दिल्ली में राहुल-केजरीवाल की 'आत्मघाती' लुकाछिपी
दिल्ली में आप और कांग्रेस के बीच गठबंधन फायदेमंद होता ही, कहना मुश्किल है. हां, गठबंधन न होने का नुकसान दोनों को निश्चित तौर पर होगा - और ये भी तय है कि सीधा फायदा बीजेपी को मिलेगा.
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दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने ही कांग्रेस को सत्ता से बेदखल किया था - और हाल तक अरविंद केजरीवाल कहा करते थे कि वो कांग्रेस को समझा-समझा कर थक गये. केजरीवाल कांग्रेस को गठबंधन के लिए समझा रहे थे. केजरीवाल का दावा रहा कि मनाते मनाते थक गये, लेकिन कांग्रेस है कि मानती नहीं.
कभी ये सुनने को मिला कि आप और कांग्रेस आधी-आधी सीटों पर राजी हैं और सातवीं सीट पर कॉमन उम्मीदवार हो सकता है. कभी ये संख्या 4-3 तो कभी 3-4 भी बतायी गयी.
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने दिल्ली में आप के साथ गठबंधन को लेकर अब तक उम्मीद नहीं छोड़ी है, लेकिन केजरीवाल ने साफ कर दिया है कि अब कुछ नहीं होने वाला. वैसे भी नाम वापसी में अब भी वक्त है और तब तक चुनाव पूर्व गठबंधन की संभावना खत्म नहीं हुई है. दिल्ली में नामांकन 23 अप्रैल तक ही दाखिल किये जा सकते थे - और नाम वापसी की अंतिम तारीख 26 अप्रैल है.
एक चुनावी गठबंधन जो होते-होते रह गया लगता है
अब यही धारणा बनी है कि अरविंद केजरीवाल दिल्ली में कांग्रेस के साथ गठबंधन चाहते हैं - और कांग्रेस, खासकर दिल्ली कांग्रेस की जरा भी दिलचस्पी नहीं रही. पहले आप के साथ गठबंधन में सबसे बड़ा रोड़ा अजय माकन माने जाते थे, लेकिन बाद में ये रोल दिल्ली कांग्रेस की प्रमुख शीला दीक्षित पर शिफ्ट हो गया. यहां तक कि दिल्ली में कांग्रेस के प्रभारी पीसी चाको ने तो सर्वे भी करा डाले जो शीला दीक्षित को मंजूर न था. हर प्रेस कांफ्रेंस में यही बताया जाता कि गठबंधन लगभग फाइनल है, बस घोषणा होनी बाकी है.
राहुल गांधी की ओर से बताया गया कि कांग्रेस दिल्ली में गठबंधन के लिए तैयार थी, लेकिन आप ने हरियाणा की शर्त जोड़ दी जो मंजूर नहीं थी. अरविंद केजरीवाल का इसके बारे में कहना है कि या तो वो जानबूझ कर गलत बोल रहे हैं या उनकी टीम ने गलत जानकारी दी है.
दिल्ली में गठबंधन का मामला जोर पकड़ा था ममता बनर्जी की कोलकाता रैली के बाद. खुद केजरीवाल का भी इस बारे में कहना है कि शरद पवार के घर पर राहुल गांधी से उनकी एक ही मीटिंग हुई है - उसके बाद कोई बातचीत नहीं हुई. शरद पवार के घर हुई उस मीटिंग में राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल के अलावा ममता बनर्जी, फारूक अब्दुल्ला और चंद्रबाबू नायडू भी मौजूद थे. राहुल गांधी ने मीटिंग में ही गठबंधन से इंकार कर दिया था. जब गठबंधन के दूसरे नेताओं ने राहुल गांधी को समझाने की कोशिश की तो कांग्रेस अध्यक्ष ने स्थानीय नेताओं से बातचीत करने का भरोसा दिलाया. उसके बाद आप की ओर से संजय सिंह और कांग्रेस की ओर गुलाम नबी आजाद के बीच बातचीत होती रही और निगरानी का जिम्मा पीसी चाको पर रहा. केजरीवाल के अनुसार दोनों पक्षों की ऐसी कुल तीन बैठकें हुई थीं.
एक गठबंधन की अधूरी कहानी...
केजरीवाल की मानें तो कांग्रेस भी हरियाणा को लेकर राजी थी लेकिन एक शर्त थी. केजरीवाल के मुताबिक कांग्रेस खातिर आप नेता ने जेजेपी नेता दुष्यंत चौटाला को भी मना लिया था, लेकिन कांग्रेस रोज नयी नयी शर्त रख कर मुकर जाती रही.
नेताओं की जिद या दूरदर्शिता की कमी?
दिल्ली में भी गठबंधन की पहल यूपी की ही तर्ज पर आंकड़ों के आधार पर ही हुई थी. जिस तरह यूपी गठबंधन की बात को आगे बढ़ाने में 2017 के विधानसभा चुनावों की भूमिका रही, उसी तरह दिल्ली में एमसीडी चुनावों में आप और कांग्रेस को मिले वोटों की. आप और कांग्रेस को मिले वोट जोड़ देने पर बीजेपी को मिले वोटों से ज्यादा हो जा रहे थे.
2014 के आम चुनाव के आंकड़े भी वही कहानी बता रहे थे. बीजेपी ने 46.63 फीसदी वोटों के साथ दिल्ली सभी सात सीटों पर जीत हासिल की थी. पांच साल पहले आप को आम चुनाव में 33.08 फीसदी और कांग्रेस को 15.22 फीसदी वोट मिले थे - जिन्हें जोड़ दिया जाये तो बीजेपी से ज्यादा हो जाते हैं - 48 फीसदी.
