प्रियंका को अगर कांग्रेस ने मोदी के खिलाफ उतारा तो हाल केजरीवाल जैसा ही होगा
बनारसवालों को फर्क नहीं पड़ता कि इलाके में विकास कितना हुआ है, या काशी अब भी क्योटो के करीब पहुंचा कि नहीं? मोदी के खिलाफ अभी तो जो भी आया, बनारसवाले सलूक वैसा ही करेंगे जैसा पांच साल पहले केजरीवाल के साथ किया था.
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2014 में वाराणसी पहुंचे. बताया किसी ने भेजा नहीं बल्कि मां गंगा ने बुला लिया. नतीजा ये हुआ कि बीजेपी को यूपी में तो भारी जीत मिली ही, असर बिहार तक हुआ.
कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल के एक ट्वीट को लेकर चर्चा ये चल पड़ी है कि प्रियंका गांधी वाड्रा वाराणसी में प्रधानमंत्री मोदी को चैलेंज कर सकती हैं. ऐसे में जबकि यूपी में मायावती और अखिलेश यादव गठबंधन कर चुके हैं, प्रियंका के कमान संभालने से बीजेपी की चुनौतियां बढ़नी तय हैं - और उसी हिसाब से उसे रणनीति में भी बदलाव करने होंगे.
ये ठीक है कि मोदी सरकार जनता से जुड़े कई मुद्दों को लेकर सवालों के घेरे में है. ये भी सच है कि बीजेपी को हाल के विधानसभा चुनावों में मुंहकी खानी पड़ी है - लेकिन क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की स्थिति इतनी खराब हो चुकी है कि कांग्रेस बीजेपी के गढ़ बनारस में हराने के बारे में सोच विचार कर रही है.
चुनावी हार जीत के सवालों का सही जवाब तो नतीजों के पास ही होता है - लेकिन उससे पहले दीवार पर लिखी इबारत भी बिलकुल हवाई नहीं होती.
बेशक प्रियंका में दम है
प्रियंका गांधी वाड्रा के मैदान में उतरने के बाद 19 पुराना उनका तेवर याद किया जा रहा है. तब प्रियंका गांधी की उम्र महज 27 साल थी. माना जाता है कि 1999 में प्रियंका के एक भाषण ने रायबरेली में चुनाव का रूख ही बदल दिया था. तब कांग्रेस की ओर से कैप्टन सतीश शर्मा और बीजेपी की ओर से अरुण नेहरू मैदान में थे.
रायबरेली के लोगों से तब प्रियंका ने एक सीधा सा सवाल पूछा था, 'क्या आप उन्हें वोट देंगे जिन्होंने मेरे पिता की पीठ में छुरा घोंपा?' सवाल से पहले प्रियंका ने रायबरेली के लोगों को ललकारते हुए पूछा कि उनके पिता के साथ दगाबाजी करने वालों को वहां लोगों ने घुसने कैसे दिया? प्रियंका के इस भाषण पर जबरदस्त रिएक्शन हुआ. मोर्चा संभालने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी रायबरेली पहुंच गये और प्रियंका के प्रश्न पर अपने अंदाज में सवाल दागा - 'हमने सुना है ये किसी का इलाका है...'
नतीजे आये तो मालूम हुआ कैप्टन सतीश शर्मा न सिर्फ जीते बल्कि अरुण नेहरू चौथे स्थान पर जा पहुंचे.
निश्चित रूप से प्रियंका गांधी एक चर्चित शख्सियत हैं. वाड्रा टाइटल से पहले उनके नाम के साथ गांधी भी जुड़ा है. उनकी चुनावी रैलियों में पहले के मुकाबले अब ज्यादा भीड़ देखने को मिल सकती है. ये भी संभव है कि कई सीटों पर वो रायबरेली जैसा उलटफेर भी करा दें, लेकिन क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुकाबले में होते वाराणसी में भी ये संभव है? सबसे बड़ा सवाल यही है.
चुनावी रैलियों की भीड़ वोटों में भी तब्दील हो जरूरी तो नहीं. यूपी में ही मायावती की रैलियों में जुटने वाली भीड़ की संख्या न 2014 में कम पड़ी न 2017 में - लेकिन नतीजा क्या निकला?
