महाभियोग प्रस्ताव का मात्र एक मकसद है - राहुल गांधी को ममता की नजर से बचाना!
चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा तो कांग्रेस के महाभियोग प्रस्ताव में महज एक किरदार लगते हैं. निशाने पर तो ममता बनर्जी हैं जिनकी नजर से राहुल गांधी को बचाने के लिए कांग्रेस ये कवायद शुरू की है.
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महाभियोग प्रस्ताव पर कांग्रेस की दो बातें गौर करने वाली हैं. एक, पहले की और दूसरी अभी की. पहले महाभियोग को लेकर इंडियन एक्सप्रेस के सवाल पर लोक सभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड्गे का जवाब था, 'मामला खत्म हो चुका है.' दूसरी बात - कांग्रेस का ये कहना कि महाभियोग प्रस्ताव का सीबीआई जज लोया केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी कोई रोल नहीं है क्योंकि काम पहले से चल रहा था.
आज तक की एक रिपोर्ट कहती है कि कांग्रेस को लगातार ये डर सता रहा था कि महाभियोग का मामला कहीं राम मंदिर पर होने वाले फैसले को रोकने वाला न साबित हो जाये. कई महीनों की जद्दोजहद के बावजूद महाभियोग का मामला ठंडे बस्ते में इसीलिए पड़ा रहा. कांग्रेस अभी उधेड़बुन ही थी कि जज लोया के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ गया. फिर मौके का फायदा उठाने का फैसला हुआ. कांग्रेस को लगा कि अब राम मंदिर का मसला नहीं उठेगा.
'ये दिन न देखना पड़ता...'
मई 1993 की बात है. सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति वी. रामास्वामी पर जब महाभियोग चलाया गया तो कपिल सिब्बल ने ही लोकसभा में बनाई गई विशेष बार से उनका बचाव किया था. कांग्रेस और उसके सहयोगी दल मतदान से अलग हो गये और ये प्रस्ताव गिर गया. ये मामला तब का है जब केंद्र में पी.वी नरसिंहराव के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार थी.
भई अपना तो काम हो गया समझो...
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान कपिल सिब्बल ने अयोध्या के राम मंदिर का मामला जुलाई 2019 तक स्थगित किये जाने की मांग की. इसको लेकर सिब्बल और मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की तीखी बहस हुई - और उसके बाद से ही कपिल सिब्बल महाभियोग मुहिम से जोर शोर से जुड़ गये बताये जाते हैं.
सिब्बल के साथ साथ कांग्रेस की इस महाभियोग मुहिम की कोर टीम का हिस्सा हैं - गुलाम नबी आजाद, अहमद पटेल और आनंद शर्मा. सलमान खुर्शीद और अभिषेक मनु सिंघवी जैसे नेता महाभियोग का विरोध करनेवालों में शामिल हैं.
आठ पेज के इस प्रस्ताव की पहली लाइन है - 'ये दिन न देखना पड़ता तो अच्छा था'. इस बीच पता चला है कि महाभियोग के प्रस्ताव की जानकारी मिलने के बाद चीफ जस्टिस ने कुछ साथी जजों के साथ मुलाकात की - और फिर किसी भी केस की सुनवाई नहीं की.
कठघरे में तो कांग्रेस भी खड़ी है
ममता बनर्जी की पार्टी टीएमसी के साथ साथ डीएमके भी महाभियोग प्रस्ताव से दूर हो गयी है. डीएमके नेताओं ने तो प्रस्ताव पर हस्ताक्षर भी कर दिये थे लेकिन चेन्नई से डांट पड़ी तो पीछे हट गये. ममता बनर्जी का कहना रहा कि पहले समान विचारवाली पार्टियां साइन कर दें, फिर टीएमसी के नेता भी कर देंगे. बाद में ममता ने हाथ खींच लिये. पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव भी इसकी वजह हो सकते हैं, ऐसा माना जा रहा है.
