कितने सच्चे-कितने झूठे: एग्ज़िट पोल की इनसाइड स्टोरी
एग्ज़िट पोल को लेकर दो बातें साफ होनी चाहिए. पहली ये कि क्या एग़्ज़िट पोल सच्चे-झूठे होते हैं? दूसरी ये क्या एग्ज़िट पोल सही-गलत हो सकते हैं?
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राजू एक सच्चा इंसान है. वो हर काम ईमानदारी से करता है. बिना जान पहचान के भी लोगों से बात करके ज़रा सी देर में उनके दिल में उतर जाता है. अगर आपको कोई इस वाक्य के साथ राजू से मिलवाए तो आप राजू के बारे में क्या राय बनाएंगे? ज़ाहिर है आपके पास राजू को अच्छा और सच्चा मानने के अलावा तब तक कोई चारा नहीं है. जब तक कि राजू आपके साथ कोई बेईमानी न करे या फिर आप उसके गपोड़ और झूठा होने के किस्से न सुन लें. हां आप अपनी तसल्ली के लिए राजू की पृष्ठभूमि पता कर सकते हैं और उसका ट्रैक रिकॉर्ड भी चेक कर सकते हैं. लेकिन राजू एक इंसान है. तो उसके साथ भी वो सारी संभावनाएं और आशंकाएं जुड़ी हैं, जो एक मनुष्य के साथ जुड़ी होती हैं.
बस समझ लीजिए कि गुजरात विधानसभा चुनाव के लिए किए गए या किसी भी चुनाव के लिए किए जाने वाले ओपिनियन और एग्ज़िट पोल राजू हैं. अब राजू सच्चा है. झूठा है. या फिर गपोड़ है. ये पता करने के लिए ज़रा एग्ज़िट पोल की इनसाइड स्टोरी भी जान लेते हैं.
क्या होता है एग्ज़िट पोल
दरअसल, एग्ज़िट पोल सैफोलॉजी का एक अहम हिस्सा है, जो सर्वे और आंकड़ों के आधार पर राजनीतिक भविष्यवाणी करने की एक विधा है. इसमें किसी चुनाव में शामिल होने वालों में से कुछ से बातचीत के आधार पर वास्तविक नतीजों से पहले नतीजों की भविष्यवाणी, सैफोलाजी के ज़रिए की जाती है. मतलब ये नमूनों या सैंपल के आधार पर इकठ्ठा हुए आंकड़ों के विश्लेषण से नतीजों की भविष्यवाणी है. अब भविष्यवाणी सच भी हो सकती है. झूठी भी. या फिर सच या झूठ के करीब भी. चूंकि एग्ज़िट पोल का आधार सैंपल है, इसीलिए एग्ज़िट पोल की एक्यूरेसी या सटीकता इस बात पर निर्भर करती है कि सैंपल कैसे, कहां से और किस आधार पर लिए गए हैं.
एग्जिट पोल कितनी हकीकत, कितना फसाना
अब सवाल है कि जब एग्ज़िट पोल हो ही रहा है, तो कोई ग़लत क्यों करेगा? बिना सैंपल के तो एग्ज़िट पोल होगा नहीं? जब सैंपल लेना ही तो कोई गलत क्यों लेगा? यही वो सवाल हैं जिसके जवाब में एग्ज़िट पोल का कच्चा चिठ्ठा छुपा है. यूं तो दुनियाभर में सैफोलॉजी में एरर ऑफ मार्जिन की गुंजाइश रखी जाती है. लेकिन भारत के संदर्भों में गलती की यह गुंजाइश ज्यादा हो जाती है.
कैसे होता है एग्ज़िट पोल?
एग्ज़िट पोल उस दिन किया जाता है, जिस दिन वोटिंग चल रही होती है. वोट डालकर पोलिंग बूथ से बाहर आ रहे वोटरों से पूछा जाता है कि उन्होंने किसे वोट किया. चूंकि मतदान गुप्त होता है और वोटर अपनी पसंद बताने के लिए बाध्य भी नहीं होता. इसलिए उनसे कई तरह के सवाल किए जाते हैं. जिससे उसकी पसंद का अंदाज़ा लगाया जा सके. यह एक मुश्किल काम है. क्योंकि कई बार आपको कोई सीधा जवाब नहीं मिलता. ऐसे में आपको अपने सवाल का जवाब अंदाजे में ही ढूंढना पड़ता है.
