लोकसभा चुनाव 2019 में मोदी का मुकाबला राहुल नहीं क्षेत्रीय नेताओं से है
यूपी और बिहार में मोदी पहले की तरह हमले करने में सफल तभी होंगे जब वो लोगों को यकीन दिला पाएंगे कि किस तरह यहां उनके नेतृत्व में विकास हुआ है. मोदी लहर बेअसर हुई है या असरदार, इसकी परीक्षा इस बार क्षेत्रिय नेता ही लेंगे. कैसे आईये जानते हैं...
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2014 के लोकसभा चुनाव को याद करें तो ये साफ देखने को मिलता है कि कैसे मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस के नेत्रत्व वाले यूपीए गठबंधन को उखाड़ फेंका था. उस दौर में मोदी के मुकाबले कोई नहीं टिक पा रहा था लेकिन तब भी पश्चिम बंगाल, ओडिशा, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे बड़े राज्य मोदी लहर से अछूते दिखे थे. निष्कर्ष ये निकला जा सकता है कि भारतीय जनता पार्टी द्वारा कांग्रेस पर लगाए गए आरोपों को जनता ने स्वीकार कर लिया हो और नरेंद्र मोदी को मौका देने का मन बनाया हो. कांग्रेस शासित राज्यों को छोड़ दें तो मोदी लहर का जादू उत्तर भारत के दो महत्वपूर्ण राज्यों उत्तर प्रदेश और बिहार में भी चला जहां नरेंद्र मोदी ने समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल पर खूब हमले किये और मतदाताओं को अपनी ओर करने में कामयाब रहे.
मोदी लहर का जादू उत्तर प्रदेश और बिहार में खूब चला
लेकिन अब परिस्थितियां बदल रही हैं क्योंकि इन दोनों ही राज्यों में अब बीजेपी सरकार में है जिससे मोदी पहले की तरह यहां हमले करने में सफल तभी होंगे जब वो लोगों को यकीन दिला पाएंगे कि किस तरह यहां उनके नेतृत्व में विकास हुआ है. कह सकते हैं कि मोदी लहर बेअसर हुई है या फिर असरदार है इसकी परीक्षा इस बार क्षेत्रिय नेता ही लेंगे. कैसे आईये जानते हैं....
साल 2014 में बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन की रिकॉर्ड तोड़ जीत के बाद आखिरकार ये किसने सोचा होगा कि चार साल बाद इस सरकार को एक राज्य की दो क्षेत्रीय पार्टियों के बीच की आपसी लड़ाई से संसद में अविश्वास प्रस्ताव लाये जाने के सवाल से भी जूझना होगा. यहां बता दें कि इनमें से एक दल टीडीपी तो खुद एनडीए का भागीदार रहा है. तो ऐसा क्या हो गया कि उसे इस तरह के कदम की आवश्यकता पड़ी, जिससे ये कहा जा सकता है कि केंद्र सरकार राज्य के लिए जरुरी काम नहीं कर पायी हो या फिर घटक दल टीडीपी को ये डर है कि वो चुनाव में जनता कि बीच सहज नहीं होगा क्योंकि उसने जनता से कुछ वादे किये होंगे. चाहे जो हो इतना तो तय है कि टीडीपी को ये लगता है कि केंद्र ने उनके अनुरूप प्रदेश की जनता के लिए काम नहीं किये हैं. तो वहीं दूसरी ओर ऐआईएडीएमके के सदस्य भी लगातार सदन में कावेरी मुद्दे को लेकर हंगामा कर रहे हैं जिससे दोनों सदनों के कामकाज पर बुरा असर पड़ रहा है और जरुरी विधेयकों पर चर्चा नहीं हो पा रही है. ऐसे में मौजूदा सरकार के लिए ये चिंता का विषय है क्योंकि लोकसभा के चुनाव अब ज्यादा दूर नहीं हैं और उसे अब अपने काम के दम पर ही अगला चुनाव लड़ना है.
