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Updated: 18 अगस्त, 2021 09:01 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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चुनावों से पहले सर्वे का भी एक दौर चलता है और नतीजों के हिसाब से राजनीतिक दल रणनीति तैयार करते हैं. 2022 के पहले हिस्से में 5 और आखिर में 2 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं - लिहाजा सियासी पार्टियां आंतरिक सर्वे कराने लगी हैं और मीडिया एजेंसियों के जरिये.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के नमो ऐप के माध्यम से भी जनता के मन की बात समझने की कोशिश होती रही है - ऐसा 2019 के आम चुनाव से पहले ही हुआ था और नोटबंदी के बाद भी. फिलहाल ये कोविड 19 टीकाकरण को लेकर भी राय मांगी गयी है और 5 राज्यों में होने जा रहे चुनावों को लेकर भी.

सर्वे में जानने की कोशिश है कि जब लोग वोट देने जाएंगे तो सरकार के कोविड-19 के प्रबंधन, महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, शिक्षा और कानून-व्यवस्था में से कौन सा मुद्दा ज्यादा महत्वपूर्ण मान कर फैसला लेंगे.

बीजेपी के डबल इंजिन सरकार को लेकर पूछा गया है कि केंद्र और राज्य में एक ही पार्टी की सरकार होने पर विकास की गति तेज होती है या नहीं? साथ ही, लोगों से ये भी बताने को कहा गया है कि सरकारी योजनाओं का लाभ मिल रहा है या नहीं - ये भी देखा गया है कि जब भी प्रधानमंत्री किसी मसले को लेकर लोगों से वर्चुअल संवाद करते हैं तो भी ऐसे सवाल जरूर पूछते हैं.

नमो ऐप सर्वे में लोगों से अपने राज्य में सबसे ज्यादा तीन लोकप्रिय नेताओं के नाम देने को कहा गया है - और ये भी पूछा गया है कि चुनावों में वो उम्मीदवार की जाति, धर्म या फिर उसके काम के रिकॉर्ड को तरजीह देंगे?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर इंडिया टुडे का मूड ऑफ द नेशन सर्वे भी आया है - और ये बंगाल के चुनाव नतीजों के बाद का है. इससे पहले जो सर्वे कराये गये थे वे बिहार और बंगाल चुनाव के पहले के रहे - लेकिन ताजा सर्वे के जो नतीजे आये हैं वे यूपी चुनाव के लिए चिंता का विषय हो सकते हैं. ये सर्वे 19 राज्यों में 115 संसदीय क्षेत्र और 230 विधानसभा क्षेत्रों कराया गया - 10 से 20 जुलाई के बीच हुए सर्वे में 14,559 लोगों ने हिस्सा लिया था.

मूड ऑफ द नेशन (Mood Of The Nation) के ताजा सर्वे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में काफी गिरावट दर्ज हुई है. राष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह विपक्षी एकजुटता महसूस की जाने लगी है, उसके हिसाब से ये सर्वे महत्वपूर्ण तो हो सकता है, लेकिन अभी चिंता की कोई बात नहीं लगती - हां, उत्तर प्रदेश में होने जा रहे विधानसभा चुनावों के मद्देनजर ये मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) के लिए फिक्र वाली बात जरूर लगती है.

क्या कहता है मोदी पर फोकस सर्वे

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के कोलकाता लौट जाने के बावजूद पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी दिल्ली में काफी सक्रिय हैं - हालांकि, हाल फिलहाल कांग्रेस नेता की ज्यादातर एनर्जी ट्विटर से टकराने में ही जाया हुई है, बनिस्बत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चैलेंज करने के मुकाबले. ट्विटर ने राहुल गांधी सहित बाकी कांग्रेस नेताओं का अकाउंट अनलॉक तो कर दिया है, मुश्किलें भी कम हुई हैं - लेकिन खत्म होने का नाम नहीं ले रही हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता को लेकर हुए सर्वे के नतीजे ऐसे माहौल में महत्वपूर्ण हो जाते हैं - क्योंकि सर्वे में मोदी की लोकप्रियता में गिरावट दर्ज की गयी है. गिरावट भी कोई मामूली नहीं है. फासला महज साल भर का है और लोकप्रियता घट कर आधे से भी कम हो गयी है.

