जितने लोग सड़क पर कुचलकर नहीं मारे जाते, उससे अधिक बौद्धिक हिंसा का शिकार हो रहे हैं
माफ़ करें, पर सच्चाई और हमारे देश का दुर्भाग्य यह है कि यहां प्रतिदिन जितने लोग सड़कों पर कुचलकर मारे नहीं जाते, उससे अधिक लोग हमारे सांप्रदायिक, जातिवादी ठेकाप्राप्त बुद्धिजीवियों की वैचारिक हिंसा का शिकार बन जाते हैं.
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सलमान अंसारी- उम्र 8 वर्ष
साजिया खातून- उम्र 8 वर्षशाह
जहां खातून- 9 वर्ष
नुसरत परवीन- उम्र 10 वर्ष
अनिशा कुमारी- 10 वर्ष
शहनाज खातून- उम्र 11 वर्ष
अमिता कुमारी- उम्र 12 वर्ष
रचना कुमारी- उम्र 12 वर्ष
बिरजू कुमार- 12 वर्ष
ये मेरे बिहार के 9 बच्चे हैं, जो सड़क पर कुचलकर मारे गए हैं. अगर इनके नाम पर अखलाक, जुनैद या रोहित वेमुला की तरह सांप्रदायिक और जातीय ध्रुवीकरण हो पाता, तो अब तक कितने सांप्रदायिक और जातिवादी लेखकों-फिल्मकारों ने पुरस्कार लौटाने का ढोंग रच डाला होता (क्योंकि उन्हें मालूम है कि पुरस्कार लौटाने से नहीं लौटते) और समाज में विभेद पैदा करने का सपना देखने वाले कितने ही साहित्य अकादमी वाले अपनी मामूली पुरस्कार राशि लेकर इनके घर पर पहुंच जाते और फिर अपने राजनीतिक स्पॉन्सरों से उससे दस-बीस-पचास गुणा अधिक रकम ऐंठ लेते.
लेकिन क्या करें?
एक तो ये मेरे गरीब बीमारू राज्य बिहार के बच्चे हैं.
दूसरा- ये दिन में बमुश्किल 100-200 रुपए कमाने वाले दिहाड़ी मज़दूरों के बच्चे हैं.
तीसरा- ये किसी ब्रांडेड प्राइवेट स्कूल में नहीं, बल्कि एक सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे हैं.
चौथा- यह सड़क हादसा है, इसलिए चाहकर भी सांप्रदायिक या जातीय रंग दे पाना संभव नहीं है.
पांचवां- बिहार में टीआरपी नहीं है.
छठा- मीडिया में सुर्खी नहीं मिलेगी, अखबार में नाम नहीं छपेगा, टीवी पर चेहरा नहीं चमकेगा, तो मुद्दे पर आंसू बहाकर क्या मिलेगा?
सातवां- बिहार में सेक्युलर-शिरोमणि नीतीश कुमार जी की सरकार है, क्या पता किसी दिन फिर से अगर वे भाजपा से अलग हो गए, तो उनके पक्ष में संघमुक्त भारत का कैंपेन चलाना पड़े?
यानी 9 बच्चों की मौत 90 तरह के गुणा-गणित में उलझकर मेरे देश के इन सांप्रदायिक और जातिवादी बुद्धिजीवियों के लिए 9 ढेलों के फूटने से ज़रा भी अधिक नहीं रह गई है. जिस जान पर वे हिन्दू या मुसलमान या दलित की चिप्पी नहीं चिपका पाते, उसके लिए उनका रोआं तक नहीं सिहरता. हमारे सांप्रदायिक और जातिवादी बुद्धिजीवियों के शरीर में इंसानियत नाम का रोआं होता ही नहीं, जो सिहरेगा.
मैं आपको दावे के साथ कह सकता हूं कि जिन लोगों ने अखलाक, जुनैद, पहलू खान या रोहित वेमुला की मौत पर देश में इराक-सीरिया जैसे हालात होने का दावा ठोंक डाला था, उनमें से अधिकांश की कलम से आपने अब तक एक भी शब्द हमारे इन नौ बच्चों को कुचले जाने पर नहीं पढ़ा होगा. इसी तरह, जिन लोगों ने प्रद्युम्न, डॉ. नारंग या अंकित की मौत पर बहुत कुछ लिखा-बोला होगा, उनमें से भी अधिकांश इस वीभत्स घटना पर चुप ही होंगे.
ज़रा सोचिए, कि विचारों के आवरण में हमारे देश के बुद्धिजीवी किन लोगों के पक्ष में लिखते-बोलते हैं या आंदोलन करते हैं-
1- वे आए दिन हिंसा करके बेगुनाह नागरिकों और जवानों की हत्या कर देने वाले माओवादियों-नक्सलवादियों के पक्ष में लिखते-बोलते आंदोलन करते हैं.
2- वे आए दिन बेगुनाह नागरिकों को धर्म के नाम पर मार देने वाले आतंकवादियों के मानवाधिकार के लिए लिखते-बोलते आंदोलन करते हैं.
3- वे देश पर हमला करने वाले अफ़जल गुरु और याकूब मेमन की फांसी माफ़ कराने के लिए लिखते-बोलते आंदोलन करते हैं.
4- वे हमारे देश के सैनिकों, अर्द्धसैनिक और पुलिस बलों के जवानों पर हमला करने वालों के पक्ष में लिखते-बोलते आंदोलन करते हैं.
5- वे इंसान के लिए नहीं, हिन्दू-मुस्लिम-दलित-पिछड़े के लिए लिखते बोलते आंदोलन करते हैं.
6- वे राजनीतिक दलों और पूंजीपतियों से ठेका लेकर लिखते-बोलते आंदोलन करते हैं.
माफ़ करें, पर सच्चाई और हमारे देश का दुर्भाग्य यह है कि यहां प्रतिदिन जितने लोग सड़कों पर कुचलकर मारे नहीं जाते, उससे अधिक लोग हमारे सांप्रदायिक, जातिवादी ठेकाप्राप्त बुद्धिजीवियों की वैचारिक हिंसा का शिकार बन जाते हैं. बिहार में 9 बच्चों को कुचले जाने की घटना पर इनकी चुप्पी और इनके सेलेक्टिव सरोकारों का मैं पुरज़ोर तरीके से प्रतिकार करता हूं.
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