आंकड़े तो यही संकेत दे रहे हैं कि दोनों दलों का गठबंधन हो जाता तो बीजेपी की राह मुश्किल हो सकती थी. हालांकि, ये जितना आसान नजर आ रहा है हकीकत में वैसा होना बहुत मुश्किल है.
गठबंधन की सूरत में सबसे बड़ी चुनौती होती है वोटों का ट्रांसफर. यूपी में भी गठबंधन से पहले बड़ा चैलेंज यही रहा. एक तरफ समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव मायावती के साथ भी गठबंधन को वैसे ही आतुर दिख रहे थे जैसे 2017 में कांग्रेस को लेकर, दूसरी तरफ मायावती देर तक ठोक बजा कर देख रही थीं.
जब गोरखपुर और फूलपुर के उपचुनाव हुए और बीजेपी हार गयी अखिलेश यादव को लगा गठबंधन तो पक्का हो गया, लेकिन मायावती की तरफ से ग्रीन सिग्नल नहीं मिला. मायावती को हमेशा इस बात का डर बना रहा कि वो तो बीएसपी के वोट ट्रांसफर करा देंगी, लेकिन उनके उम्मीदवारों को समाजवादी पार्टी के वोट नहीं मिले तो क्या होगा? बहरहाल, कैराना के बाद दोनों पक्षों ने हिम्मत दिखायी और समझौते भी किये - तब कहीं जाकर गठबंधन मौजूदा शक्ल ले पाया.
दिल्ली के मामले में लगता है, न तो कांग्रेस नेतृत्व और न ही आप नेतृत्व - कोई भी बड़े मन के साथ आगे नहीं बढ़ सका. हो सकता है दोनों दलों के नेताओं के मन में दूसरे तरह के संकोच और अविश्वास रहे हों - और सीटों की संख्या पर मोलभाव की असली वजह सिर्फ बहानेबाजी रही हो.
जिस तरह यूपी में समाजवादी पार्टी और बीएसपी ने गठबंधन के लिए समझौते किये, तकरीबन वैसे ही बीजेपी ने बिहार और महाराष्ट्र में किया. बीजेपी को दो गठबंधन के लिए जीती हुई सीटें छोड़नी पड़ी और या तो उम्मीदवार शिफ्ट करने पड़े या टिकट ही काटना पड़ा. कांग्रेस ने भी तो बिहार और जम्मू-कश्मीर में भी किया. जम्मू-कश्मीर में तो अलग ही नजारा दिखा, जहां गठबंधन भी है और फ्रेंडली मैच भी हो रहा है. आखिर आप के साथ क्या मुश्किल रही होगी कि कांग्रेस सिर्फ दिल्ली में चाहे और हरियाणा में नहीं. स्थानीय नेताओं का दबाव तो जैसा दिल्ली में होगा वैसा ही हरियाणा में रहा होगा.
गठबंधन न होने से कांग्रेस और आप को क्या फायदा?
अरविंद केजरीवाल का दावा है कि सभी सात सीटों पर आम आदमी पार्टी बीजेपी को कड़ी टक्कर दे रही है - और उन्हें अपनी जीत का भी पक्का यकीन है. आप का मजबूत पक्ष ये जरूर है कि उसके उम्मीदवारों के नाम बहुत पहले ही घोषित हो गये थे और महीना भर से ज्यादा हो चुका है उन्हें चुनाव प्रचार करते हुए.
एमसीडी चुनावों में मिली हार के बाद से आप दिल्ली में बीजेपी को बड़ी चुनौती मानने लगी है, वरना 70 में से 67 सीटें जीतने वाली आप को जीरो सीटों वाली कांग्रेस से गठबंधन का मतलब ही क्या रहा. वैसे ये भी है कि राजौरी गार्डन उपचुनाव में हार का बदला आप ने बवाना की जीत से ले लिया था. तो क्या आप से गठबंधन के लिए समझौते नहीं करना कांग्रेस के लिए बड़े घाटे का सौदा है?
देखा जाये तो आप के साथ गठबंधन भी कांग्रेस उम्मीवारों की जीत की गारंटी तो नहीं ही थी. और यही फॉर्मूला कांग्रेस के समर्थन से आप उम्मीदवारों के मामले में भी लागू होता है. बड़ा मुद्दा एक दूसरे के पक्ष में दोनों दलों के वोटों का ट्रांसफर होना ही है.
दावे के साथ तो आम आदमी पार्टी भी कांग्रेस उम्मीदवारों को अपने हिस्से का वोट नहीं दिला पाती. यही नियम कांग्रेस पर भी लागू होता है. सबसे बड़ी बात तो यही है कि क्या आप और कांग्रेस नेतृत्व में इतना दम है कि वो मायावती की तरह किसी भी दूसरे दल के उम्मीदवार को वोट देने के लिए कहें और लोग उनकी बात मान लें? ये तो नाममुमकिन ही लगता है.
गठबंधन की सूरत में भले ही ज्यादा फायदा होना जरूरी नहीं था, लेकिन अलग अलग चुनाव लड़ने का नुकसान तो निश्चित ही है. मैदान में जो भी उम्मीदवार होंगे वो कुछ न कुछ एक दूसरे का वोट तो काटेंगे ही. ऐसी स्थिति में सीधा फायदा तो बीजेपी को ही मिलना है.
जिद जिस पक्ष की ज्यादा रही हो, बात तो अब तक नहीं बन पायी है. हैरानी की बात ये भी है कि न बात बन रही है, न खत्म हो रही है. हार जीत राजनीतिक दलों के लिए मायने रखता है, लेकिन दिल्ली के वोटर के लिए सबसे बड़ा फायदा है कि उसके सामने दो से ज्यादा विकल्प होंगे.
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