के प्रधानमंत्री और कैबिनेट बना लेंगे। इन्होंने संविधान का मजाक बना दिया है। pic.twitter.com/8shIHodMew
— Tejashwi Yadav (@yadavtejashwi) June 10, 2018
प्रशासनिक सेवा में लैटरल एंट्री का प्रस्ताव सबसे पहले 2005 में पहले प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट में आया था. इसकी सिफारिश 2010 में भी की गई थी. लेकिन इसको लेकर गंभीर प्रयास 2014 में मोदी सरकार आने के बाद शुरु हुए.
जानकारों की प्रतिक्रिया इस फैसले पर :
जानकारों की इस फैसले पर मिली जुली प्रतिक्रियाएं सामने आयी हैं. जानकर इसे सरकार का मजबूत निर्णय बता रहे हैं लेकिन साथ ही इसकी प्रक्रिया को लेकर उन्होंने कुछ सवाल भी उठाये हैं. जानकारों का कहना है क्या हम लोगों को पर्याप्त पैसा दे रहे हैं ताकि सही लोग इन पदों के लिये आ सकें. दूसरा उनका मानना है कि क्या इन लोगों को सयुंक्त सचिव स्तर की असली ताकत मिल पायेगी जिससे ये लोग निर्णय ले सकें और तीसरा क्या ये लोग यूपीएससी सिस्टम में फिट हो पायंगे?
कुल मिलाकर देखा जाये तो सरकार का ये फैसला प्रशासनिक व्यवस्था में व्यवहारिक सोच का परिचायक है.सरकार का ये फैसला भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था में सुधारवादी दौर की शुरआत कर रहा है.जानकर इसे मजबूत निर्णय बता रहे है लेकिन इस पूरी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाये रखना तथा सफल रूप से लागू करने की चुनौती सरकार के सामने है जिस पर सरकार को खुद को साबित करना होगा.
कंटेंट - गर्वित बंसल (इंटर्न, आईचौक)
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