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Updated: 08 दिसम्बर, 2019 06:58 PM
आर.के.सिन्हा
आर.के.सिन्हा
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तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद में युवा महिला पशु चिकित्सक के वीभत्सतापूर्ण बलात्कार (Disha Rape Case) के बाद निर्ममतापूर्ण हत्या करने वाले सभी चारों अपराधियों को अब पुलिस के साथ हुई मुठभेड़ (Hyderabad Police Encounter) में मार गिराया गया है. यह मुठभेड़ नेशनल हाइवे 44 पर ही हुई, जहां यह जघन्य अपराध हुआ था. पुलिस इन सभी आरोपियों को उनके द्वारा जुर्म कुबूले जाने के बाद उन्हें लेकर राष्ट्रीय राजमार्ग (एनएच 44) पर अनुसंधान के स्वाभाविक क्रम में क्राइम सीन को रिक्रिएट करवाने के लिए ले गयी थी. मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए रात का वक्त चुना गया. वैसे भी यह दुष्कर्म रात में ही हुआ था. पुलिस के अनुसार गहरी धुंध का फायदा उठाते हुए आरोपियों ने पुलिस का हथियार छीन भागने की कोशिश की. पुलिस ने उन्हें रोकने की कोशिश भी की, लेकिन वह नाकाम रही. अपराधियों ने पुलिस पर पत्थरबाजी भी की. अंतत: पुलिस ने आत्मरक्षार्थ फायरिंग की और मुठभेड़ के बाद चारों दुष्कर्मी मारे गये.

Hyderabad Police Encounter of Disha rape accusedदिशा का रेप करने वाले आरोपियों के एनकाउंटर पर सवाल उठने लगे हैं.

इन दानवों के मारे जाने पर कुल मिलाकर देश खुश है. 6 दिसंबर को सुबह जब लोगों की आंखें खुलीं तो पहली खबर जो देश को सुनने को मिली, वह थी हैदरबाद रेप केस के आरोपियों के पुलिस एनकाउंटर में मारे जाने की. इन दानवों के मारे जाने से जनता को सुकून सा मिला. हालांकि, किसी की मौत पर जश्न मनाने मे हमारी संस्कृति का विश्वास तो नहीं है, लेकिन इन चारों हैवानों की मौत पर जश्न मनाने का देश भर में एक स्वाभाविक माहौल बन गया.

यह सही है कि न्यायिक व्यवस्था के जरिए ही न्याय होना चाहिए. आरोपियों को खुद को निर्दोष साबित करने का पर्याप्त मौका भी मिलना चाहिए, क्योंकि हमारी न्याय व्यवस्था ऐसा ही कहती है. लेकिन फास्ट ट्रैक, कठोर कानून, सख्त सजा जैसी बातें तो बरसों से लोग बाग सुन ही रहे हैं. निर्भया (Nirbhya) केस के बाद यह माना भी गया कि शायद कुछ बदलेगा... पर सात साल में कुछ भी बदला क्या?

स्थितियों में बदलाव के उलट कठुआ, हैदराबाद, उन्नाव... यानी घिनौने और बर्बरतापूर्ण रेप के एक से एक बढ़कर वीभत्स मामले बढ़ते ही जा रहे हैं. दरिंदगी देखिए, सिर्फ रेप करने से उन दरिंदों का पौरुषत्व पूरा नहीं हुआ तो वे लड़कियों को जिंदा जलाने, पत्थरों से कुचलने तक लग गए. हम इंसाफ के लिए मोमबत्तियां जलाते रहे और वे दरिंदे लड़कियों को जिंदा जलाते रहे. आखिर यह कहां का इंसाफ है?

मानवाधिकार की वकालत करने वाले तो यह कहेंगे ही कि मुल्जिमों से लेकर मुजरिमों तक, सभी के मानवाधिकार हैं. लेकिन क्या कोई यह भी बताएगा कि मानवाधिकार मानवों के लिये बनाये गये हैं या हैवानों के लिये? क्या जो लड़कियां जिंदा जला दी गईं, उनके कोई मानवाधिकार नहीं थे? जिन्हें रौंद दिया गया, कुचल दिया गया, जिंदा शरीर में से अंग खींच कर बाहर फेंक दिए गए, उनके मानवाधिकार नहीं थे? क्या तीन दिन तक राक्षसों की हवस का शिकार होती रही 7 साल की गुड़िया के भी मानवाधिकार नहीं थे? आज न सिर्फ निर्भया या प्रियंका के, बल्कि, उन सभी तमाम लड़कियों की मांओं को, पिताओं को, भाइयों को, बहनों को, दोस्तों को, रिश्तेदारों का एक सुकून तो जरूर ही मिला होगा कि कम-से-कम किसी एक पीड़ित लड़की को अन्तत: इंसाफ तो मिला.