फिलहाल कांग्रेस की अगुवाई में इस प्रस्ताव में सीपीआई, सीपीएम, एनसीपी, बीएसपी, समाजवादी पार्टी और IUML शामिल हैं. प्रस्ताव पर कुल 71 लोगों ने हस्ताक्षर किया था जिनमें 7 के राज्य सभा का कार्यकाल खत्म हो चुका है. इसलिए अब 64 बचे हैं, फिलहाल तो 50 से ही काम चल जाता. वैसे कांग्रेस के भीतर भी इसे लेकर एक राय नहीं है. कानून मंत्री रह चुके दो नेताओं अश्वनी कुमार और पी. चिदंबरम ने भी हस्ताक्षर नहीं किये हैं. अश्वनी कुमार ने तो सरेआम असहमित भी जता दी है.
कांग्रेस के मिशन में चीफ जस्टिस तो एक किरदार पर हैं
दिलचस्प बात ये है कि प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने वालों में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी शामिल नहीं हैं. कांग्रेस ने इस पर प्रधानमंत्री पद की गरिमा की दुहाई दी है. इस बारे में दो बातें सामने आ रही हैं. एक, मनमोहन सिंह ने भी प्रस्ताव को लेकर असहमति के चलते साइन नहीं किया है. दो, चूंकि जस्टिस दीपक मिश्रा को मनमोहन सरकार में ही नियुक्त किया गया था, ऐसे में सवाल उठते तो जवाब देना भी भारी पड़ता.
सवालों से परे तो कोई होता भी नहीं. चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा से तो उनके साथी चार जज तीन महीने से जवाब मांग रहे हैं, लेकिन उससे पहले कांग्रेस खुद कठघरे में खड़ी नजर आ रही है. कई सवालों के जवाब तो उसे भी देने ही होंगे.
कांग्रेस ने जो चार्ज लगाये हैं उनमें जमीन का एक मामला 30 साल से भी ज्यादा पुराना है. हद है, कांग्रेस नेता ये सवाल अब उठा रहे हैं - अगर ऐसा था तो नियुक्ति के वक्त क्या ये बात पता नहीं थी? और पता नहीं थी तो ये किसकी गलती है? अगर मामला इतना गंभीर है कि चीफ जस्टिस के खिलाफ महाभियोग की जरूरत आ पड़ी, फिर तो कांग्रेस सरकार की नियुक्ति पर ही सबसे पहले सवाल उठता है. अगर ये वास्तव में ऐसा है फिर तो न जाने नियुक्तियों से जुड़े ऐसे कितने मामले होंगे जो अब तक सामने नहीं आ पाये हैं.
महाभियोग और ममता बनर्जी
महाभियोग प्रस्ताव अंजाम तक पहुंचे इस बात की कम ही संभावना लगती है - और लगता नहीं कि कांग्रेस की इसमें इतनी बहुत ज्यादा दिलचस्पी होगी.
मुमकिन है महाभियोग प्रस्ताव आते ही गिर जाये. ये भी मुमकिन है कि महाभियोग प्रस्ताव आने से पहले ही नामंजूर हो जाये. हो सकता है राज्यसभा के सभापति एम. वेंकैया नायडू की पूछताछ में प्रस्ताव पर सदस्यों की सहमति ही न मिले. ठीक वैसे ही जैसे दिसंबर 2016 में जस्टिस नागार्जुन रेड्डी के मामले में हुआ था.
तो क्या ये कांग्रेस के लिए किसी बड़े झटके जैसा होगा?
ऐसा तो बिलकुल नहीं लगता. देखा जाये तो कांग्रेस का मकसद प्रस्ताव के आगे बढ़ने से पहले ही पूरा हो चुका है.
दरअसल, महाभियोग प्रस्ताव में कांग्रेस से ज्यादा दिलचस्पी कहीं नॉन-पॉलिटिकल एलिमेंट्स की लगती है. कांग्रेस को तो बस ममता बनर्जी को आगाह करना भर है - और राहुल गांधी के लिए प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी पक्की करनी है. साथ ही, रास्ते में आने वाले तमाम झंझावातों को बारी बारी हटाते रहना है.
