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Updated: 01 सितम्बर, 2020 12:42 PM
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लोकतंत्र (Democracy) की अवधारणा में यह बात सबसे जरुरी होती है और होनी भी चाहिए कि जनता के द्वारा चुनी गयी सरकार जनता के लिए ही काम करे. आम जनता के लिए सबसे जरुरी चीजें हैं रोटी, कपड़ा और मकान लेकिन पिछले कुछ वर्षों से यह नजर आ रहा है कि जनता को इन मूल मुद्दों से भटकाकर उसे गैरजरूरी चीजों में उलझाया जा रहा है. खैर लोकतंत्र में जनता के पास मौका रहता है कि समय समय पर राजनेताओं को, जो दरअसल होते तो जनता के सेवक हैं लेकिन अपने को जनता का शासक समझने का भ्रम पाल लेते हैं, सही रास्ता दिखाए. हिन्दुस्तान में स्वतंत्रता के बाद ही समाजवादी परिकल्पना कायम की गयी है और इसके तहत ही तमाम सार्वजानिक उपक्रम स्थापित किये गए हैं. इनके मूल में आम जनता और खासकर गरीब (Poors) जनता को बेहतर सेवाएं और अन्य चीजें उपलब्ध कराने की सोच प्रमुख रही है. लेकिन इस समाजवादी ढांचे के साथ साथ पूंजीवादी ढांचा भी देश में विकसित होता रहा है. चूंकि हर कार्य सरकार ही नहीं कर सकती इसलिए सार्वजानिक क्षेत्रों को छोड़कर बाकी चीजें निजी हाथों को दिया गया था जिससे देश का सम्पूर्ण विकास होता रहे. एक तरफ देश में एलआईसी (LIC), बैंकिंग (Banking), एम्स (Aiims), बीएसएनएल (BSNL), ओएनजीसी (ONGC), भेल (BHEL) इत्यादि को सार्वजानिक क्षेत्र में रखा गया तो दूसरी तरफ अन्य तमाम उद्योग टाटा, बिरला इत्यादि घरानों के हाथ में रहे.

Prime Minister, Narendra Modi, Privatisation, BSNL, JIOवर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम देते भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

संतुलन बरकरार रखते हुए देश का समग्र विकास करने की जो सोच आजादी के बाद के नेताओं में थी, उसी का नतीजा है कि आज देश के तमाम दूरस्थ क्षेत्रों में भी सड़कें, बिजली, पानी, फोन आदि चीजें उपलब्ध हो सकीय हैं. पूंजीवाद सिर्फ और सिर्फ एक चीज को ध्यान में रखकर कार्य करता है (चंद अपवादों को दरकिनार रखकर देखा जाए तो) और वह है मुनाफा.यह मुनाफा किसी भी कीमत पर पूंजीपति को मिलना चाहिए, तभी वह किसी भी क्षेत्र या जगह में निवेश करता है.

अब आप अगर इस बात पर गौर करें और सोचें कि देश में शुरू से ही पूंजीवादी ढांचा रहता तो वह क्या सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में, जहाँ उसके निवेश के बदले में उसे मुनाफा तो दूर, घाटा ही उठाना पड़ता, निवेश करता. इसका जवाब नहीं में ही मिलेगा और अगर ऐसा हुआ होता तो शायद आज देश का 15 प्रतिशत हिस्सा विकास की रौशनी से चकाचौंध रहता और बाकी का हिस्सा उसी तरह अंधेरे में डूबा रहता, या शायद और गरीबी में घिर चुका होता.