ऐसा भी नहीं कि किसी अन्य नेता ने ऐसी रेस में बाजी मार ली हो - देश के अगले प्रधानमंत्री के तौर पर अब भी लोगों की पहली पसंद नरेंद्र मोदी ही हैं. इंडिया टुडे के लिए कार्वी इनसाइट्स की तरफ से कराये गये सर्वे में सिर्फ 24 फीसदी लोग ही ऐसे हैं जो मोदी को देश के अगले प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं - हालांकि, अगस्त 2020 में हुए ऐसे ही सर्वे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फेवर में 66 फीसदी लोग खड़े नजर आ रहे थे, जबकि जनवरी, 2021 में पिछले साल के मुकाबले आधे से कुछ ज्यादा 38 फीसदी लोग अपनी राय पर कायम पाये गये थे.

narendra modi, yogi adityanathयोगी आदित्यनाथ के लिए शुभ संकेत नहीं है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में जरा सी भी कमी होना!

सर्वे में लोगों से उनके सामने खड़ी सबसे बड़ी समस्या के बारे में जानने की कोशिश हुई तो, 23 फीसदी बोले - कोविड 19. ठीक वैसे ही 19 फीसदी लोग महंगाई से जूझने की बात बताये, 17 फीसदी की नजर में बेरोजगारी मौजूदा दौर की सबसे बड़ी समस्या लगी. तेल की बढ़ती कीमतों को 9 फीसदी लोगों ने और 6 फीसदी लोगों ने आर्थिक मंदी को सबसे बड़ी प्रॉब्लम बताया है.

चूंकि लोगों ने कोविड 19 को सबसे बड़ी समस्या बताया, इसलिए एक महत्वपूर्ण ये भी बना कि कोविड महामारी की दूसरी लहर में वे ज्यादा जिम्मेदार केंद्र सरकार को मानते हैं या अपनी राज्य सरकार को?

44 फीसदी लोगों की राय में कोरोना वायरस की दूसरी लहरे के समय केंद्र के साथ साथ राज्य सरकार भी लोगों की समस्याओं के लिए जिम्मेदार रही. ध्यान रहे कोविड 19 की दूसरी लहर के दौरान देश के हर हिस्से में लोग ऑक्सीजन, जरूरी दवायें और अस्पतालों में बेड के लिए सड़कों पर जूझते देखे गये थे.

12 फीसदी लोगों का मानना है कि कोरोना संकट के वक्त इंतजामों को लेकर अकेले केंद्र सरकार की जिम्मेदारी नहीं बनती, जबकि 10 फीसदी लोगों की नजर में उनकी राज्य सरकार ही अव्यवस्था के लिए जिम्मेदार रही. सर्वे में शामिल 6 फीसदी लोग अस्पतालों को ही कोविड 19 के प्रकोप के वक्त समस्या के लिए जिम्मेदार बता रहे हैं - हालांकि, 21 फीसदी लोग ऐसे भी मिले जो किसी को भी जिम्मेदार नहीं ठहराते - बेशक ये वही लोग होंगे को अपनी किस्मत को ही दोष दे रहे होंगे, बाकी समस्याओं की तरह.

विपक्ष के हद से ज्यादा एक्टिव होने के बावजूद मोदी के नेतृत्व में बनी केंद्र सरकार की सेहत पर कोई फर्क पड़ने वाला हो, ऐसा तो बिलकुल नहीं है. कहने को केंद्र में गठबंधन की सरकार जरूर है, लेकिन बीजेपी अपने बूते ही इतनी ताकतवर है कि 2024 से पहले कोई कुछ इधर उधर सोच भी नहीं सकता.