दूसरी सबसे बड़ी बात जिसने जवाब दिया है, उसने वही बताया है, जो वो पोलिंग बूथ के अंदर करके आया है. इस बात का कोई सबूत नहीं लिया जाता. सिर्फ एक अचानक आए सवाल पर उसकी प्रतिक्रिया ही उसका जवाब होता है. क्योंकि जिनसे सवाल किया जाता है, वो पहले से तय नहीं होते.
कैसे होती है सैंपलिंग?
एग्ज़िट पोल के लिए सैंपलिंग एक महत्वपूर्ण आंकड़ा है. इसका कोई साइज़ फिक्स नहीं है. लेकिन माना जाता है कि जितना बड़ा सैंपल होगा, गलती की गुंजाइश उतनी ही कम होगी. बड़े सैंपल से मतलब है कि कुल वोटरों में से आपने कितने लोगों से बात की है. लेकिन सैंपलिंग का स्ट्रक्चर भी महत्वपूर्ण है. मतलब सैंपल में कितनी महिला है, कितने पुरुष हैं और किस उम्र के हैं. यह ध्यान रखना इसलिए महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि सैंपल एक प्रतिनिधि आंकडा होता है, जिसमें संतुलन होना गलती या एरर की संभावनाओँ को कम करता है.
रिप्रजेंटेटिव सैंपलिंग की जरूरत
जैसा कि पहले बताया है कि सैंपल एक प्रतिनिधि डाटा है, इसलिए इसका संतुलन ज़रूरी है. सिर्फ डेमोग्राफिक स्तर पर ही नहीं, बल्कि जियोग्राफिक स्तर पर भी सैंपलिंग में प्रतिनिधित्व होना चाहिए. मतलब अगर गुजरात में चुनाव हैं, तो आप एक दो या तीन शहरों या सीटों से सैंपल के आधार पर भविष्य़वाणी नहीं कर सकते. अगर सैंपल सही ढंग से नहीं लिए गए, तो एरर ऑफ मार्जिन, एरर ऑफ रिजल्ट में बदल सकता है.
एग्जिट पोल की इनसाइड स्टोरी
गुजरात चुनाव के एग्ज़िट पोल की बात करें तो एक्सिस माई इंडिया ने दावा किया है कि उसका सैंपल सबसे बड़ा है. इस दावे के मुताबिक कुल चालीस हजार लोगों से बात की गई है और इन चालीस हज़ार लोगों में सभी 182 विधानसभा सीटों से सैंपल लिए गए हैं. इसके अलावा जो भी चार या पांच एग्ज़िट पोल हैं, उनमें भी सैंपल इसके करीब या इससे बहुत कम ही रहा है (ज्यादातर एजेंसियों ने अपना सैंपल साइज़ नहीं बताया है).
इसका मतलब हुआ कि हर सीट पर करीब 220 लोगों से बात की गई है. गुजरात में 4.3 करोड़ वोटर हैं और इसमें से 68.41 फीसदी लोगों ने वोट किया. अगर सैंपल देखा जाए, तो एग्ज़िट पोल का सबसे बड़ा सैंपल भी बहुत बारीक नजर आता है. लेकिन रिसर्च या सर्वे में आप सिर्फ रिप्रेजेंटेटिव डाटा ही लेते हैं.
एग्ज़िट पोल पर भरोसा किया जाए?
एग्ज़िट पोल को लेकर दो बातें साफ होनी चाहिए. पहली ये कि क्या एग़्ज़िट पोल सच्चे-झूठे होते हैं? दूसरी ये क्या एग्ज़िट पोल सही-गलत हो सकते हैं? पहले सवाल का जवाब राजू की कहानी में है. अगर आप राजू पर भरोसा करते हैं, तो आप उसकी बात मानिए. नहीं तो राजू को झूठा समझकर आगे बढिए. दूसरा मुद्दा है सही और गलत होने का, तो इसमें सैफोलाजी और विश्लेषण आता है.