लेकिन यह भी सच है कि दुनिया के साथ चलने के लिए आपको उनसे प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है और इसके लिए कहीं न कहीं दूसरे देशों को आपके देश में निवेश करने का रास्ता खोलना पड़ता है. आजादी कि आधी सदी बीतने के बाद सरकार को यह कदम उठाना पड़ा जो कि उस समय के लिहाज से जरुरी था. कुछ क्षेत्रों में विदेशी कंपनियों को निवेश करने का अवसर दिया गया और हमारा देश विश्व के तमाम अन्य विकसित और विकासशील देशों के साथ खड़ा हो गया. लेकिन इसके साथ साथ सार्वजनिक क्षेत्र को भी बढ़ने का पूरा मौका मिलता रहा और देश में विकास शहरों के साथ साथ गांवों और कस्बों में भी होता रहा.

कुछ क्षेत्रों को विदेशी या निजी क्षेत्र की पहुंच से दूर रखा गया जो कि देश की सुरक्षा और संतुलित विकास के लिए जरुरी था. रेलवे को निजी क्षेत्र से दूर रखा गया, डिफेंस को भी सरकार ने अपने हाथ में ही रखा और बैंकिंग, दूरसंचार और बीमा जैसे क्षेत्रों को धीरे धीरे निजी और विदेशी क्षेत्र के लिए खोला गया. इसके चलते इन क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धा बढ़ी और आम ग्राहक को फायदा पहुंचा. लेकिन यहां भी बात वही थी कि निजी या विदेशी कंपनियां अपना कार्य सिर्फ बड़े शहरों या ठीक ठीक शहरों में ही करना चाहती थीं, यह उनकी मज़बूरी थी क्योंकि उन्हें मुनाफा कमाना था.

यहां तक तो ठीक था, शहरों में प्रतिस्पर्धा बढ़ी और ग्राहक को बेहतर सेवा या चीज मिलने लगी. लेकिन जैसे जैसे सरकार ने इन निजी क्षेत्र की कंपनियों के दबाव में आकर सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को हतोत्साहित करना शुरू किया, देश में हर तरफ निजीकरण का रास्ता साफ़ होने लगा. निजी कंपनियां कोई भी सेवा अपनी तंय कीमत पर ही देती हैं और वह आखिरकार ग्राहक को ही वहां करना पड़ता है.

शुरुआत में तो लोगों को लगता है कि निजी कंपनियों से बेहतर कोई नहीं है लेकिन जब उनका किसी क्षेत्र में एकाधिकार हो जाता है तो वह अपना मुनाफा कमाने के लिए मनमानी कीमत वसूल करने लगते हैं. और ऐसे में समाज के 10 प्रतिशत अमीर लोग तो आसानी से उनकी कीमत चुका देते हैं लेकिन बाकी की जनता उसे वहां करने में बुरी तरह पिस जाती है.

अब बात करते हैं कुछ क्षेत्रों की जहां सरकार तेजी से निजीकरण करना चाहती है. और इसके लिए सबसे पहले वह उस क्षेत्र को नजरअंदाज करती है जिससे कि जनता के निगाह में उस क्षेत्र को लेकर रोष पैदा हो जाए और फिर वह उस क्षेत्र को निजी हाथों में देने के लिए खुद ही कहने लगे. सबसे पहला उदहारण है बी एस एन अल का जिसे गिराने के लिए उसे स्पेक्ट्रम नहीं दिया गया और निजी कंपनियों को (जिओ, वोडाफोन, एयरटेल इत्यादि) दे दिया गया.

अब जाहिर सी बात है कि जब बीएसएनएल के पास स्पीड के लिए स्पेक्ट्रम नहीं है तो उसकी सेवा अन्य निजी कंपनियों की तुलना में खराब रहेगी. लोगों ने अन्य कंपनियों को चुनना शुरू किया, वे आगे निकल गयी और उन्होंने बीएसएनएल के संसाधनों का ही उपयोग अपने फायदे के लिए किया. आज बीएसएनएल के कर्मचारी अपनी तनख्वाह पाने के लिए तरस रहे हैं और उनको लगातार जबरन रिटायर किया जा रहा है.