ये भी तो जरूरी नहीं कि सरकार पर खतरा या खतरा नहीं होने के लिहाज से ही चीजों की अहमियत तय होती है - ज्यादा कुछ न सही, लेकिन एक निगेटिव मार्किंग जैसा तो ये है ही.

ये तो रही वे बातें जो ऊपरी तौर पर दिखायी दे रही हैं, लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू तो और भी अहम होता है. अब देखना ये होगा कि मोदी की लोकप्रियता में आ रही कमी की कीमत किसी और को तो नहीं चुकानी पड़ेगी. अब भला ऐसा कौन हो सकता है जिसे मोदी की घटती लोकप्रियता की कीमत चुकानी पड़ सकती है - बाकी सब तो नहीं लेकिन उनका क्या होगा जो मोदी के भरोसे बैठे होंगे?

मोदी की घटती लोकप्रियता का असर

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता घटने से विपक्षी खेमे में खुशी का माहौल हो सकता है, लेकिन चुनाव के ऐन पहले बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को थोड़ी मायूसी हो सकती है - विशेष रूप से उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को लेकर.

उत्तर प्रदेश के साथ साथ उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में भी विधानसभा के चुनाव एक साथ होने हैं. उत्तराखंड को लेकर जितने प्रयोग संभव थे बीजेपी ने कर भी लिये हैं. पंजाब में अब तक कोई बीजेपी के लिए कोई उम्मीद की बड़ी किरण दिखायी नहीं पड़ी है, सिवाय कैप्टन अमरिंदर सिंह और प्रदेश कांग्रेस के नये नवेले अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के बीच अब भी जारी झगड़े के, लिहाजा ले देकर बीजेपी के लिए मोदी की लोकप्रियता की फिक्र यूपी चुनाव को लेकर ही हो सकती है.

बिहार चुनाव से ठीक पहले अगस्त, 2020 में हुए मूड ऑफ द नेशन सर्वे में जहां मोदी लोकप्रियता के शिखर पर पाये गये, वहीं नीतीश कुमार की पॉप्युलरिटी लगतार घटती हुई पायी जा रही थी. बाकी सर्वे के अलावा, बीजेपी के आंतरिक सर्वे में भी नीतीश कुमार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर को प्रभावी माना गया था. बाद में बीजेपी ने उसे काउंटर करने के लिए चिराग पासवान को तो मिशन पर लगाया ही, जिन सीटों पर बीजेपी उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे थे वहां नीतीश कुमार को पोस्टर पर भी जगह नहीं दी गयी - और चुनावी रैलियों के दौरान मंचों पर प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दोनों ही हुआ करते, दोनों के हाव भाव ही पूरा किस्सा सुना दिया करते रहे.

उत्तर प्रदेश में भी योगी आदित्यनाथ का हाल करीब करीब वैसा ही हो चला है जैसा तब नीतीश कुमार का रहा. हालात करीब करीब वैसे ही हैं कि योगी आदित्यनाथ को भी प्रधानमंत्री मोदी से नीतीश कुमार जैसी ही उम्मीदें होंगीं.

अब तक उत्तर प्रदेश में जो चुनावी माहौल दिखा है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बनारस जाकर कर बयान जारी कर चुके हैं कि कोरोना वायरस की दूसरी लहर की मुश्किलों के बीच योगी आदित्यनाथ का काम शानदार रहा. ठीक वैसा ही बयान अमित शाह लखनऊ पहुंच कर दे चुके हैं - योगी आदित्यनाथ जैसा सीएम तो पूरे देश में नहीं है.

एक तरफ मोदी-शाह का सर्टिफिकेट और एक तरफ जनता की मन की बात है, जाहिर है लोकमन ही भारी पड़ेगा अगर अपने पर आ गया तो. अव्वल तो बयान के बूते कोई दावा करके या किसी आरोप को खारिज करके असर को बहुत कम तो नहीं ही किया जा सकता, हकीकत तो पब्लिक जानती ही है.