कांग्रेस के पक्ष में ये दलील भी जाती है कि गुजरात में उसने बीजेपी को सौ का आंकड़ा नहीं पूरा करने दिया. कर्नाटक में भी सत्ता पर कब्जे के बीजेपी के हर मंसूबे को अब तक कामयाब नहीं होने दिया है. मध्य प्रदेश, छ्तीसगढ़ और राजस्थान में बीजेपी को बेदखल कर सरकार बना चुकी है. इतने सबके बावजूद वाराणसी में कांग्रेस पुरानी हैसियत हासिल कर पाएगी नहीं कहा जा सकता. कभी बनारस में कमलापति त्रिपाठी कांग्रेस के बड़े कद्दावर नेता हुआ करते थे - लेकिन इस वक्त उससे कोई फर्क नहीं पड़ता.
मोदी सरकार सत्ता में वापसी करेगी या नहीं? या फिर देश भर में बीजेपी का प्रदर्शन कैसा होगा - ये सवाल अलग हैं. फिलहाल तो बस इतना समझने की कोशिश है कि वाराणसी में प्रधानमंत्री मोदी को क्या प्रियंका गांधी चैलेंज कर पाएंगी?
बनारस बीजेपी का गढ़ है
बनारस में कई जगह ऐसे पोस्टर देखे गये हैं जिन पर लिखा है - 'काशी की जनता करे पुकार, प्रियंका गांधी हो सांसद हमार'.
यही नारा लगाते हुए युवा कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने लहुराबीर में पैदल मार्च भी निकाला. असल में लहुराबीर के पास ही चेतगंज में कांग्रेस नेता अजय राय का घर है. 2014 में अजय राय ने कांग्रेस के टिकट पर मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ा था तीसरे स्थान पर रहे. प्रियंका के आने से अजय राय का भी काफी उत्साह बढ़ा है. प्रियंका के चुनाव लड़ने के मीडिया के सवाल पर कहते भी हैं, 'पार्टी कार्यकर्ता उन्हें यहां से जिताने के लिए तैयार हैं... अगर वो यहां से लड़ेंगी तो आसपास के राज्यों में भी उसका असर पड़ेगा.'
सोनिया गांधी के रोड शो में भी बनारस के लोगों ने आवभगत में कोई कमी नहीं की. सड़क और पटरियां ही नहीं छतों तक पर लोग देखने के लिए जुटे थे - लेकिन ये चुनावों में वोट नहीं बने.
बनारस में सोनिया गांधी का रोड शो
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकसभा चुनाव वाराणसी से ही लड़ेंगे, सूत्रों के हवाले से ये खबर भी आ चुकी है. इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, अभी तक ये तय नहीं हो पाया है मोदी किसी दूसरी सीट से चुनाव लड़ेंगे या नहीं? 2014 में मोदी वाराणसी के साथ साथ गुजरात के वडोदरा से भी चुनाव लड़े थे. इस बार ओडिशा की पुरी सीट की सबसे ज्यादा चर्चा है.
बनरासवालों के बीच मोदी
बड़े और लोकप्रिय नेता होने का मतलब हर चुनाव में जीत की गारंटी नहीं होती और ऐसे नेता कम ही होते हैं. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी चुनाव हारे थे और इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर को भी बलिया हार का स्वाद चखना पड़ा था. इंदिरा गांधी की हार का तो अलग ही केस रहा है. फिर से चर्चा में आये अमिताभ बच्चन भी हेमवती नंदन बहुगुणा जैसे नेता को हरा चुके हैं.
जहां तक वाराणसी संसदीय सीट का सवाल है तो 1952 से 2014 के बीच सात बार कांग्रेस और छह बार बीजेपी को जीत मिली है. खास बात ये है कि 1991 से अब तक बीजेपी को सिर्फ एक बार 2004 में इस सीट से बेदखल हुई है, बाकी लगातार इस सीट पर कमल ही खिलता आया है. 2004 में बीजेपी के शाइनिंग इंडिया के चक्कर में ये सीट कांग्रेस के हिस्से में चली गयी थी. छह बार में भी लगातार तीन बार बनारस के ही रहने वाले शंकर प्रसाद जायसवाल इस सीट का प्रतिनिधित्व किया, बाकी तीन तो बाहर से ही पहुंचे. अयोध्या आंदोलन ने श्रीशचंद्र दीक्षित को भेजा तो प्रयागराज ने मुरली मनोहर जोशी को - और 2014 में तो गंगा ने ही नरेंद्र मोदी को बुला लिया और प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया.
