डॉक्टर्स विरोध करें सो करें, राइट टू हेल्थ बिल से राजस्थान में गहलोत की कुर्सी सेफ है
आने वाले वक़्त में राजस्थान में विधानसभा चुनाव हैं. ऐसे में राइट टू हेल्थ बिल के रूप में कहीं न कहीं मुख्यमंत्री अशोक गेहलोत ने बड़ा दांव खेला है. यानी अगर ये दांव फिट बैठ गया तो चाहे वो भाजपा हो या फिर कोई और दल शायद ही कोई राजस्थान में अशोक गहलोत और कांग्रेस की जड़ों को कमजोर कर पाए.
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राहुल गांधी की संसद सदस्यता रद्द होने के कारण भले ही पूरी कांग्रेस पार्टी में खलबली मची हो और पार्टी के वरिष्ठ और कनिष्ठ नेता प्रदर्शन के नाम पर सड़कों पर हों. लेकिन राजस्थान में 'सब चंगा सी.' पार्टी में क्या हो रहा है? सीएम अशोक गहलोत को उससे कोई मतलब नहीं है. फ़िलहाल उनके जीवन का उद्देश्य मुख्यमंत्री की कुर्सी को सुरक्षित रखना और किसी भी सूरत में चुनाव जीतना है. जैसे हाल हैं अपने मकसद को पूरा करने के लिए इस चुनावी वर्ष में गहलोत कुछ भी करते हुए नजर आ रहे हैं. विधानसभा में. बिल लाना और उसे पास करना उनकी उसी मंशा का हिस्सा है. गहलोत का इस बिल को लाना भर था. राजस्थान में डॉक्टर्स के बीच नाराजगी का आलम कुछ यूं है कि स्वास्थ्य सेवाओं की कमर टूट गयी है.
मरीज मरते हों तो मरें लेकिन डॉक्टर्स को उससे कोई मतलब नहीं है. राजस्थान में डॉक्टर्स की हड़ताल को कई दिन हो गए हैं और अब भी वो प्रदर्शन के नाम पर सड़कों पर हैं. डॉक्टरों द्वारा जहां एक तरफ बिल को असंवैधानिक बताया जा रहा है तो वहीं इसकी वापसी की मांग भी तेज है. क्योंकि डॉक्टर्स के विरोध प्रदर्शन के कारण अब मरीजों की जान पर बन आई है और हालात बद से बदतर हैं. तो हमारे लिए भी इस बिल को समझना और इसका अवलोकन करना जरूरी हो जाता है.
राजस्थान में स्वास्थ्य सेवाओं को ताख पर रख राइट टू हेल्थ बिल का विरोध करते डॉक्टर्स
दरअसल जो बिल राजस्थान विधानसभा में पास हुआ है स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर वो खासा अहम है. दिलचस्प ये है कि बिल राज्य के सभी नागरिकों को स्वास्थ्य का अधिकार देता है. यानी अगर कोई मरीज है वो इलाज के लिए सरकारी या प्राइवेट किसी भी अस्पताल में जाता है तो डॉक्टर उससे पैसे कौड़ी की बात बाद में करेगा उसका पहला और सबसे जरूरी दायित्व मरीज का इलाज करना है. कह सकते हैं कि इस बिल ने डॉक्टर से इलाज के लिए मना करने का अधिकार छीन लिया है.
सूबे के डॉक्टर्स के बिल के विरोध का बड़ा कारण भी उपरोक्त लिखी बात ही है, हड़ताल भी इसी बात को लेकर है. डॉक्टर्स बिल को सरकार का गलत आईडिया बता रहे हैं और कह रहे हैं कि ये बिल डॉक्टर्स को प्रैक्टिस करने से 'डिमोटिवेट' करेगा. बिल को लेकर डॉक्टर्स का मत यही है कि आखिर हम मुफ्त में मरीजों को इलाज कैसे दे सकते हैं? अपनी बातों को वजन देने के लिए प्रदर्शनकारी डॉक्टर्स अलग अलग बातों का हवाला दे रहे हैं जिन्हें किसी भी सूरत में नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.
सवाल होगा कि आखिर इस बिल में ऐसा क्या है जिसने डॉक्टर्स को सड़कों पर आने के लिए बाध्य कर दिया है? इस सवाल के जवाब के लिए हमें बिल का अवलोकन करना होगा. बिल देखें तो मिलता है कि इस बिल में राज्य में रह रहे सभी लोगों को स्वास्थ्य का अधिकार दिया गया है. बिल में प्रावधान है कि कोई भी अस्पताल या डॉक्टर मरीज को इलाज के लिए मना नहीं कर सकता.
वहीं बिल में ये भी प्रावधान है कि इमरजेंसी में आए मरीज को कोई भी अस्पताल या डॉक्टर इलाज के लिए मना नहीं कर सकता. ऐसी स्थिति में मरीज का पहला इलाज किया जाएगा. ध्यान रहे यदि ये बिल कानून में परिवर्तित होता है तो अस्पताल आने पर मरीज को बगैर कोई डिपॉजिट किए ही इलाज मिल सकेगा.
बात बिल के कानून बनने के संदर्भ में हुई है तो ये बता देना भी जरूरी है कि यदि कानून बन गया तो जितना ये सरकारी अस्पतालों पर लागू होगा उतना ही ये प्राइवेट अस्पतालों को भी अपनी जद में लेगा.
चूंकि बिल में प्रावधान ये भी है कि सब फ्री होगा और अगर मरीज पूरा पैसा नहीं दे पाता है तो वो पैसा सरकार चुकाएगी. समस्या इसी पॉइंट पर है. जैसा कि हम सभी जानते हैं वर्तमन सामाजिक परिदृश्य में चाहे वो प्राइवेट हों या सरकारी अस्पताल वो एक मंडी की तरह काम करते हैं ऐसे में अगर इसमें सरकारी दखलंदाजी होती है तो जाहिर है अस्पतालों को अपना काम बहुत ज्यादा ट्रांसपेरेंट होकर करना होगा.
दूसरी बात ये भी है कि डॉक्टर्स या ये कहें कि अस्पताल इस बात को बखूबी जानते हैं कि सरकार से पैसा निकलवाना आसान काम नहीं है.
जैसा कि हम ऊपर ही इस बात को बता चुके हैं कि राजस्थान में चुनाव हैं. ऐसे में इस बिल के रूप में कहीं न कहीं मुख्यमंत्री अशोक गेहलोत ने बड़ा दांव खेला है. यानी अगर ये दांव फिट बैठ गया तो चाहे वो भाजपा हो या फिर कोई और दल शायद ही कोई राजस्थान में अशोक गहलोत और कांग्रेस की जड़ों को कमजोर कर पाए.
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