योगी आदित्यनाथ को उबारने के लिए बीजेपी की केंद्र सरकार ने ओबीसी बिल लाकर कर मदद करने की कोशिश जरूर की है, लेकिन जातिगत जनगणना की मांग को लेकर विपक्ष के तेवर भी कम नहीं लगते. ये ठीक है कि ओबीसी का कोटा योगी आदित्यनाथ ही निर्धारित करेंगे और संभव है वोट बैंक को ध्यान में रखते हुए घोषणा भी करें. ये भी संभव है कि मोदी सरकार विपक्षी दलों की जातीय जनगणना की मांग पर ध्यान भी न दे, लेकिन क्या बीजेपी पिछड़ी जातियों की राजनीति के आधार पर विपक्षी दलों को एकजुट होने से रोक पाएगी?

दिल्ली और लखनऊ के विपक्ष में बड़ा फर्क है. दिल्ली में हर कोई प्रधानमंत्री पद का दावेदार होता है, लेकिन लखनऊ में ऐसा बिलकुल नहीं है. दिल्ली में भले ही कोई कुर्बानी देने को राजी न हो, लेकिन लखनऊ में बढ़ाये हुए कदम खींचने को भी राजी हो सकते हैं - और कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा तो ऐसे संकेत भी दे चुकी हैं. ऊपर से लालू प्रसाद यादव अपनी ओर से लगातार कोशिश कर रहे हैं कि समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव और कांग्रेस के बीच चुनावी गठबंधन हो जाये, मायावती की बीएसपी के साथ न भी हो सके तो.

योगी आदित्यनाथ की मुश्किलें ऐसे भी समझ सकते हैं, सर्वे के मुताबिक, कि वो लोकप्रियता के मामले में खुद भी देश के टॉप-5 मुख्यमंत्रियों की सूची से बाहर हैं. देश के पांच लोकप्रिय मुख्यमंत्रियों की सूची में पहले नंबर पर तमिलनाडु के सीएम एमके स्टालिन ने जगह बनायी है - और उनके बाद ओडिशा के नवीन पटनायक, केरल के पी. विजयन, महाराष्ट्र के उद्धव ठाकरे और पांचवें नंबर पर ममता बनर्जी आती हैं. योगी आदित्यनाथ इस सूची में 29 फीसदी लोगों की पसंद के साथ सातवें नंबर पर पाये गये हैं.

योगी आदित्यनाथ और यूपी में बीजेपी की सबसे बड़ी मुश्किल भी यही है कि जिस ब्रांड मोदी का भरोसा है उसकी लोकप्रियता कम होने लगी है. वैसे तो बिहार चुनाव के बाद और बंगाल चुनाव से पहले भी मोदी की लोकप्रियता घटी हुई पायी गयी थी, लेकिन अभी के मुकाबले ज्यादा रही. ब्रांड मोदी को बरकरार रखने के लिए ही लगा था कि कश्मीरी नेताओं से वार्ता जैसे कार्यक्रम बनाये गये, लेकिन जब सबसे बड़ा ब्रांड ही कमजोर पड़ने लगे तो मुश्किल तो होगी ही.

लोगों के मूड को भी क्या कहा जाये. बतौर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की लोकप्रियता में कमी तो देखने को मिल रही है, लेकिन अगले प्रधानमंत्री के रूप में योगी को देखने वालों की तादाद बढ़ने लगी है. अगस्त, 2020 में जहां महज 3 फीसदी लोगों की अगले प्रधानमंत्री के रूप योगी आदित्यनाथ पंसद आ रहे थे, जनवरी, 2021 में 10 फीसदी लोग उनको अगले पीएम के तौर पर पसंद कर रहे थे. ताजा सर्वे में बढ़ कर ऐसे लोगों की संख्या 11 फीसदी हो चुकी है. सच में पब्लिक का मूड भी अनोखा ही होता है.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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