पांच साल बाद, केजरीवाल जैसा हाल
2014 में नरेंद्र मोदी ने आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल को 3.37 लाख वोटों के अंतर से हराया था. लोकसभा चुनाव में मोदी को 5.16 लाख और केजरीवाल को 1.79 लाख वोट मिले थे. कांग्रेस सहित समाजवादी पार्टी और बीएसपी के उम्मीदवार अपनी जमानत तक नहीं बचा पाये थे. आम आदमी पार्टी ने इस बार पहले ही साफ कर दिया है कि चूंकि अरविंद केजरीवाल दिल्ली पर फोकस करेंगे इसलिए वाराणसी से चुनाव नहीं लड़ेंगे. बनारस में मोदी को चैलेंज करने वालों में पहले तो अखिलेश यादव का भी नाम उछला था और अब गुजरात वाले पाटीदार नेता हार्दिक पटेल का भी नाम चल रहा है. हालांकि, हैरानी तो उस वक्त हुई जब बीजेपी के ही सहयोगी अपना दल ने अपने लिए जिन 10 सीटों की मांग की थी उस लिस्ट में वाराणसी भी शामिल था. नाराजगी के बीच अपना दल की धमकी यहां तक रही कि मोदी के खिलाफ वो अपने उम्मीदवार भी खड़ा कर सकता है.
दो साल पहले प्रियंका गांधी को यूपी में उतारने का प्रस्ताव रख चुके प्रशांत किशोर ने वर्तमान प्रसंग में महत्वपूर्ण टिप्पणी की है. राहुल गांधी और प्रियंका को लेकर एक सवाल पर प्रशांत किशोर की राय कुछ ऐसी रही कि जो लंबे अरसे से राजनीति कर रहा हो उसकी तुलना एक नये नवेले नेता से करना बेमानी होगा. जो शख्स देश की चुनावी राजनीति में उलटफेर की क्षमता रखता हो, बीजेपी और कांग्रेस को भी बहुत करीब से समझता हो उसका कहना है कि प्रियंका के बारे में अभी कोई भी आकलन जल्दबाजी होगी - और हाल ये है कि प्रियंका गांधी को प्रधानमंत्री मोदी से लड़ाने के कयास लगाये जाने लगे हैं.
ये सब देखते हुए अभी तो सौ फीसदी तय लगता है कि प्रियंका ने मोदी को चैलेंज किया तो हाल केजरीवाल से थोड़ा भी अलग नहीं होने वाला. वैसे भी प्रियंका के खुल कर आ जाने से कांग्रेस के अभी इतने भी अच्छे दिन नहीं आये हैं कि पार्टी का कोई उम्मीदवार भले वो प्रियंका या राहुल गांधी ही क्यों न हों - मोदी को वाराणसी के चुनाव मैदान में शिकस्त दे सके. राजनीति क्रिकेट जैसी होती है, लेकिन बड़ी लड़ाइयों के मैच कभी फिक्स्ड नहीं होते.
बनारस में लोगों को फिलहाल इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ रहा कि विकास कितना हुआ या काशी अब भी क्योटो के करीब पहुंचा या नहीं. देखा जाये तो बनारस में मोदी की लोकप्रियता इंदिरा गांधी जैसी है - प्रियंका में अभी तक सिर्फ इंदिरा का अक्स देखा जा रहा है.
मोदी के खिलाफ प्रियंका की चुनौती को मुश्किल माना जाये या नाममुमकिन कहना मुश्किल है, प्रियंका को अगर कांग्रेस ने मोदी के खिलाफ उतारा तो पांच साल बाद भी हाल केजरीवाल जैसा ही होगा - ये जरूर लगता है.
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