गौर करने वाली बात यह है कि ये आरोपी उसी जगह मारे गए हैं जहां महिला डॉक्टर के साथ बलात्कार हुआ था. दरअसल पुलिस यहां क्राइम सीन का रिक्रिएशन करने की कोशिश कर रही थी ताकि उसकी तरफ से अदालती कार्रवाई के दौरान केस की पैरवी में कोई कमी न रह जाए और इस केस को मजबूती मिले. ये सभी आरोपी पुलिस की हिरासत में थे और पूछताछ में सभी आरोपियों ने स्वीकार कर लिया था कि उन्होंने ही महिला डॉक्टर के साथ इस खौफनाक वारदात को अंजाम दिया था. इसके बाद अदालत ने आरोपियों को पुलिस रिमांड में भेज दिया था, क्राइम सीन रिक्रिएट कर मिनट दर मिनट घटनाक्रम की कड़ी जोडने के लिए.

27-28 नवंबर की रात चारों आरोपियों ने इस खौफनाक वारदात को साजिशन अंजाम दिया था. महिला डॉक्टर ने साइबराबाद टोल प्लाजा की पार्किंग में अपनी स्कूटी पार्क की थी. उसके बाद जब वह ड्यूटी से वापस आईं तो वहां स्कूटी पंचर पड़ी थी. आरोपियों में से एक शख्स ने जानबूझकर षडयंत्रपूर्वक इसे पंचर किया था, ताकि मदद के बहाने दुष्कर्म को अंजाम दिया जा सके. मुझे याद है कि दिल्ली में ही कई साल पहले सुप्रीम कोर्ट के एक वरिष्ठ न्यायधीश अरिजित पसायत ने मानवाधिकार पर आयोजित एक सेमिनार की अध्यक्षता करते हुए साफ़ कहा था कि मानवाधिकार तो सभ्य और कानूनप्रिय नागरिकों के लिये ही बने हैं.

आतंकवादियों और अपराधियों के लिये जो हैवानियत और जघन्य अपराध करते हैं, उनके लिये तो मानवाधिकार हर्गिज भी नहीं हो सकते. जब पंजाब जल रहा था तब भी कुछ कथित मानवाधिकारवादी आतंकियों के मारे जाने पर हंगामा करते थे. लेकिन तब ये मानवाधिकारी चुप रहते थे जब मासूमों को मारा जाता था. इनके लिए तो सारे अधिकार मानो दानवों के लिये ही हैं. बेशक, इस देश के कानून में बहुत सारी खामियां हैं जिन पर जनप्रतिनिधियों को विचार कर ठीक करने की जरूरत है. जिसकी बहन- बेटियों के साथ ऐसी हैवानियत होती है कोई उनसे भी तो जाकर पूछे कि हैवानियत का दर्द कैसा होता है? इसी बीच उन्नाव की रेप पीडिता की दिल्ली के एक अस्पताल में हुई मृत्यु ने नया भूचाल खड़ा कर दिया है. मायावती से लेकर प्रियंका वाड्रा और अखिलेश तक को न्यायिक व्यवस्था पर प्रहार करने का मौका मिल गया है.

मुख्यमंत्री योगी ने फास्ट ट्रैक कोर्ट की बात कही है. लेकिन, फास्ट ट्रैक की परिभाषा भी तो तय होनी चाहिए? रेप, गैंगरेप और पास्को एक्ट के लिए बनाये जाने वाले फास्ट ट्रैक कोर्टों का भी हाल देख लीजिए. एक सर्वे के मुताबिक मात्र 30.2% यानि एक तिहाई से भी कम मामलों का निपटारा ये फास्ट ट्रैक कोर्ट कर सके हैं. बाकी 30% मामलों में एक से तीन साल का वक्त लगा और लगभग 31% मामले 10 साल तक और 9% मामले तो दस साल से भी ज्यादा से चल रहे हैं. अभी भी लगभग 1 लाख 67 हजार केस लंबित हैं. तब ऐसी हालात में इन फास्ट ट्रैक कोर्टों का मतलब क्या रह गया है.

इस बीच भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बोबडे ने यह कहकर एक नया विवाद खड़ा कर दिया है कि बदला लेना और न्याय में फर्क है. मैं जस्टिस बोबडे से सहमत तो जरूर हूं पर एक प्रश्न तो यह भी करना चाहूंगा कि न्याय मिलने की समयसीमा भी तो निर्धारित होनी चाहिए? कानूनी प्रक्रिया की जटिलता को भी तो समाप्त करने की आवश्यकता है? नहीं तो 'जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डनायड' (न्याय में देरी और न्याय न मिलना बराबर ही तो है) वाली बात चरितार्थ हो जायेगी और जनता की बेसब्री को नियंत्रित करना कठिन हो जायेगा.

(लेखक भाजपा के राज्य सभा सदस्य हैं)

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लेखक

आर.के.सिन्हा आर.के.सिन्हा @rksinha.official

लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं.

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