जजों की प्रेस कांफ्रेंस, अयोध्या मामले में कपिल सिब्बल की बहस, सीबीआई जज लोया की मौत की जांच को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला - अगर इन सारी बातों को कुछ देर किनारे रख कर देखें तो सीधे सीधे एक राजनीतिक लोचा भी नजर आता है.
आने वाले आम चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी को चैलेंज करने के लिए कांग्रेस पिछले साल से ही विपक्ष को जुटाने की लगातार कोशिश कर रही है. हाल ही की बात है. एक कौन कहे, दो-दो मोर्चे की बातें चल पड़ी थीं. एक गैर-बीजेपी और दूसरा, गैर-कांग्रेस. तभी अचानक विपक्षी खेमे के ही कुछ नेता जो कांग्रेस के साथ हैं, एनडीए से अलग हो रहे नेताओं से बातचीत कर ममता बनर्जी को दिल्ली बुलाया. ममता भी पूरे जोश के साथ सभी से मिलीं. मुलाकातों का दौर थमा तो ममता बनर्जी ने हमेशा की तरह 10, जनपथ का भी रुख किया. सोनिया से तो ममता मिलीं, लेकिन राहुल गांधी को नजरअंदाज किया. पहले की बात और थी. अब राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष हैं. राहुल को नजरअंदाज करना कांग्रेस की तौहीन समझी जाएगी और ये बात न तो सोनिया को ठीक लगेगी न ही कांग्रेस नेताओं को.
कहीं पर निगाहें, कहीं पर निशाना...
जले पर नमक के बाद ममता ने थोड़ी लाल मिर्च भी छिड़क दी. ममता ने तीसरे मोर्चे के लिए कांग्रेस को आमंत्रित तो किया लेकिन ठीक वैसे ही जैसे दूसरे क्षेत्रीय दलों को न्योता दे रही थीं. कांग्रेस को ममता ने ऐसे ट्रीट किया जैसे यूपी में समाजवादी पार्टी और बीएसपी है, बिहार में आरजेडी है वैसे ही कर्नाटक में कांग्रेस है. कांग्रेस को ये बात भला कैसे हजम होती.
ऐसा करके ममता बनर्जी ने ये जताने की कोशिश की कि अब वो प्रधानमंत्री पद की दावेदार बन चुकी हैं. कांग्रेस भला ये कैसे बर्दाश्त कर पाती. पहले ऐसा ही कुछ नीतीश कुमार भी सोचा करते थे. सोचने को तो वो मोदी के बीजेपी के पीएम कैंडिडेट घोषित होने से पहले भी सोचते रहे, लेकिन हालात के साथ न देने पर हर बार घुटने टेक दिये. नीतीश के मैदान छोड़ने के बाद कांग्रेस के सामने ममता हुंकार भर रही हैं.
दिल्ली में दूसरे दलों के साथ साथ ममता आप नेता अरविंद केजरीवाल से भी मिली थीं. जाते जाते ममता ने अखिलेश यादव और मायावती को भी फोन किया था. ममता मान कर चल रही थीं कि तीसरे मोर्चे के लिए पूरा विपक्ष उनके साथ है. अकेली कांग्रेस न भी रहे तो कितना फर्क पड़ता है.
ये तो कांग्रेस को भी पता है कि पूरा विपक्ष उसके साथ नहीं है, लेकिन सात पार्टियों को साथ लेकर कांग्रेस ने ममता को बता दिया कि ये तो उसके साथ हैं ही.
महाभियोग प्रस्ताव लाकर कांग्रेस ने ममता को भी साफ तौर पर चेतावनी दे डाली है. कांग्रेस टीएमसी नेता को मैसेज भी देना चाहती है कि जिन सात दलों ने महाभियोग के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किये हैं वे राहुल के नेतृत्व में यकीन रखते हैं - और ममता की लीडरशिप को सिरे से खारिज करते हैं.
कांग्रेस और ममता के इस सियासी शह-मात के खेल और विपक्ष में फूट पड़ जाने को लेकर सत्ताधारी बीजेपी निश्चित तौर पर पूरा लुत्फ उठा रही होगी - बैठे बैठाये भला और क्या चाहिये?
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