क्या भाजपा अमित शाह के रंग में रंग गई है?
ऐसा लगता है कि अमित शाह प्रधानमंत्री मोदी के आंख, कान एवं नाक बन गए हैं. भाजपा के किसी भी नेता का पद और उसका प्रोमोशन इस बात पर निर्भर नहीं कि वह प्रधानमंत्री के कितना करीब है, बल्कि ये कि क्या वह भाजपा अध्यक्ष का भी चहेता है...
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गुजरात की पूर्व मुख्यमंत्री आनंदीबेन नितिन पटेल को मुख्यमंत्री बनाए जाने के पक्ष में थीं, लेकिन उनकी एक नहीं चली. अमित शाह ने उनके लाख विरोध के बावजूद भी अपने करीबी विजय रुपानी को मुख्यमंत्री बनवाया. केवल यही नहीं, नए मंत्रिमंडल में आनंदीबेन कैबिनेट के नौ मत्रियों को जगह नहीं दी गई, जिन में से कई ना केवल पूर्व मुख्यमंत्री के बेहद करीबी थे बल्कि बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ भी काम कर चुके थे.
आनंदीबेन हमेशा से मोदी की सबसे करीबी और विश्वासपात्र नेता मानी जाती रही हैं. पर अमित शाह और आनंदीबेन के बीच हमेशा छत्तीस का आंकड़ा रहा है.
इस वर्चस्व के लड़ाई में जब नरेंद्र मोदी को अमित शाह और आनंदीबेन के चहेतों में से एक का चुनाव करना था तो प्रधानमंत्री ने भाजपा अध्यक्ष का साथ दिया. और यह जता दिया की उनकी प्राथमिकता क्या है. अमित शाह ने दिखा दिया कि नरेंद्र मोदी के बाद भाजपा के शाह केवल वो हैं. अगर कोई अमित शाह के करीब नहीं है, तो उसके लिए पार्टी में या तो बहुत ही सिमित स्थान है या कोई स्थान नहीं. चाहे वह व्यक्ति प्रधानमंत्री का भी चहेता क्यों न हो. क्या ऐसा पहली बार हुआ है कि प्रधान मंत्री ने अपने किसी चहेते को केवल इसलिये दरकिनार कर दिया क्योंकि वह अमित शाह का चहेता नहीं है? इसका जबाब हैं नहीं.
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आज के भारत की राजनीति के चाणक्य के रूप में प्रख्यात प्रशांत किशोर ने 2014 लोकसभा चुनावों में मोदी की ऐसी आंधी बनाई थी, जिसके बहाव में सभी पार्टियां धराशाई हो गईं. वो मोदी के बेहद नजदीकी थे और उनके गांधीनगर के घर में 3 वर्षों तक साथ रहे. पर शाह को प्रशांत किशोर कभी पसंद नहीं थे. तब भी नहीं जब प्रशांत 2014 में नरेंद्र मोदी के लिए रणनीति बनाया करते थे. लोकसभा चुनावों में मिली जीत के बाद अमित शाह, मोदी के मैन ऑफ़ द मैच बन गए. प्रशांत किशोर को जीत का कोई श्रेय नहीं दिया गया.
वह नीतीश कुमार और लालू यादव के साथ चले गए और बिहार विधान सभा चुनाव में भाजपा की हार सुनिश्चित करने में अहम रोल अदा किया. स्मृति ईरानी ने 2014 में हुए आम चुनावों में अमेठी से राहुल गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ा था. चुनाव प्रचार के समय नरेंद्र मोदी ने स्मृति को अपनी बहन बताते हुए वोट मांगे थे, पर वो चुनाव हार गईं. शिक्षा के क्षेत्र से कोई ख़ास संबंध न होने के वावजूद एक हारे हुए उम्मीद्वार को नरेंद्र मोदी ने भारत का मानव संसाधन मंत्री बना दिया. ऐसा कहा जाता है कि अमित शाह स्मृति ईरानी को बिलकुल पसंद नहीं करते.
अमित शाह के रंग में भाजपा! |
भाजपा प्रमुख ने सबसे पहले स्मृति को भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी से बाहर कर दिया. फिर, कैबिनेट विस्तार से पहले अमित शाह ने प्रधानमंत्री मोदी व संघ के नेताओं से मिल कर स्मृति ईरानी का पर क़तर दिया. उन्हें मानव संसाधन जैसे महत्तपूर्ण मंत्रालय से हटा के कपड़ा मंत्री बनवा दिया. नरेंद्र मोदी के साथ अच्छे सम्बन्ध होने के बावजूद भाजपा अध्यक्ष ने स्मृति का कद छोटा करवा दिया और वो कुछ नहीं कर पाईं.
जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो भाजपा के दिल्ली दरबार में अगर कोई एक व्यक्ति हमेशा नरेंद्र मोदी के पक्ष में खड़ा रहा तो वो था अरुण जेटली. राजनैतिक गलियारों में ऐसा माना जाता है के मोदी बगैर जेटली के सलाह के कोई भी बड़ा काम नहीं करते थे. लोकसभा चुनाव हारने के बावजूद उन्हें न केवल मंत्री बनाया गया बल्कि वित्त एवम रक्षा जैसा महत्वपूर्ण विभाग दिया गया. हालांकि अमित शाह से जेटली के सम्बन्ध अच्छे माने जाते रहे हैं पर पिछले मंत्रिमंडल विस्तार में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय लेकर न केवल उनका पर क़तर दिया गया बल्कि विजय गोयल और एसएस अहलूवालिया को मंत्रिमंडल में लिया गया, जिनके साथ जेटली के अच्छे सम्बन्ध नहीं रहे हैं.
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यह भी कहा गया कि वित्त मंत्री से फेरबदल को लेकर प्रधान मंत्री ने बहुत विचार-विमर्श भी नहीं किया पर अमित शाह के साथ लंबी मंत्रणा की. ऐसा माना जाता हैं कि मंत्रिमंडल विस्तार में वित्त मंत्री अरुण जेटली का रसूख घटा है और दो नंबर कर ताज उनसे छीन के अमित शाह को दे दिया गया है.
अब ऐसा प्रतीत हो रहा है कि अमित शाह, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के आंख, कान एवं नाक बन गए हैं. भाजपा के किसी भी नेता का पद एवं उन्नति इस बात पर नहीं निर्भर करता कि वह प्रधान मंत्री के कितना करीब है बल्कि क्या वह भाजपा अध्यक्ष का भी चहेता है. ऐसा लगता हैं की भाजपा पूर्णतया अपने अध्यक्ष के रंग में रंग गई हैं और अमित शाह 'मयी' हो गयी हैं. क्या भाजपा अमित शाह मयी हो गयी है?
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