सबसे पहली बात तो यह कि कोई भी सच्चा सैफोलॉजिस्ट आपको एग्ज़िट पोल के आधार पर सीटों की संख्या बताने का रिस्क नहीं लेगा. क्योंकि सैफोलाजी आपको वोट शेअर बताती है. मतलब किस पार्टी को कितना वोट परसेंटेज मिल रहा है. इसी के आधार पर हवा का रुख भांपा जाता है. लेकिन वोट शेअर एक आम दर्शक या पाठक को आकर्षित नहीं करता. इसलिए आजकल एग्जिट पोल से सीधे चुनाव के नतीजों की भविष्य़वाणी की जाती है.
एग्जिट पोल की विश्नसनीयता पर सवाल क्यों?
इसके लिए खुद एग्जिट पोल करने वाली एजेंसियां दोषी हैं. क्योंकि जो वास्तविक तरीका या पद्धति है, उसमें सीट शेअर का सटीक प्रावधान नहीं है. लेकिन एग्जिट पोल के खेल को आकर्षित बनाने के लिए अब सभी ये रिस्क लेते हैं, इसीलिए एग्जिट पोल फेल होते हैं. क्योंकि आपको एग्जिट पोल का नतीजा तो वोट फीसदी में मिल रहा है और आप उसे सीट शेअर में तब्दील करते हैं. क्योंकि वोट फीसदी ज्यादा होने का मतलब नहीं है कि कोई पार्टी ज्यादा सीट जीत रही है. क्योंकि ऐसी स्थिति में वोटों का कई जगहों पर बंटवारा और हल्का सा वोट स्विंग बड़ी भूमिका निभाता है.
जैसे अगर गुजरात में मोदी लहर है, लेकिन कुछ हिस्सों में पाटीदार वोटरों में गुस्सा है या फिर साउथ गुजरात के व्यापारिक इलाकों में सरकार विरोधी सेंटीमेंट है. तो यहां वोट शेअर को सीट में बदलना खतरे से खाली नहीं है. लेकिन इस बार भी एग्ज़िट पोल में ऐसा हुआ है. क्योंकि मोदी लहर वाली सीटों पर बीजेपी बड़े मार्जिन से जीतेगी, तो उसका वोट शेअर उन सीमित सीटों पर भी ज्यादा होगा. लेकिन जहां मोदी लहर और एंटी इनकम्बैंसी दोनों फैक्टर होंगे, वहां कम मार्जिन से भी हारती है, तो सीटों का नुकसान ज्यादा होगा.
इसे समझने के लिए दिल्ली के 2013 और 2015 में हुए विधानसभा चुनाव का उदाहरण सबसे सटीक है. 2013 में आम आदमी पार्टी को 29 फीसदी वोट मिले और 70 में से 28 सीटें मिलीं. वहीं बीजेपी को करीब 33 फीसदी वोट मिला और 32 सीटें मिली. 2015 में जब चुनाव हुए तो आप को 54 फीसदी वोट मिले और सीटें 67 मिलीं. लेकिन बीजेपी को 2013 के मुकाबले महज़ एक फीसदी वोट कम यानी 32 फीसदी वोट मिले, लेकिन सीटें सिर्फ 3 रह गईं. मतलब बीजेपी का वोट स्विंग बहुत ज्यादा निगेटिव नहीं रहा, लेकिन फिर भी उसका सूपड़ा साफ हो गया.
अब अगर वोट शेअर के हिसाब से गुजरात के एग्जिट पोल को एनालाइज़ किया जाए, तो तस्वीर ज्यादा साफ दिखायी देखी, बजाए कि सीट शेअर के. क्योंकि मुकाबला यहां बहुत कांटेदार रहा है. ऐसे में ज़रा सा भी वोट स्विंग बड़े बदलाव की वजह बन सकता है.
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