ये अलग बात है कि जियो के अलावा अन्य निजी कम्पनियां भी कुछ सालों में ही अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं. अब अगले कुछ वर्षों में जब सब कुछ जिओ के हाथ में चला जाएगा तो वह जो कीमत चाहेगा, आसानी से वसूल करेगा. एलआईसी को भी देख लीजिये, धीरे धीरे इसे भी निजी हाथों में देने की कवायद शुरू हो चुकी है. इसे भी योजनाबद्ध तरीके से कमजोर किया जा रहा है और कुछ सालों बाद शायद यह भी किसी बड़े पूंजीपति के हाथ में चला जाएगा. पिछले कुछ सालों में ही चंद विदेशी या निजी बीमा कम्पनियां शुरू होकर बंद भी हो चुकी हैं और इस समय चलने वाली कितनी निजी कम्पनियां  अगले दस साल तक रहेंगी, किसी को पता नहीं है.

अगर बैंकिंग की बात करें तो भारत के समग्र विकास में शायद सबसे बड़ा योगदान सार्वजानिक क्षेत्र के बैंकों का ही रहा है. आज की तारीख में भी, जब बहुत सी निजी क्षेत्र की कम्पनियां बैंकिंग में आ चुकी हैं, किसी की भी शाखा सुदूर ग्रामीण क्षेत्र में नहीं है. ये निजी क्षेत्र के बैंक अपना विस्तार शहरों और बड़े कस्बों तक ही रखेंगे और हर सेवा के बदले में भरपूर कीमत वसूलेंगे. आखिर इनका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ मुनाफा कमाना है.

जनधन खाते या सरकारी योजनाओं को लागू करने का जिम्मा सिर्फ सार्वजानिक क्षेत्र के बैंकों का है, चाहे इनको इसके लिए घाटा ही क्यों न उठाना पड़े. और इसी घाटे की आड़ लेकर सरकार इनको भी निजी हाथों में बेचने का काम जोर शोर से करने जा रही है. ऐसे में लोग उन निजी बैंकों को भूल जाते हैं जो पिछले कुछ साल में जनता की गाढ़ी कमाई को डुबा चुके हैं.

निजी क्षेत्र की सबसे तेज निगाह रेलवे पर है जिसके लिए उनके पास सरकार का बनाया ढांचा मौजूद है. पटरियां, स्टेशन और अन्य मुलभुत चीजें पहले से ही उपलब्ध हैं और इसके लिए निजी क्षेत्र की कंपनियों को कोई खर्च नहीं करना है. शुरुआत में वे सभी ऐसे क्षेत्रों में ट्रैन परिचालन शुरू करेंगे जहां रेलवे पहले से ही अच्छा मुनाफा कमा रहा है. फिर वे उन्ही क्षेत्रों में मनमानी कीमत वसूलेंगे जिसका विरोध करना आम आदमी के लिए असंभव होगा.

धीरे धीरे ये निजी कम्पनियां पूरे रेलवे को खरीद लेंगी और मुनाफा कमाने के लिए आज की तुलना में दस गुना टिकट वसूलेंगी. एक और बात नजर आ रही है कि सरकार ने रेलवे को भी कमजोर करने के लिए पिछले कुछ महीनों में इसे लगभग बंद ही रखा हुआ है. जब कमाई नहीं होगी तो यह घाटे में जायेगी और फिर इसे बेचने में आसानी होगी. आखिर जब सड़क मार्ग से आवाजाही चल ही रही है, वायुमार्ग खुल चुका है, आधी से ज्यादा आबादी एक जगह से दूसरी जगह जा ही रही है तो फिर रेलवे को ही बंद रखने का क्या औचित्य हो सकता है.

खैर निजीकरण के बाद आम जनता का क्या हश्र होगा, यह तो दिवार पर लिखी हुई इबारत की तरह स्पष्ट नजर आ रहा है. लेकिन देश के सम्पूर्ण विकास के लिए सार्वजनिक क्षेत्र को न सिर्फ जिन्दा रखना होगा, बल्कि उसका विकास भी करना होगा.

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