बात उत्तर प्रदेश की करें तो यह वही राज्य है जिसने पिछले लोकसभा चुनाव में 80 में से 73 सीटें बीजेपी और इसके सहयोगी दल को दे दी थीं. लेकिन अब यहां हालात बदल चुके हैं. सपा और बसपा के साथ आने से बीजेपी के लिए मुश्किलें बढ़ गई हैं जिसका उदाहारण गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा उप-चुनाव के रिजल्ट में देखने को मिला है. इन दोनों से मुकाबला करने के लिए बीजेपी को ऐंडी चोटी का जोर लगाना होगा क्योंकि पिछले लोकसभा और विधानसभा में भले ही इन दोनों दलों की हार हुई हो लेकिन इकठ्ठे इनका वोट प्रतिशत बीजेपी को परेशान करेगा. 2014 लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 42.63% बसपा को 19.77 % और सपा को 22.35% वोट मिले तो वहीँ 2017 विधानसभा के चुनाव में बीजेपी को 39.67% बसपा को 22.23% और सपा को 21.82% वोट मिले थे. इससे एक तस्वीर तो साफ है की साल 2014 के बाद प्रदेश में बीजेपी का वोट प्रतिशत तो घटा है लेकिन सपा और बसपा के वोट में ज्यादा अंतर नहीं आया हैं साथ ही इस बार बीजेपी को एंटी इंकम्बैंसी का भी सामना करना होगा.
अब पड़ोसी राज्य बिहार की बात करें तो साल 2014 के लोकसभा चुनाव में राज्य की 40 में से 22 सीटें बीजेपी ने और सहयोगी दल 9 सीटें जितने में कामयाब रहे थे. लेकिन इस बार इसके सहयोगी दल इससे दूरियां बना सकते हैं जिसका उदहारण जीतनराम मांझी के अलग होने में देखा जा सकता हैं. जेडीयू के साथ आने से बीजपी राज्य में मजबूत हुई हैं लेकिन उपेंद्र कुशवाहा भाजपा से नाराज बताए जा रहे हैं और पासवान ने भी कहा है कि बीजेपी को अल्पसंख्यकों और दलितों को लेकर अपनी जनधारणा में बदलाव करने की जरूरत है कहा जा सकता हैं कि ये दोनों दल साथ रहेंगे या नहीं पुख्ता रूप से नहीं कहा जा सकता और हाल ही में सम्पन्न हुए अररिया लोकसभा और दो विधानसभा उपचुनाव के नतीजे भी ये संकेत दे रहे हैं कि बीजेपी और जेडीयू का साथ पहले की माफ़िक़ नहीं लग रहा है. यहां की जनता भी राज्य को विशेष दर्जा दिए जाने के नाम पर गुस्सा निकाल सकती है. कहा जा सकता है की यहां भी युवा तेजस्वी के नेतृत्व वाले विपक्ष से कड़ा मुकाबला होने की उम्मीद है क्योंकि उसके साथ इस बार सहानुभूति के वोट जा सकते हैं.
2019 में मोदी के लिए काफी मुश्किलें हैं
उधर, महाराष्ट्र से भी इस बार बीजेपी को कड़ा मुकाबला मिलने के संकेत मिल रहे हैं जहां शरद पवार जैसे वरिष्ठ नेता इस बार कुछ बड़ा करने की जुगत में हैं और उनकी हाल में राज ठाकरे के साथ मुलाकात ये बताती है कि वो बीजेपी को रोकने कि लिए इस बार कुछ अलग कर सकते हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को यहां की 48 सीटों में से 23 और इसकी सहयोगी पार्टी शिवसेना को 18 सीटें मिली थीं और मौजूदा वक़्त पर हो यकीन करें तो इस बार शिवसेना भी इनसे अलग हो सकती है.
वहीं 2014 में संयुक्त आंध्र प्रदेश की 42 लोकसभा सीटों में से भाजपा को 3 तो इसकी सहयोगी पार्टी टीडीपी को 16 सीटें मिली थीं. लेकिन आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्ज़ा न दिए जाने से नाराज़ टीडीपी ने एनडीए से नाता तोड़ लिया है. कह सकते हैं कि इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को माया-अखिलेश, शरद पवार, चंद्रबाबू नायडू, के चंद्रशेखर राव और तेजस्वी से ठीक वैसे ही चुनौती मिलेगी जैसी की साल 2014 में स्वर्गीय जयललिता, ममता बनर्जी और नवीन पटनायक से मिली थी.
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